// श्री जानकीवल्लभो विजयते //
श्रीगंगालहरी
हिन्दी टीका भाग - ३
संकलन कर्ता:-
पं० लक्ष्मीकान्त शर्मा ( कौशिक )
श्री धाम वृन्दाबन, भारत
माँ ! जैसे तुम ( अपने स्वभाव से लाचार होकर ) अधम संस्कार - विहीन, पतित एवं पाखण्डियों के समाज से स्नेह नहीं छोड़ सकती, ( क्योकि पापियों से स्नेह करना - उनका उद्धार करना तुम्हारा स्वभाव है ), उसी प्रकार मुझे संसार में पापों से स्वाभाविक प्रेम है ( उन्हें मैं कैसे छोड़ सकता हूँ ) क्योकि स्वभाव को छोड़ना सबके लिये बड़ा ही कठिन कार्य है ||
प्रदोषकलमें * नाचते हुए त्रिपुरारिकी जटाएँ लीला से खडी हो जाती है | उन समय उनके प्रान्त भाग में खेलती हुई लहरों के रूप में अपनी भुजाओं को फैलाती एवं चालित करती हुई गंगाजी भी मनो नाचने लगती है | ( इतना ही नहीं ) उनका वही जल जब शिवजी के जटाजूट के किसी छेद में प्रवेश करके लहराने लगता है, उस समय जो शब्द उससे निकलता है, वह मनो डमरुकी ध्वनि होती है, जिससे उनका वह नृत्य और भी भला लगता है | भगवती गंगा का वह ताण्डव - नृत्य हमारे त्रिविधि तापका शमन करे ||
मैया ! मैंने सदासे ही अपने कल्याण की चिन्ताका सम्पूर्ण भार तुम पर ही छोड़ रखा है | ऐसी दशा में ( मृत्यु के ) इस विकत समय में यदि तुम मुझे त्याग दोगी तो तीनों लोकों से इस बात का विश्वास उठ जायेगा कि तुम पर भरोसा करने वालों का तुम निश्चय ही उद्धार कर देती हो और अहैतुक दया भी निराधार हो जायेगी ( फिर यह कहाँ रहेगी ) ||
अलौकिक प्रेम के कारण पारवती जी का आधा ( बायाँ ) अंग शिवजी के आधे ( दाहिने ) अंग से जुडा रहता है | उन्ही अर्धनारीनटेश्वर त्रिपुरारि के मस्तक के दाहिनी ओर स्थित जटा - जूट से उछल कर उन्हींके बायीं ओर स्थित अत्यंत कोमल सुसज्जित सीमन्त ( सर के केशोंकी माँग ) में जब कभी तुम मौज में आकर हिलोरें लेने लगती हो, तब उन्ही की वामांगरूपी गौरी सौतियाडाहसे उन तरंगों को अपने कोमल हाथ से हटा देती है और उनके नेत्र क्रोध के कारण फड़क उठते हैं | मैया ! तुम्हारी उन तरंगों की जय हो ||
परमपूज्यनीया गंगे ! बहुत लोग जो तुम्हारी शरण में आते है, उसमे हेतु यह होता है कि तुम उनके ( सभी ) मनोरथों को पूर्ण कर देती हो | परन्तु माँ ! मै तुम्हारी शपथ पूर्वक कहता हूँ कि मेरी आत्मा ने तो ( बिना किसी स्वार्थ के ) स्वभाव से ही तुमसे अपरिमित प्रेम किया है ||
माँ ! जो ललाट पर अनायास तिलक रूप में धारण करने से मनुष्यों के अज्ञान रूप अन्धकार को नष्ट करने के लिये निश्चय ही मध्याह्नकालीन प्रचण्ड सूर्य के सामान बन जाती है और विधाता के द्वारा लिखे हुए अशुभ लेख ( दौर्भाग्य ) को भी तत्काल मिटा देती है, वह तुम्हारी मृत्तिका मेरे सभी शोकों को दूर करे ||
अपने विकसित पुष्प - समूहों के व्याज से अपने - अपने जनपद ( जिले ) आदि में आसक्त मूढ़ मनुष्योंका उल्लासपूर्वक उपहास करने वाले तथा अपनी राशि - राशि सुगंध से नित्य मलिन ( काले ) भ्रमरों को पवित्र करते रहने वाले गंगा - तट वर्ती वृक्ष समूह हमारे मित्र ( सहवासी ) हों ( उन्हीके नीचे हम निवास करें ) ||
कुछ लोग देवताओं की आराधना करते है, जिनकी सेवा बड़ी ही श्रमसाध्य है ( विस्तृत विधि - विधान की अपेक्षा रखती है ), उनसे भिन्न लोग यज्ञ - यागादिमें अनुरक्त रहते है और कुछ लोग यम - नियमादि योगसधानोंसे प्रेम करते है | इधर मै तो हे त्रिपथगामिनी ! तुम्हारे नाम स्मरण से ही पूर्णकाम हुआ इस जगत् - प्रपच्च को तृणसमूहकी भाँति ( तुच्छ ) समझता हूँ ( इससे भयभीत नहीं होता ) ||
माँ ! जीवन भर लगातार पुण्यों के संचय में लगे सत्पुरुषोंका कल्याण करने का ( झूठा ) श्रेय लेनेवाले कितने देवता नहीं है ? अर्थात् सभी उनकी भलाई चाहते हैं | परन्तु जिन्होंने कभी कोई सत्कर्म नहीं किया है तथा जिन्हें कोई दूसरा अवलम्भ ( सहायक ) नहीं है, ऐसे ( असहाय ) व्यक्तियोंका कल्याण करने वाला तुम्हारे सिवा कोई दूसरा इस लोक में मैं नहीं देखता ||
माँ ! ( बचपन में ) स्तनों के दूध के समान तुम्हारा जल पीकर अविवेकी संगियोंके साथ क्रीडा करने ( विषय सुख लूटने ) मैं जल्दी ही बहार चला गया ( तुम्हारे तट पर स्थिर होकर न रह सका ), फिर भी कहीं विश्राम ( शान्ति ) नहीं पा सका | माँ ! बहुत दिनों से मैं अशांत होकर भटकता रहा हूँ - कहीं सुख की नींद नहीं सोया | अतः हे दयार्द्रह्र्दय ! अब तुम मन्द - मन्द वायु के संचार से शीतल अपनी ( जलमयी ) गोद में मुझे सदा के लिए सुला लो ||
गंगे ! शीघ्र अपने दृढ एवं मनोहर फेटे ( कटि ) को बाँध लो, किरीट में सर्पों ( की रस्सी ) से बालचन्द्रमाको जकड कर रख लो ( कहीं बह बालक होनेके कारन झटका लगने से नीचे न गिर पडें, क्योकि यह जगन्नाथ के उद्धारका समय है ( जो अत्यन्त श्रमसाध्य है ) | माँ ! मुझे साधारण मनुष्य समझकर ( खीचने में ) असावधानी मत कर देना, ( असावधानी करने से यह हाथ से छूट जायगा, इसका उद्धार नहीं हो सकेगा ) ||
माँ ! शरत्कालीन चन्द्रमा के समान उज्ज्वल, अर्धचन्द्ररुप श्वेत आभूषण से विभूषित मुकुट वाले सुधाकी धरा के समान श्वेत शरीर, आभूषण तथा वस्त्रों से युक्त, चार हाथों में कलश ( घडा ), कमल तथा वर एवं अभयमुद्राएँ धारण किये हुए, सफ़ेद मगर पर विराजमान तुम्हारे इस दिव्य रूपका जो ध्यान करते है, उन्हें किसी भी प्रकार का पराभव नहीं होता ( नीचा नहीं देखना पड़ता ) ||
जन्म - मरणरूप अग्रिकी ज्वाला से संतप्त प्राणियों को सदा अपनी मन्द मुसकान से शोभा यमान मुख चन्द्र के कान्ति - समूह रूप अमृत - प्रवाह के द्वारा पुष्ट करती हुई, चित्स्वरूप चन्द्रिका के समूहों द्वारा चमत्कारका विस्तार करने वाली कुरुराज शंतनुकी प्राणवल्लभा गंगा मेरे शरीर का कल्याण करें ||
अपनी तरंगों से कालिय सर्प के शत्रु भगवान् विशनी के चरणों को पखारनेवाली देवनदी गंगे ! मैं जन्म - मृत्यु रूप विकराल सर्प के द्वारा इस बुरी तरह से निगल लिया गया हूँ कि मेरे लिये मन्त्रों कि शक्ति भी कुण्ठित हो गयी है, औषधोंकी सामर्थ्य भी नष्ट हो गयी है, देवता भी इसे देखकर भयभीत हो गये हैं, गाढ़ अमृत का रस भी विफल हो गया है, ( सर्प का विष उतारने में समर्थ ) गारुड ( मरकत ) मणियाँ भी चूर - चूर हो गयी हैं | अब तुम्हीं मेरे इस भवतापको दूर करो ||
माँ ! ( पार्वती जी के साथ ) चौपड़ खेलते समय व्याघ्रचर्म, भूतगण, सर्पसमूह, वृषभराज नन्दी, चन्द्रमा आदि के रूप में अपनी सारी सम्पत्ति को हारकर त्रिपुरारि शंकर ने जब तुम्हें दाँवपर रखना चाहा, तब हिमगिरिनन्दिनी पार्वती ( से न रहा गया, वे ) मृदुल हँसी हँसती हुई साभिप्राय दृष्टि से तुम्हारी ओर ताकने लगीं | मैया ! उस समय ( रोष के कारण ) ऊपर को उछलती तथा बहती हुई तुम्हारी चन्चल तरंग रूप नटों का मस्तकपर घडा लेकर नाचना हमें पवित्र करे ||
कामशत्रु शिवके मस्तक को सुशोभित करने वाली, अनेकों प्राणियों के दुःख को तत्काल दूर करनेवाली, मनोहर तथा चन्चल उत्ताल तरंगों वाली गंगा मेरे सभी अंगों को पवित्र करें ||
जो जगन्नाथ ( कवि ) के द्वारा निर्मित इस पीयूषलहरी ( अमृत - प्रवाह के समान मधुर गंगालहरी स्त्रोत ) का पाठ करता है, उसे सर्वत्र सुख - सम्पदा प्राप्त होती है ||
जय श्री राधे