बदला सरयू का निर्मल जल ।
पर शापित साकेत न बदली
कर बैठी रघुवर से छल ।
क्यों यह पुण्य धरा मेरे प्रभु!
हर युग को अभिशप्त बनी ?
जब जब सिंहासन मिलता है
रार कोई अव्यक्त ठनी ।
क्यों यह अवधपुरी की मिट्टी
बोल आसुरी बोल रही ?
और कृतघ्न प्रजा भी क्योंकर
इस सुख में विष घोल रही ?
सदियों के निर्वासन का दुख
अभी ठीक से घटा नहीं है ।
प्राण प्रतिष्ठा के उत्सव का दृश्य
दृगों से छटा नहीं है ।
अभी रूधिर जो बहा राम हित
शेष धरा पर उसकी लाली
हत्यारों को 'मत ' दे देना
दशरथ नंदन को ज्यों गाली
स्वयं राम अब देख रहे हैं
अवधपुरी के बिके नरों को ।
क्षुद्र स्वार्थ में अंधे होकर
जनादेश जो दें असुरों को ।
मर्यादा का मान जिन्होंने आज
ताक पर टाँग दिया है ।
राम द्रोह का दोष स्वयं ही
अपने कुल हित माँग लिया है ।
सदियों सिसकी है जो माटी
अपना राम लला पाने को ।
आज उसी के जन आतुर हैं
रावण दल में मिल जाने को ।
कैसे कहूँ ह्दय की पीड़ा
कैसे घायल कलम चलाऊँ ?
असमंजस में पड़ा हुआ हूँ
राम! तुम्हें क्या मुँह दिखलाऊँ ?
श्रीमान के एन मिश्र जी