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Thursday, February 26, 2009

बसन्तागमन

// श्री जानकीवल्लभो विजयते //

बसन्तागमन
रचना समय सन् 1969
कविवर
श्री विश्वनाथ मिश्र जी "पंचानन "
पटना (बिहार) भारत

शीत से ठिठुरी प्रकृति ने करवट ली,
चेतना नई एक जग गई |
क्षितिज के उस पार गाँवों के खेत सभी,
इठलाती पीली सरसों से लद गई |
आम की डाली मह - मह मंजरियों से
अशोक, निर्गुण्डी नव - नव कोपलों से
पलास की शाखाएँ लाल - लाल, टह - टह,
फूलों और टेसुओं से, गदराकर लद गई |
कहीं पत्तों की ओट से, कोयलिया कुहुक रही,
कहीं झारी की झुरमुट से, कुचकुचिया चहक रही,
कहीं फूलों से लदे, फदे, टहनियाँ लचक रहीं
नन्हीं नन्हीं क्यारियों की डालियाँ
फूलों से सज -धज कर, मदमस्त हो होकर
झिहिर -झिहिर झूम रही |
गलबहियाँ डाल - डाल, आलिंगन बाँध - बाँध
मुग्धा बन, लतिकाएँ द्रुम - वृन्तों से लिपट - सिमट
सिहिर - सिहिर चूम रही |
पुष्पों के भरे चषक पी - पीकर बौरे बने
झुण्ड -झुण्ड भौंरे इधर से उधर उड़े |
निरख -निरख इन्द्रधनुष, बहुरंगी, तितलियों को,
सबके ये नैन जुड़े |
मन्द - मन्द पवन, भरे मकरन्द से
बोझिल बने ढमक - ढमक, चारो ओर गमक रहे |
मनु की, नर - नारी की, प्रभुता की बात क्या ?
जीव- जन्तु, जड़ - चेतन, बहक - बहक, सहक - सहक,
मताये से बहक रहे |
जय श्री राधे