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Sunday, October 6, 2024

श्री रामचरित्रमानस के त्रिवेणी संगम में स्नान करें

 

कुंद इंदु सम देह,उमा रमन करुना अयन ,
जाहि दीन पर नेह,करउ कृपा मर्दन मयन।
अर्थ:-- जिनका कुंद के पुष्प और चंद्रमा के समान(गौर) शरीर है,जो पार्वती जी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दिनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करने वाले(शंकर जी) मुझ पर कृपा करें।
विवेचना:--- गोस्वामी तुलसीदास जी ने सर्वप्रथम शिव पार्वती जी की श्रद्धा विश्वास के रूप में वंदना की थी, अगले ही श्लोक में उनकी वंदना, वंदे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकर रूपिणं अर्थात गुरु  रूप में की थी और अब यहाँ इस सोरठे में उनकी वंदना देवरूप में कर रहे हैं।
भगवान शिव का स्वरुप कुंद के पुष्प और चंद्रमा के समान उज्ज्वल (श्वेत) है।प्रजापति दक्ष के यज्ञ में आत्मदाह के पश्चात हिमवान के यहाँ जन्म लेने से सती का नाम पार्वती हुआ।
 शिव जो को फिर से पति रूप में पाने के लिए उन्होंने कठोर तप किया था इसलिए वे शिव जी की प्रियतमा हैं। भगवान शंकर सहज दयालु हैं और दीन दुखियों पर स्नेह करने वाले हैं। और कामदेव को भस्म करने वाले भी हैं। ऐसे भगवान शंकर मुझ पर कृपा करें।

आध्यात्मिक रहस्य:-- यहाँ भगवान शिव की वंदना, कामदेव का मर्दन करने वाले कह कर शिव कृपा की प्रार्थना की है।
इसके दो कारण हैं। लगभग सभी धर्म प्रेमी ये जानते हैं कि भगवान शिव की समाधि भंग करने के लिए,देवताओं ने कामदेव को भेजा था, और उसकी माया के प्रचंड प्रभाव से समस्त सृष्टि उस कामवेग के प्रभाव में आगयी थी।
 इसी कारण उनकी समाधि भंग भी हुई थी।  पर भगवान शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोलकर, कामदेव  को भस्म कर दिया था।
साधक के जीवन में भी यह काम का प्रचंड वेग उन्हें साधना मार्ग से विचलित कर देता है, महर्षि विश्वामित्र, देवर्षि नारद जैस
(जप तप कछु न होंहि तेहि काला,हे प्रभु मिलहिं कवन विधि बाला)
महान ऋषि भी इसके प्रभाव से नहीं बच सके थे, और स्वयं गोस्वामी तुलसीदास जी भी अपने गृहस्थ जीवन में, उस कामवेग के प्रभाव में आ ही चुके थे।
कहते हैं कि एक बार तुलसी दास जी की पत्नी मायके गयी हुई थीं। वर्षा की ऋतु थी, घटाटोप बादल छाए हुए थे। गोस्वामी जी को पत्नी की याद सताने लगी थी वे उस घनी अँधेरी रात में, पत्नी से मिलने के लिए, ससुराल के लिए चल दिए। 
रास्ते में एक नदी पड़ती थी, नदी में बाढ़ आई हुई थी, कोई नाव वहाँ नहीं थी, तभी पानी में किनारे कुछ लट्ठे सा बहता हुआ दिखाई दिया वे उसी पर सवार हो किसी तरह नदी पार कर गए। 
ससुराल में पहुंचने पर घनघोर अँधेरी रात में सब गहरी नींद सो रहे थे। इन्हें घर के पिछवाड़े पत्नी के शयन कक्ष की खिड़की से एक रस्सी लटकती दिखाई दी बस उसी को पकड़ पत्नी के कमरे में पहुँच गए।
पत्नी को जगाया तो वो आश्चर्य में पड़ गयी। पूछा अंदर कैसे आये ?
 उत्तर था कि खिड़की के बाहर रस्सी लटकी हुई थी उसी को पकड़ कर आ गया।
नदी कैसे पार की ,नाव तो मिली नहीं होगी?
उत्तर था, एक मोटा लट्ठा तैरता मिला उसी के सहारे नदी पार कर ली।
पत्नी ने जब दीपक जला कर देखा तो खिड़की पर एक विशाल साँप लटका हुआ था, जनाब उसी को पकड़ कर खिड़की में चढ़ आये थे।
नदी किनारे जाकर  देखा तो लट्ठा नहीं वो तो एक पानी में बहती हुई लाश थी
तब उनकी पत्नी रत्नावली ने धिक्कारा था उन्हें, और कहा, मेरी हाड़ मांस की देह के प्रति जो तुम्हारी दीवानगी है अगर उतनी ही प्रभु श्री राम के चरणों में होती, तो तुम धन्य हो जाते। 
और वही से वो श्रीमान राम बोला, गोस्वामी तुलसी दास बनने की यात्रा पर चल दिए थे।
 वही आशंका थी, साधक के जीवन में परमात्म चेतना का शक्तिप्रवाह जब अवतरित होता है तो कभी कभी प्रारब्ध वश प्रचंड कामवेग के प्रभाव में उसकी साधना भंग हो जाती है तुलसी दास जी इसी कारण कामदेव को भस्म करने वाले भगवान शंकर की कृपा की प्रार्थना कर रहे थे।
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दूसरा कारण था कि साधना मार्ग पर चलते हुए , जहां हम दोनों भौहों के बीच तिलक लगाते हैं, वहाँ आज्ञा चक्र होता है, उसी को तीसरा नेत्र कहते हैं, वहाँ उगते हुए सूर्य के मध्य आदिशक्ति गायत्री का ध्यान करते हुए गायत्री मंत्र जप करने से विवेक दृष्टि का जागरण होता है। 
इसी कारण श्री सत्य सनातन धर्म में 7से 11 वर्ष के बालकों को उपनयन संस्कार (जनेऊ) करा कर गुरुकुल में, सद्गुरु के सान्निध्य में गायत्री मंत्र जप, यज्ञ से जोड़ दिया जाता था।
श्री रामचरितमानस की रचना भी सूक्ष्म विवेक दृष्टि का जागरण हुए बिना संभव नहीं था अतः भगवान शिव की कृपा इस रूप में अपेक्षित थी।
जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।
तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस॥
भावार्थ:-जिस भीषण हलाहल विष से सब देवतागण जल रहे थे उसको जिन्होंने स्वयं पान कर लिया, रे मन्द मन! तू उन शंकरजी को क्यों नहीं भजता? उनके समान कृपालु (और) कौन है?