जिसको
तुम रोज रौदते हो
तुम्हारे हिस्से
उतना ही है
जिस पर
तुम्हारे कदमों के निशान
बाकी रह गए हैं
तुम्हारा समय भी नहीं है उतना
जिसको
तुम रोज देखते हो
बंद मुट्ठी से फिसलते
तुम्हारा समय उतना ही है
जिससे
तुम्हारी तदबीरों से
हाथ की रेखा बन गई है
तुम्हारा आसमान भी नहीं है उतना
जिसको
तुम रोज देखते हो
परिंदों के साथ उड़ते
तुम्हारा आसमान उतना ही है
जिससे
खिड़कियों से होकर
कमरे में आती है
तुम्हारे सपनों की
दो तितलियां।
-श्री ब्रज माधव जी