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Monday, March 23, 2009

गीत

// श्री जानकीवल्लभो विजयते //

गीत


कविवर
श्री विश्वनाथ मिश्र जी "पंचानन "
पटना (बिहार) भारत
झमक गई अमराई आज, पुरवाई चलने लगी |
अंबिया की डाली लचक गयी |
मंजरियाँ मह - मह - मह महके, 
सिन्दुरवार टह - टह - टह टहके |
अशोक, निर्गुण्डी, सेमर - शिरीष,
पलाश में लाली लहके |
जैसे बगनवाँ में लग गई आग, पुरवाई चलने लगी |
उठती जवानी धधक गयी |
मस्ती में गा रही घेमियाँ,
सरसों, तीसी, लहराती वेणियाँ |
अरहर, सनई की सोने की किंकणी,
तान रही सुर बाँधे श्रेणियाँ |
रही बधरवा में सब्जपरी नाच, पुरवाई चलने लगी |
बुढे़ बरगद की अँखियाँ फड़क गयी |
गेंदा, गुलाब, जूही, चमेली,
केतकी, कचनार, बेला, बेली,
मल्लिका, मौलसरी, अलबेली,
सैन चला रही चंपा अकेली |
कब के बगिया में समा गया फाग, पुरवाई चलने लगी |
कलियों की तियाँ चटक गयी |
थम थम कर पपीहा की पी पी,
दर्दों में टीस को घोल रही |
भोर - भिनसहरे, काली कोयलिया,
जख्मों की बखिया खोल रही |
बेचारी बिरहनियाँ झँवा गई आज, पुरवाई चलने लगी |
मनवाँ में हुकवा कसक गयी |
सहकी - सहकी शाखों की अदायें,
बहकी - बहकी फिरती ये हवायें |
अंगड़ाई भरने लगी हैं लतायें,
ऐसे में मन को कैसे मनायें |
सारे नस - नस में फूंक रहा ताप, पुरवाई चलने लगी |
करेजवा में कटारी लसक गयी |
कहीं महुआ घूँघट पट खोल रहा, 
चू - चू मताई गंध घोल रहा |
कहीं चिड़ियों के चह - चह का सरगम,
मुखड़ा पर मुखड़ा बोल रहा |
फिर से धरती अंकुर गई आज, पुरवाई चलने लगी |
कमर से चुनरिया घसक गयी |
दिन में सूरज हलचल मचाये,
खेतों - खलिहानों में लुक - छिप जाये |
रात में चन्दा, जादू जगाकर,
किरणों से छू - छू अंग जलाये |
भोरी गुजरिया भरम गई आज, पुरवाई चलने लगी |
गदराई जवनियाँ मसक गयी |
आज की ऋतू कुछ ऐसी बौराई,
बंजर तक करने लग गई सगाई |
सूखी टहनी भी सर को उढाकर,
नीचे की कन्छी में फूट सुगबगाई |
गुजरती उमरिया ठहर गई आज, पुरवाई चलने लगी |
पिछली पिरीतिया कचक गयी |
जय श्री राधे