// श्री जानकीवल्लभो विजयते //
प्रार्थना
कविवर
श्री विश्वनाथ मिश्र जी "पंचानन "
पटना (बिहार) भारत
तारो हे ! तारनहार तारो !
जर्जरित हो रही नैया को,
घाट लग रहे खेवैया को,
जो उन्मथित हो रहा है आज
देख सागर की रवैया को |
साँस के अन्तिम डग चंचल क्यों
प्रभो ! थोडा बढ़कर उबारो |
तटिनी, छुट चुकी कब की है,
तन्द्रा, टूट चुकी कब की है,
ठगिनी ने कम नहीं भरमाया
सब कुछ लूट चुकी कब की है |
रीतापन साल रहा मुझको,
तन थके पर मन नहीं हरो |
झंझा ने कम नहीं झकझोरा,
मेरा पथ किधर नहीं मोझा,
लहरों के थपेडों ने मुझे,
कहीं का भी क्या छोडा ?
ये तो मेरे थे सधे हाथ
जिससे कट सके धर चरों |
भँवर ने जब भी फँसाया है,
कोई नहीं काम आया है,
अपना ही ज्ञान रहा साथी
जिसने साथ मिल निभाया है |
साथी कौन, कहाँ जीवन के
सुख में यहाँ मिलते हजारों |
अतीत का बस यही बोध है,
समर्थन कम, अधिक विरोध है,
पीछे जो छूटे पथ सभी
हस्ताक्षरित मेरे शोध हैं |
मेरी आस्था जो तुम पर है
उसने ही यहाँ तक सँवारो |
फिर भी किंचित् हूँ, व्यथित नहीं,
श्रम - सीकर से हूँ, थकित नहीं,
जगत उबरे, बस यही चिंता,
हूँ अपने लिए विचलित नहीं,
सोचता, क्या करूँ इसके लिए,
प्रभो ! तुम भी इस पर विचारो |
वसुधा संग मुझे भी उबारो |
तारो हे ! तारनहार तारो !
जय श्री राधे