// श्री जानकीवल्लभो विजयते //
श्रीगंगालहरी
हिन्दी टीका भाग - १
संकलन कर्ता:-
पं० लक्ष्मीकान्त शर्मा ( कौशिक )
श्री धाम वृन्दाबन, भारत
माँ ! जो सम्पूर्ण प्रथ्वी का महान् सौभाग्यरूप है, जो अनायास ही सम्पूर्ण विश्व को उत्पन्न करने वाले शिवका भी परम ऐश्वर्य रूप है, जो श्रुतियों का सर्वस्व है तथा देवताओं का मूर्तिमान् पुण्यरूप है, वह अमृत के सौन्दर्य का सार रूप तुम्हारा जल हमारे अमंगलोकों दूर करे ||
गंगे ! एक बार भी दृष्टिगोचर होने पर जो दरिद्रोंका दारिद्रय तथा पापियोंके पाप को अतिशीघ्र नष्ट कर देता है और इस लोक में अज्ञानरूप वृक्ष का सब ओर से शीघ्र नाश करनेके लिये दीक्षा गुरुके सामान है, वह तुम्हारा जल प्रवाह हमें अपार ऐश्वर्य प्रदान करे ||
पापनाशिनी गंगे ! बढती हुई इर्ष्या तथा स्पष्ट कपट से युक्त गणेश जननी पार्वतीके कटाक्षपूर्वक देखते समय उत्पन्न तुम्हारा क्षोभसमूहरूप ये शिव जी के मस्तक पर उछलती हुई उत्ताल तरंगे भक्तों के पापसमूहका विध्वंस करें ||
अम्ब ! जिन्होंने कभी कोई पुण्य नहीं किया है, वे भी यदि तुम्हारा स्मरण करते हैं तो तुम उनके ह्रदय के तमोगुण को वैसे ही नष्ट कर देती हो, जैसे चंद्रमा की किरणें अन्धकारको नष्ट कर देती हैं | माँ ! सम्पूर्ण देवता जिसके पवित्र जलका सेवन करते हैं, वह तुम्हारी यह जलमयी मूर्ति मेरे आधिभौतिक आदि तीनों तापों का तथा मन के संतापका विनाश करें ||
भगीरथनन्दिनि ! मैंने ( एकमात्र ) तुम्हारा ही आश्रय ग्रहण करके ( तुम्हारे ही बलपर ) अत्यंत अभिमान में भरकर सभी देवताओं की उपेक्षा कर दी | माँ ! अब यदि तुम मेरी उपेक्षा करती हो तो बताओ, में किनके आगे जाकर रोऊँ, अब मेरा कौन आधार है ? ||
माता ! जिन्होनें अपने विशाल साम्राज्य को भी तिनके के समान ठुकरा कर लहलहाते हुए ( हरे - भरे ) बेंत आदि वृक्षों से युक्त तुम्हारे तीरका आश्रय लिया है, जो अमृत से भी अधिक स्वादिष्ट तुम्हारे इस जल को भरपेट पीते हैं, उनका वह आनंद मोक्ष सुखका भी परिहास करता है ( अर्थात् वे उस आनन्द को छोड़ कर मोक्ष भी नहीं चाहते ) ||
माँ ! प्रातःकाल स्नान करती हुई राजरमणियोंके वक्षः- स्थल पर लगा हुआ मृगमद ( कस्तूरी ) का लेप ज्यों ही तुम्हारे जल में मिलाता है, उसी क्षण वे मृग ( जिनकी नाभि से वह कस्तूरी निकली थी ) दिव्य शरीर धारण कर लाखों विमानारुढ़ देवताओ से घिरे हुए स्वतंत्रतापूर्वक नन्दनवनमें प्रवेश करते हैं ||
मैया ! जो स्मरण करने मात्र से तत्काल मन में शान्ति प्रदान करता है तथा एक बार भी प्रेम पूर्वक गान करने से प्राणियों के सभी पाप तथा जन्म - मरण के दुःख को दूर कर देता है, वह कानको सुख देनेवाला तुम्हारा यह '' गंगा '' नाम अन्तसमय मेरे मुखकमल में विराजमान हो ||
माँ ! जिस तट पर खेलते हुए कौए भी पूर्ण संतोष का अनुभव करते है और उसके सामने वे इन्द्र पुरी ( अमरावती ) की भी कामना नहीं करते तथा जहाँ निवास करने से प्राणियों का जन्म - मरण रूप महान् शोक ( सदा के लिये ) दूर हो जाता हैं, वह तुम्हारा यह तीर हमारे जन्म - मरण रूप श्रमको ( सदा के लिये ) मिटा दे ||
देवगंगे ! जिस तत्वका भेद को मिटा देनेवाले ( अभेद का प्रतिपादन करने वाले ) वेद भी साक्षात् रूपसे पता नहीं लगा सके ( नेति - नेति कह कर निषेध मुख से ही निरूपण करते हैं ), जहाँ जीवों की वाणी तो क्या, मन भी नहीं पहुँचता, जो अपने प्रकाश से ही संसार के समस्त ( अज्ञान रूप ) अन्धकार को दूर कर देता है, तुम ( वही ) निराकार ( ज्योतिःस्वरूप ) विशुद्ध ( माया से अस्पृष्ट ) शाश्र्वत द्रष्टा रूप ब्रह्मतत्त्व हो, दृश्यरूप कदापि नहीं ||
हे परमोदारचरिते ! जो भगवान् विष्णु का अचिन्त्य परम धाम ( वैकुण्ठ ) बड़े - बड़े दानों, ध्यानों तथा अनेक प्रकार के यज्ञों एवं उग्र निर्मल तपस्याओं द्वारा भी नहीं प्राप्त हो सकता, वही पद तुम सबको समान रूप से ( भेदभाव छोड़कर ) प्रदान करती हो | ( तब ) तुम्ही कहों, विश्व में दूसरा ऐसा कौन है, जिससे तुम्हारी मैं तुलना करूँ ? ||
अम्ब ! दृष्टि मात्र से ही मनुष्यों के जन्म - मृत्यु रूप भय को सर्वथा दूर करने वाली तुम्हारी इस मंगल मयी मूर्ति की कौन बड़ाई कर सकता है, जिसे ईर्ष्या से सदा म्लान ( उदास ) रहने वाली हिमगिरिनन्दिनी पार्वती को भी अत्यधिक मनाना छोड़कर महादेवजी सदा अपने मस्तकपर धारण करते हैं ||
पतितपावनि ! जिन्हें पागल भी धिक्कार देते हैं, पतित पुरुष भी जिनसे दूर रहते हैं, संस्कारच्युत - जातिहीन व्यक्ति भी जिनका नाम तक नहीं लेतें, जिनकी चर्चा सुनकर दुष्ट पुरुषों के रोंगटे खड़े हो जाते और वे भी जिनका परित्याग कर देते हैं, कितने ( अनगिनत ) लोगों के ऐसे - ऐसे ( घृणित ) पापों का निरंतर तुम नाश करती रहती हो, परन्तु कभी श्रान्त नहीं होती | ( इस दृष्टि से ) जगत् में तुम निराली हो ( दूसरा कोई तुम्हारी समता नहीं कर सकता ) ||
भूलोक के शोक को दूर करने के लिये जब तुम स्वर्ग लोक से उतरने लगी, तब त्रिपुरारि शंकर ने ( बीच में ही ) तुम्हे अपनी जटाओं के जूडे में समेट लिया ( बाँध लिया ) | माँ ! तुम्हारे गुणों का ही यह दोष प्रकट हुआ है, जो निर्लोभी महात्माओं के मन में भी लोभ उत्पन्न कर देते हैं ||
जननि ! जो विवेक रहित हैं, जो अन्धे है, जो पंगु हैं, जो जन्म से ही बहरे है, जो गूँगे है, जिनमे किसी भूत - प्रेत का आवेश हो गया है, जिनके पापों से छुटकारे के सभी मार्ग रुक गए है, देवताओंने भी जिनका ( सदाके लिये ) परित्याग कर दिया है और जो नरक में गिरने जा रहे है - ऐसे -ऐसे ( पतित ) प्राणियों की रक्षा करने के लिये तुम इस जगत् में परम औषधरूप हो ||
माँ ! संसार में तुम्हारे स्वभावतः शीतल तथा निर्मल जल की जगत् में यह अपार एवं अनिर्वचनीय महिमा सबसे ऊपर है, जिसका गान स्वर्ग प्राप्त करने के बाद आज भी दिव्य कान्तिधारी सगर के पुत्र बड़ी प्रसन्नतासे करते रहते हैं, और उस समय उनके ( सम्पूर्ण ) शरीर में घना रोमाच्च हो आता है, जिसके कारण वे फूले - फूले लगते हैं ||
गंगा मैया ! छोटे -छोटे पाप समूह आचरण करके तुरन्त ही पश्चाताप से पीड़ित प्राणियों का शीघ्रता से उद्धार करने वाले तो त्रिभुवनमे बहुत तीर्थ है, परन्तु जिनका कोई प्रायश्चित्त भी नहीं हो सकता, ऐसे - ऐसे पाप करने वाले पतितों को अपनाने वाली तो केवल तुम्ही सर्वोपरि समर्थ हो, दूसरा कोई नहीं ||
गंगे ! तुम सभी धर्मों की निधि हो, तीर्थों में प्रधान हो, त्रिलोकी का निर्मल परिधानीय वस्त्र ( साडी ) स्वरूप हो ( साडी की तरह तुमने त्रिलोकीको आवृत कर रखा है ), नये - नये आनन्दों का सृजन करने वाली हो, बुद्धिवादियोंके ह्रदय को भी शान्ति देने वाली तथा अविवेकियोंसे गुप्त रहने वाली हो | माँ ! तुम्हारा यह सुख - सौभग्य को देने वाला ( जलमय ) शरीर सभी तापों को दूर करे ||
मैया ! इस जीवन में तुम्हारी दया के साथ मेरा सम्बन्ध यदि क्षण भर के लिये भी छूटा है तो वह ही अपराध है, क्योकि में जड़मति अपने सैकडों स्वार्थों का नाश करके सदा ही उन महीपोंके आगें, जिनके नेत्र धन के नशे से घूमते रहते है, दौड़ता रहकर नाना प्रकार के नये - नये श्रम एवं दुःख का अनुभव करता रहा हूँ ||
हवाके झकोरों से उत्पन्न तरल- तरंगों के द्वारा कम्पित कमलसमूहों से झड़ते हुए पराग - समूहों के कारण केसर के समान रंग वाला तथा देवांगनाओंके वक्षःस्थल से धुलकर बहते हुए सुगन्धित अगरुके कीचड़ से घनीभूत एवं तीव्र गति से बहने वाला तुम्हारा दिव्य जल मेरे पुनर्जन्मों की परम्परा को भंग करे ||
माँ ! लक्ष्मीकान्त भगवान् त्रिविक्रमके चरण कमलोंके निर्मल नख से तो तुम्हारी उत्पत्ति हुई है, कामदेव के गर्व को चूर - चूर करनेवाले भगवान् शंकर के जटाजूट रूपी भवन में तुम्हारा निवास है और दीन - हीन पतितोंका उद्धार करने में तुम्हारी बढ़ी हुई आसक्ति ( अनुराग ) है, माँ ! फिर सम्पूर्ण जगत् में किससे बढ़ कर तुम्हारी महिमा नहीं होगी ? ||
जय श्री राधे