// श्री जानकीवल्लभो विजयते //
ब्रह्माजी का टीकाकार
पं० लक्ष्मीकान्त शर्मा ( कौशिक )
श्री धाम वृन्दाबन, भारत
ब्रह्माजी की इच्छा हुई की सृष्टि का निर्माण किया जाय | इसके अनुसार कार्य शुरू होने वाला ही था कि उसके मन में आया कि अपने काम में भला - बुरा बताने वाला रहे तो अच्छा | इसलिए सबसे पहले उन्होंने एक तेज - तर्रार टीकाकार गढा | उससे कहा - " आगे से मै जो कुछ सृजन करुगा, उसकी जाँच का काम तुम्हारे जिम्मे रहेगा | "
इतनी तैयारी के बाद ब्रह्माजी ने अपना कारखाना शुरू किया | ब्रह्माजी एक - एक चीज बनाते जाते और टीकाकार उसकी त्रुटी देखकर अपनी उपयोगिता सिद्ध करताजाता | टीकाकार की जाँच के सामने कोई चीज बिना दोष के ठहर न पाती | " हाथी ऊपर नहीं देख पाता, ऊंट ऊपर ही देखता है | गदहे में चपलता नहीं है, बन्दर अत्यंत चपल है | " यों टीकाकार ने अपनी टीकाओं के तीर छोड़ने शुरू किये | ब्रह्माजी की अक्ल गुम हो गयी | फिर भी उन्होंने एक आखिरी कोशिश करके देखने की ठानी | अपनी सारी कारीगरी खर्च करके उन्होंने मनुष्य का निर्माण किया | टीकाकार उसे बारीकी से निरखने लगा | अंत में एक त्रुटी निकल ही आयी | टीकाकार ने कहा - " इसकी छाती में एक खिड़की होनी चाहिए थी, जिससे इसके विचार सब समझ पाते |"
ब्रह्माजी बोले - " तुझे मैंने रचा, यही मेरी बड़ी गलती हुई, अब मै तुझे शंकर जी के जिम्मे करता हूँ |"
यह पुरानी कहानी कहीं पढ़ी थी | इसके बारे में सिर्फ एक शंका है | वह यह कि कहानी के अनुसार टीकाकार शंकर जी के हवाले हुआ नहीं दीखता | शायद शंकर जी को उस पर दया आ गयी हो, या शंकर जी ने उस पर अपनी शक्ति न आजमायी हो | जो भी हो, इतना सच है कि आज भी टीकाकार की जाति चारों ओर फैली हुई है | ब्रह्माजी ने टीकाकार को भला - बुरा देखने को तैनात किया था | उसने अपना अच्छा देखा, ब्रह्माजी का बुरा देखा | मनुष्य के मन की रचना में ही कुछ ऐसी विचित्रता है कि दूसरे के दोष उसको जैसे उभरे हुए साफ दिखाई देते है, वैसे गुण नहीं दिखाई देते |
कितना अच्छा होता - अगर आदमी दूसरों की अच्छाईयाँ देखने का आदी हो जाता और अपनी बुराइयाँ | तो निश्चित ही सारी दुनिया का नक्शा ही बदल जाता |
" माता के सामान दूसरा कोई गुरु नहीं है | "
जय श्री राधे