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Sunday, February 15, 2009

एकत्व

// श्री जानकीवल्लभो विजयते //

एकत्व

कविवर
श्री विश्वनाथ मिश्र जी "पंचानन "
पटना (बिहार) भारत

एक ही सृजन है, एक ही सृजनहार,
कृतियाँ अनेक, उसके भिन्न - भिन्न प्रकार |
एक ही तूलिका से एक रंग भरता है,
एक से अनेक, अनेक से एक करता है |
मिटते, उभरते या धुँधले से पड़ गये जो,
उन सभी चित्रों से, उसको है सदा प्यार |
यह क्षिति, जल, पावक हो, या गगन, समीर हो,
फ़िर इन तत्वों से कोई निर्मित शरीर हो |
सुन्दर हो, असुन्दर हो, जैसा भी रूप हो,
वे सभी उसके हैं, उन पर ममता अपार |
कुछ भी अदेय नहीं, वह क्या नहीं देता है,
कहीं हो कैसे भी, कण - कण की सुधि लेता है |
फ़िर भेद - अभेद क्या गोरे - काले में ?
बड़े और छोटे का संकुचित व्यवहार |
मैं, मैं हूँ, तुम, तुम हो, इसके हम कर्ता हैं,
पर हमारा जो कर्ता, भर्ता, संहर्ता है |
उसके तो एक हम, हमारा वह एक है,
हम सबका उस पर, उसकी रचनाओं पर
एक ही समान है, बराबर का अधिकार |
जिन्दगी सबको जीने के लिए होती है,
उम्र भर प्रीति पीने के लिये होती है |
यह सत्य - शिव - सुन्दर, सृष्टि की रचना है,
इसे बिगाड़ने का हम करें क्यों व्यापार ?
उसकी कलाओं को कोई भी मिटाये क्यों ?
सराह नहीं पाये तो महत्ता घटाये क्यों ?
इन कृतियों को अनेक विधि सजाओ - सँवारो,
तुम भी कृति हो, कोई तेरा भी कलाकार |
जय श्री राधे