महामंत्र > हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे|हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे||

Wednesday, June 3, 2009


// श्री जानकीवल्लभो विजयते //

श्रीगंगालहरी
हिन्दी टीका भाग -

संकलन कर्ता:-
पं० लक्ष्मीकान्त शर्मा ( कौशिक )
श्री धाम वृन्दाबन, भारत


माँ गंगे ! ( हिमालय आदि ) पर्वतों से नदियाँ तो बहुत - सी निकली हैं, परन्तु तुम्ही कहो, उनमे से किसने त्रिपुरारि शंकर के जटाजूट पर ( विराजमान होनेका ) अधिकार पाया और किसने अपने जल से लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु के चरण धोने का सौभाग्य प्राप्त किया, जिसके साथ कविजन तुम्हारी थोडी भी तुलना कर सकें ? ||

माँ ! जब ( सम्पूर्ण ) अभीष्ट वस्तुओं को देने वाली तुम संसार में बनी हो, तब यज्ञ, दान, तपस्या एव ( विविध ) प्रायच्चित्त करने की क्या आवश्यकता हैं ? तब तक ब्रह्मा निच्चिन्त होकर अवधि रहित समाधी लगायें, भगवान् विष्णु सुख पूर्वक शेषनाग पर शयन करें, शंकर भी बिना विश्राम किये अपने ताण्डव - नृत्य में लगे रहें ( किसी की कोई आवश्यकता नहीं है ) ||

शरणा गतवत्सले ! मै अनाथ हूँ, तुम स्नेह से भीगी रहती हो, मै गतिहीन ( असहाय ) हूँ, तुम ( पापियों को भी ) पुण्यात्माओंकी गति देने वाली हो, मै ( पापपंकमें ) गिरता जा रहा हूँ, तुम सम्पूर्ण विश्व का उद्धार करने वाली हो, मै रोगों से जर्जर हो गया हूँ, तुम सिद्ध वैद्य हो, तुम सुधासिन्धु हो, मैं तृष्णा से पीड़ित ह्रदय वाला हूँ, माँ ! यह नन्हा - सा बालक मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ, अब तुम मेरे लिये जो उचित हो, वही करो ||

गंगा मैया ! जबसे तुम्हारी मंगलमयी चर्चा इस भूमण्डलपर पहुँची है, तबसे यमपुरी ( संयमनी ) का आर्तनाद सर्वथा बन्द हो गया, यमदूत भी मृत व्यक्तियों को खोजने के लिये कंही बहुत दूर चले गये अर्थात नरक में ले जाने के लिये उन्हें कोई नहीं मिला तथा देवताओं की ( स्वर्ग की ) गलियों को तुम्हारी कृपा से स्वर्गारोहण करने वालों के झुन्ड - के - झुन्ड विमान विदीर्ण करने लगे ||

उद्दीप्त काम और क्रोध से अत्यन्त प्रबल रूप में उत्पन्न तीव्र ज्वर की ज्वाला के समूह से दिन - दिन हमारा शरीर जल रहा है और उसमे हमें अवर्णनीय व्यथा हो रही है | उसे वायु के वेग से उल्लसित तरंगों के कारण उछलते हुए दिव्य नदी श्रीगंगाजीके जल की फुहारों का समूह शान्त करे ||

संताप हारिणि माँ ! चौदहों भुवनों के विस्तार का आधार भूत यह ब्रह्माण्ड जिसकी तरंगों से सब ओर घिरा हुआ तेंदू के पेड़ के समान बीच में लुढ़क रहा है, शंकर जी के विस्तृत जटाजूट वेष्टित तुम्हारे जलका वह समूह हमारे सन्ताप को दूर करे ||

दयार्द्रहृदये जननि ! जिसका उद्धार करने में यहाँ के ( अन्य समस्त ) तीर्थ लज्जा का अनुभव करते है, शिव आदि देवता भी जिसके उद्धार की चर्चा सुनकर ही कान में उँगली डाल लेते है, ऐसे मुझ पापीको शुद्ध करती हुई तुमने सभी देवताओं का पापहारीपन का अभिमान नष्ट कर दिया ||

मै निश्चय ही उन पाप समूहों का निराला निवासस्थान हूँ, जिनका चाण्डालों ने भी अनेक प्रकार की शंकाओं से विचलित होकर परित्याग कर दिया है | अहा ! ऐसे घोर पापी मेरा ( भी ) उद्धार करने के लिये माँ ! आपने कमर कस ली है | ( ऐसी अनुपम दयामयी ) आपकी प्रशंसा करने में मेरे - जैसा नरपशु किस प्रकार समर्थ हो सकता है ||

माँ ! अब तक कोई ऐसा पापी नहीं मिला, जिसका शीघ्र उद्धार होने से संसार के लोगों को बड़ा भारी विस्मय होता - इस प्रकार की कामना बहुत दिनों से तुम्हारे मनमें बनी हुई देख कर उसे सफल करने के लिए आज मै तुम्हारी शरण में आया हूँ | मुझ पर कृपा करें - प्रसन्न हों ||

मैया ! दास वृत्ति से ( जिसे शास्त्रों में निंदा पूर्वक कुत्तों की जीविका कहा जाता है ) प्रेम होना, ( सदा ) झूठ बोलना, कुतर्क करने की बान और सदा दूसरों की शठता का चिन्तन करना - इस तरह के मेरे गुणगणों को सुन - सुन कर तुम्हारे सिवा कौन मेरा एक क्षण भी मुहँ देखेगा ||

माँ ! इन बड़े - बड़े दोनों नेत्रों से सचमुच क्या लाभ है, जिनसे तुम्हारे मनोहर जलमय शरीर का दर्शन नहीं किया और यह मनुष्य के उन कानों को भी धिक्कार है, जिनके भीतर तुम्हारी तरंगों का कल - कल शब्द नहीं पहुँचा ||

माँ ! पुण्यात्मा जन स्वेच्छा से विमानों के द्वारा स्वर्ग को जाते है और पापी परवश हो शीघ्र ही नरकों में जा गिरते है - ये दो विभेद उसी अशुभमय देश में दृष्टि गोचर होते है, जहाँ प्राणियों के समस्त पापों का अनायास दलन करने वाली तुम नहीं हो ||

माता ! जो ब्राहमणों की हत्या करते हैं, सदा गुरुओं की सती - साध्वी पत्नी पर चलाते हैं, मद्यपान करते हैं तथा सुवर्ण की चोरी करते हैं - ऐसे महापातकी व्यक्ति भी बड़े - बड़े दान तथा यज्ञ करने वालों से भी ऊपर ( स्वर्ग लोक में ) विहार करते हैं और वहाँ समस्त देवता उनके चरणों की सेवा करते रहते हैं ( धन्य है तुम्हारी महिमा ! ) ||

माँ ! जो सदा पुष्पों की दुर्लभ सुगन्धका तथा वियोग रूपी शस्त्रसे क्षत - विक्षत अंगों वाले विरही जनों के प्राणों का एक ही क्षण में अपहरण कर लेती है, वह वायु भी तुम्हारी लहराती हुई तरंगों के संपर्क से शीघ्र ही तीनों लोकों को पवित्र कर देती है ( अहो ! धन्य है तुम्हारा प्रभाव ! ) ||

जय श्री राधे