// श्री जानकीवल्लभो विजयते //
शिक्षा
पं० लक्ष्मीकान्त शर्मा ( कौशिक )
श्री धाम वृन्दाबन, भारत
मनुष्य को जीवन में सवसे महत्त्वपूर्ण है शिक्षा प्राप्त करना फिर चाहे वह किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो, क्यों कि विना ज्ञान प्राप्त किये वह नीरस है और उसका जीवन अधूरा व व्यर्थ है साथ ही वह पशु योनि से भी बदतर है | यथा - " साहित्य, संगीत, कला विहीन, साक्षात् पशु पुच्छ विषाण हीन || " मनुष्यता प्राप्त करने के लिए मनुष्य के अन्दर वहुत से गुणों प्रादुर्भाव होना आवश्यक है और वह शिक्षा प्राप्त करने पर ही प्राप्त होते हैं |
यथा - " विद्या ददाति विनयं, विनयाति याति पात्रताम् , पात्रताम् धन माप्नोती, धनात् धर्म ततः सुखम् ||
" अर्थात् विद्या ग्रहण करने पर जीवन में विनम्रता आती है जो कि मनुष्य के लिए परम आवश्यक है | और तभी वह योग्य कहलाता है | ऐसा होने पर वह धन उसके पास आ जाता है अर्थात् योग्यता का उपयोग धनोपार्जन में करता है और फिर धन से ही धर्म कि पूजा - सेवा करता है वह धार्मिक कार्यों को करने में रूचि लेता है जव यह सव होता है तो निश्चित ही उसे सुख व शान्ति कि अनुभूति होती है |
ऐसा नहीं है कि शिक्षा का प्राचीन समय में या अन्य युगों मै स्थान नहीं था | भगवान राम व कृष्ण ने भी मनुष्य जन्म लिया तव भी हम कलियुग के प्राणियों को ज्ञान करने के लिए ही वह विद्या प्राप्त करने गुरुकुल ( गुरु आश्रम ) में गए |
यथा - " गुरु गृह पढ़न गये रघुराई, अल्प काल विद्या सव आई || " जवकि उन्हें आवश्यकता नहीं थी किन्तु हमें सन्देश देने के लिए ही ऐसा किया | इससे जीवन में समानता, मित्रता, सहयोग और एकता का भाव भी जाग्रत होता है जीवन में गुरु का स्थान तो ईश्वर से भी ऊँचा होता है क्योकि वह हमारे अन्दर प्रकाश ( ज्ञान ) का संचार करता है यहाँ एक वात उल्लेखनीय है कि गुरु कैसा होना चाहिए ? इसके लिए एक ही सूत्र है |
यथा - " गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, गढि - गढि काढै खोट | अन्दर हाथ सराहि दै, वाहरि - वाहै चोट || "
वास्तव में गुरु व शिष्य का रिश्ता ( सम्बन्ध ) बहुत ही आत्मीय व नाजुक भी होता है लेकिन अर्न्तह्रदय से प्रगाढ़ होता है आज कलियुग में इसे कलंकित करने वाले भी देखने व सुनने को यदा कदा मिलते है | इस पर सभी को चिंतन व मनन करके अवश्य कुछ करना चाहिए ऐसा नहीं कि सारे नियम गुरु के लिए ही हों | शिष्यों के लिए भी नियम है यथा - " सुखार्थी नो कुतो विद्या, विद्यार्थी नो कुतो सुखम् | " अर्थात् विद्या - प्राप्त करने वाले को सुख की इच्छा नहीं करनी चाहिए और जो सुख - सुविधा की इच्छा रखते है उन्हें विद्या प्राप्त नहीं होती | यहाँ यह वताना भी आवश्यक है कि विद्यार्थी में किन गुणों का होना आवश्यक है |
यथा - " काक चेष्टा, वकोध्यानम्, स्वाननिद्रा तथैव च | अल्पहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पञ्च लक्षण | "
अर्थात् कौवे जैसी तेज दृष्टि तथा वगुले जैसा ध्यान ( एकाग्रता ) और कुत्ते जैसी निद्रा ( नींद ) और कम आहार ( थोडा भोजन ) एवं घर व सांसारिक वातों ( परिचर्चाओं ) का त्याग यह पॉँच लक्षण वहुत जरुरी है इसी के साथ - साथ जीवन में अनुशासन का भी बड़ा महत्त्व है समय का मूल्य भी समझना चाहिए | तभी जीवन अमूल्य हीरा वन सकता है |
मातृ शक्ति ( माँ ) का भी जीवन में एक स्थान है क्योकि वह ही शिशु कि प्रथम गुरु वतायी गयी है | एक कहावत है कि किसी श्रेष्ट जीवन निर्माण में नारी शक्ति ( स्त्री - माँ ) का ही हाथ होता है अतः हमें यदि परिवार समाज, राज्य व राष्ट्र को श्रेष्ट वनाना है | और विकास के पथ पर आगें बढ़कर एकता, अखण्डता, सम्प्रभुता, मनुष्यता, गुरुता और मानव मूल्यों की सुद्रढ़ता कायम रखनी है तो निश्चित ही शिक्षा को हम सभी को अपनाना होगा |
इससे लडके - लड़की के भेद भाव को त्यागना होगा | और इसके लिए नेता, अभिनेता, प्रबुद्धि वुद्धिजीवी, नीति निर्माता, समाज सेवी, धर्म प्रचारक अर्थात् सभी को निस्वार्थ भाव से एक साथ में चिंतन व मनन करते हुए सभी को सामान अधिकार प्राप्त कराने के वास्ते एक जन जागरण आन्दोलन का रूप देकर शिक्षा के महत्त्व को उजागर करके परिवार, समाज व देश के भावी कर्णधारों के भविष्य निर्माण में अपना योगदान देकर अपने कर्तव्य का पालन करते हुए माँ सरस्वती भारती की सेवा करनी होगी |
जय श्री राधे