रामानन्द सम्प्रदाय के प्रवर्तक समी रामानन्दाचार्य का जन्म सम्वत् 1256 में हुआ था। जन्म माघ मास कृष्ण पक्ष सप्तमी तिथि के सुबह प्रयागराज में हुआ था । उस दिन मकर संक्रान्ति थी। रामानन्द जी के पिता का नाम पुण्यसदन और माता का नाम सुशीला देवी था। उनकी माता नित्य वेणीमाधव भगवान की पूजा किया करती थीं। एक दिन वे मन्दिर में दर्शन करने गईं तो उन्हें दिव्योणी सुनाई दी - हे माता पुत्रवती हो। उनके आँचल में एक माला और दाहिनार्त शंख प्रकट हुआ। वह प्रसाद पाकर बहुत खुश हुईं और पतिदेव को सारी बात बताई। एक दिन माता ने देखा- आकाश से प्रकाश पुंज आ रहा है। वह प्रकाश उनके मुख में समा गया। माता डरकर बेहाश हो गईं। थोड़ी देर बाद उन्हें जब होश आया तो वे उठकर बैठ गई। उस दिन से उनके शरीर में एक शक्ति का संचार होने लगा। शुष्लग्न में प्रात:काल आचार्य प्रकट हुए। उनके प्रकट होने के समय माता को बिल्कुल पीड़ा नहीं हुई। पुण्यसदन जी के घर बालक पैदा होने की खबर पाकर पूरा प्रयाग नगर उमड़ पड़ा। कुलपुरोहित ने उनका नाम रामानन्द रखा। बालक के लिए सोने का पालना लगाया गया। उनके शरीर पर कई दिव्य चिन्ह थे। माथे पर तिलक का निशान था। बालक के खेलने के समय एक तोता रोजाना उसके पास आ जाता और ‘राम-राम‘ का शब्द करता। यह ‘राम-राम‘ का शब्द उनके जीन का आधार बन गया। इस बालक के पास एकोनर और कौआ भी रोजाना आता था। वह कौआ बालक के खिलौने लेकर उड़ जाता और बालक के मचलने परोपस दे जाता। भादों के महीने में ऋषि-पंचमी के दिन अन्न प्रक्षालन का उत्सव मनाया गया। थाल में पकान, खीर और लड्डू रखे गए लेकिन बालक रामानन्द ने केल खीर को उंगली लगाई। माता ने थोड़ी-सी खीर मुख में खिला दी। उसके अलावा बालक को कुछ नहीं खाया। यह खीर ही आजीन उनका आहार था। एक दिन बालक रामानन्द खेलते हुए पूजा के मन्दिर में जा पहुंचे। उन्होंने दाहिना्रत शंख उठा लिया और बजाने लगे। पिता ने शंख को हाथ से छीन लिया और क्रोधित होने लगे। बालक रामानन्द बाहर भाग गया। बाद में उनके पिता को स्वप्न में वेणीमाधव भगवान ने शंख बालक को देने की आज्ञा की। प्रात:काल बालक को शंख बजाने को कहा। उस दिन से बालक रामानन्द दिन में तीन बार उस शंख को बजाते थे। पांच साल की उम्र में पिता ने कुछ ग्रन्थों के श्लोक सिखाए तो बालक ने तुरन्त याद कर लिए। एक साल में ही बालक रामानन्द ने कई ग्रन्थों को कण्ठस्थ कर लिया। प्रयाग कुम्भ में विद्वानों की एक सभा हुई। इसमें बालक रामानन्द को भी बुलाया गया। सभी विद्वानों ने इसमें अपने-अपने मत रखे। बालक रामानंद ने कहा- जसे कमल के दल पर पानी की बूंद लटकती है वैसे ही जी इस पृथ्वी पर हैं। पता नहीं कब उसके जाने का समय आ जाए? इसलिए बाद-विवाद छोड़ कर भगवान की भक्ति करनी चहिए। इस पर सभी विद्वानों और भक्तों ने उनकी प्रशंसा तथा आरती की। आठ साल की अवस्था में बालक का यज्ञोपवीत कराया गया। माघ शुक्ला द्वादशी के दिन विद्वानों ब्राह्मणों नें पलास का डंडा देकर काशी पढ़ने चलने के लिए कहा और कुछ देर बाद लौटने के लिए कहने लगे। लेकिन बालक रामानन्द लौटकर आने के लिए तैयार न हुए। तो उनको उनके पिता पंडित औंकार शर्मा के घर लेकर आए। पंडित औंकार शर्मा रामानन्द जी के मामा लगते थे। शर्मा जी उनकी बुद्धि चातुर्य को देखकर आनन्दित थे। कुमार ने कुछ ही दिनों में चारों वेद उपवेद को कण्ठस्थ कर उनके रहस्यों को समझ लिया। उनकी प्रसिद्धि सुनकर नित्य-प्रति अनेकों लोग बालक को देखने आते। एक दिन सिद्ध देवी आई। उन्होंने कहा- मैं कालीखोह से आई हूं। उन्होंने बालक से संस्कृत में पूछा- हे कुमार, कौनसी स्त्री है जो बड़ी चंचल है और चित्त में छुपी रहती हैं? वह नए-नए पदार्थ दो लाकर व्यक्तियों के सामने रखती है। परन्तु एक बार कोई उसे देख लेता है तो वह सदा के लिए लुप्त हो जाती है। इस पर बालक रामानन्द ने उत्तर दिया- उस स्त्री का नाम माया है। तब वृृद्धा ने कहा- उससे ब्याह कर लो। तब कुमार ने कहा- उसकी इच्छा करते ही मुँह काला हो जाता है। ब्याह के समय मनुष्य लंगड़ा हो जाता है। वह माया अन्धी भी है। मैं तो ब्रह्मचारी हूं। सारे जगत का कल्याण करूंगा। वृद्धा ने आशीर्वा दिया- ऐसा ही होगा और अपने स्थान पर चली गई। वह माता साक्षात् कालिका देवी थीं। यह समद सुनकर उनके पिता को बड़ा दुख हुआ। वह शांडिल्य गोत्र के एक ब्राह्मण की कन्या माधवी से वो विवाह तय कर चुके थे। इस बात को सुनकर वे कुमारिल भट्ट की मीमांसा लेकर आए। इसमे लिखा था- ‘‘एक बार विवाह अवश्य करना चाहिए।‘‘विवाह न करने से अनेकों पाप लगते हैं। इस पर रामानन्द जी ने कहा- यह कर्मकाण्ड की बात है। जिसे ज्ञान और भक्ति की सिद्धि बाल्यकाल में ही हो जाए उसे कोई पाप नहीं लगता। ऐसा कहकर वह चुप हो गए। पिता ने समझा कि वे हंसी में ऐसा कह रहे हैं और विवाह की तैयारी में लग गए। कन्या माधवी ने स्वप्न में देखा- कोई देवता कह रहा है कि तूने रामानन्द से विवाह किया तो विधवा हो जाएगी। यह सुनकर उसके माता-पिता का उत्साह नष्ट हो गया। कन्या ने जीवन भर अविवाहित रहने की ठान ली और कठोर तप करने लगी। अन्न त्याग कर केवल लौंग खाकर रहने लगी। उसे दूसरा स्वप्न हुआ- जिससे तुम्हारा विवाह होने वाला था, जाकर उसी से उपदेश लो तो तुम्हारा शीघ्र कल्याण होगा। दूसरे दिन प्रात:काल ही वह अपने परिवाार के साथ रामानन्द जी के सामने प्रस्तुत हुई और मन्त्र दीक्षा लेने की मांग करने लगी। रामानन्द जी के मना करने पर दूसरे लोग भी उसका समर्थन करने लगे। ज्यादा जिद करने पर रामानन्द जी ने अपने शंख को बजा दिया। शंख ध्वनि सुनते ही उनकी समाधि लग गई। समाधि में उसे दस जन्मों का स्मरण हो आया। उसने कहा- मुझे भगवान से दिव्य ज्ञान मिल गया है मैं अभी भगान के धाम में जा रही हूं। यह कहते ही एक दिव्य विमान वहाँ प्रकट हुआ और वह विमान पर बैठ कर चली गई। इस पर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनके माता-पिता ने भी दीक्षा लेने की बात कही। इस पर रामानन्दाचार्य बहुत लज्जित महसूस करने लगे। वे वहीं बैठे-बैठे अन्तर्ध्यान हो गए। माता-पिता मूर्छित होकर गिर पड़े। उन्हें दिव्य धाम के दर्शन हुए। जहाँ कुमार रामानन्द दिव्य सिंहासन पर बैठे थे। बड़े-बड़े देता और ऋषि उनकी स्तुति कर रहे थे। जन्म में उन्हें भगवान ने जो आशीर्वाद दिया था ह भी उन्हें ज्ञात हो गया। मोह माया का बंधन छूट गया। माता-पिता ने उठ कर देखा, सभी लोग विलाप कर रहे थे। चारो ओर पित्ति देखकर पुण्य सदन जी ने शरीर त्यागने की इच्छा की लेकिन लोगों ने उन्हें धैर्य बंधाया। उसी समय योग बल से महर्षि राघानन्द हाँ प्रकट हुये। शिष्ठ मुनि के अतार राघानन्द जी के प्रकट होते ही समस्त नर नारी उनके चरणों में जा पड़े। उन्होने समाधि लगाकर लोगों की समस्या को समझा। वे पुण्य सदन जी को सम्बोधित कर कहने लगे- आपका पुण्य महान है। आपको प्रभु ने रदान दिया था कि ह बारह साल तक वे आपके घर में बाल लीला का आनन्द देंगे। अब ह समय पूरा हो गया है और प्रभु अपने लोक को चले गये हैं। इस पर लोगो ने महर्षि राघानन्द जी से एक बार दर्शन कराने की बात की तो राघानन्द जी ने बड़े राम यज्ञ की आश्यकता बताई। उस यज्ञ के बाद कुमार रामानन्द प्रकट हुये। महíष राघानन्द जी ने कुमार से कहा- आपने दर्शन देकर हमारे यज्ञ को सफल किया। अब आप इस भूमि पर धर्म में आई गिराट को मिटाने के लिए और यनों के अत्याचार को खत्म करने के लिए यहीं रहो। महर्षि राघवानन्द जी ने उन्हें राम मंत्र की दीक्षा देकर विधिवत वैष्णव संन्यास दिया। रामानन्द जी पंच गंगा घाट पर तपस्या करने लगे। लोगों के ज्यादा आग्रह पर वह शंख बजाकर लोगों की समस्या का समाधान कर देते। एक मुर्दा उनकी शंख ध्वनि सुनकर जीवित् हो गया था। उन्हें जब ज्यादा विक्षोभ होने लगा तो उन्होंने शंख बजाना बंद कर दिया। वे लोगों के आग्रह पर दिन में सिर्फ एक बार शंख बजाने लगे। आधी रात के पश्चात एक दिन जब वे गंगा स्नान के लिए गये तो कलयुग राज उनके सामने प्रकट हुये। उनका पंच पात्र सोने का था। कलयुग राज उसमें जा बैठे। लेकिन आचार्य को इसका पता चल गया। जब आचार्य ने उनसे पूछा कि आप मेरी पूजा में विघ्न क्यों डालते हो तो कलयुग राज प्रत्यक्ष होकर राम मंत्र की दीक्षा मांगने लगे। रामानन्दाचार्य जी ने अपना स्वभाव छोड़ उन्हें मंत्र दीक्षा दी। रामानन्द जी ने अपने जीन काल में अनेकों दुखियों और पीड़ितों को अपने आर्शीाद से ठीक किया जिनमें राजकुमार का क्षय रोग, रैदास को दीक्षा, कबीर को आशीर्वाद, नये योगी श्री हरि नाथ की पीड़ा, ब्राह्मण कन्या बीनी का उद्धार जसी अनेकों चमत्कारिक घटनायें शामिल थीं। गगनौढ़गढ़ के राजा पीपाजी को मंत्र दीक्षा देकर उन्होंने वैष्णब सन्त बना दिया। उन्होंने अपने जीन काल में यवनों से हिन्दुओं की रक्षा की। उनके अत्याचारों को रुकाने के लिए दिल्ली के बादशाह से सन्धि की। आचार्य ने धर्म प्रचार के लिए काशी से चलकर गगनौरगढ़, चित्रकूट, जनकपुर, गंगासागर, जगन्नाथपुरी आदि स्थानों की यात्रा की। आज उन्हीं के तपोबल से रामानन्द सम्प्रदाय का विशाल पंथ चल रहा है।
रामानन्द सम्प्रदाय के स्थापना का कारण
तीर्थयात्रा करने के बाद रामानन्द जब घर आए और गुरुमठ पहुँचे तो उनके गुरुभाइयों ने उनके साथ भोजन करने में आपत्ति की। उनका अनुमान था कि रामानन्द ने तीर्थाटन में अवश्य ही खानपान संबंधी छुआछूत का कोई विचार नहीं किया होगा। राघवानन्द ने अपने शिष्यों का यह आग्रह देखकर एक नया संप्रदाय चलाने की सलाह दे दी। यहीं से रामानन्द संप्रदाय का जन्म हुआ।इन दृष्टियों से रामानंद संप्रदाय एवं रामानुज संप्रदाय में भेद है किंतु दार्शनिक सिद्धांत से दोनों ही संप्रदाय विशिष्टाद्वैत मत के पोषक हैं। दोनों ही ब्रह्म को चिदचिद्विशिष्ट मानते हैं और दोनों ही के मत के पोषक हैं। दोनों ही ब्रह्म को चिदचिद्विशिष्ट मानते हैं और दोनों ही के मत से मोक्ष का उपाय परमोपास्य की 'प्रपत्ति' है। रामानंद संप्रदाय में निम्नलिखित बातें प्रधान हैं -
१. द्विभुज श्रीराम परमोपास्य हैं।
२. 'ओम् रामाय नम:' सांप्रदायिक मंत्र है।
३. इस संप्रदाय का नाम श्री संप्रदाय या 'रामानंद संप्रदाय' या 'वैरागी संप्रदाय' है।
४. इस संप्रदाय में आचार पर अधिक बल नहीं दिया जाता। कर्मकांड का महत्व यहाँ बहुत कम है।
५. इस संप्रदाय में शुक्लश्री, बिंदुश्री, रक्तश्री, लस्करी आदि अनेक प्रकार के तिलक प्रचलित हैं।
रामानंद ने उदार भक्ति का मार्ग प्रदर्शित किया। उनके शिष्यों में जुलाहा, चमार, जाट, राजपूत, आदि और स्त्रियाँ भी थीं। भक्ति का द्वार सभी के लिए मुक्त था। उन्होंने वैरागी संप्रदाय की स्थापना इसी कारण की। उनके उपदेशों के फलस्वरूप दो विचारधारा जो परिवर्तन के विरुद्ध थी। दूसरी नवीन विचारधारा जो परिवर्तन करके हिंदू, मुसलमान सभी को सम्मिलित करने को उद्यत थी। प्रथम विचारधारा के महानतम व्यक्ति संत तुलसीदास थे और दूसरी विचारधारा के प्रमुख व्यक्ति संत कबीरदास थे।
रामानन्द सम्प्रदाय को जो श्री संप्रदाय कहा जाता है उसमें 'श्री' शब्द का अर्थ लक्ष्मी के स्थान पर 'सीता' किया जाता है। इस संप्रदाय का दार्शनिक मत विशिष्टाद्वैत ही माना जाता है, जैसा ऊपर उल्लिखित हो चुका है।
विशिष्टाद्वैत शब्द का अर्थ इस प्रकार किया गया है - विशिष्टं चा विशिष्टं च विशिष्टे, विशिष्टयोरद्वैते विशिष्टाद्वैतम् अर्थात् सूक्ष्म चिदचित् विशिष्ट अथवा कारण ब्रह्म और स्थूल चिदचिद् विशिष्ट अथवा कार्य ब्रह्म में अभिन्नता स्थापित करना ही विशिष्टाद्वैत का उद्देश्य है। रामानंद संप्रदाय में राम को ही ब्रह्म कहा गया है और 'सीताराम' आराध्य माने गए हैं।
स्वामी जी का ब्रह्म राम विश्व की उत्पत्ति, रक्षा और इसका लय करता है। उसके प्रकाश से सूर्य और चंद्रमा संसार को प्रकाशित करते हैं। जो वायु को चलायमान करता है, जो पृथ्वी को स्थिर रखता है, वह ज्ञानस्वरूप, साक्षी, अनेक शुभ गुणों से युक्त, अविनाशी एवं विश्वभर्ता ईश्वर ही ब्रह्म है। यह ब्रह्म नित्य है; ब्रह्मादि का विधायक, वेदों का उपदेष्टा, स्वयं सर्वज्ञ है। सदयोगियों की रखा करता है, चेतन को भी चेतनता प्रदान करता है, स्वतंत्र है। इस ब्रह्म पद से श्री रामचंद्र का ही बोध होता है। रामानंद उसी राम के सस्मित मुखकमल का स्मरण करते हैं जो जानकी के कटाक्षों से अवलोकित, भक्तों के मनोवांछित धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को देने के लिए कल्पतरु के समान है।
सीतापति भगवान् राम समस्त गुणों के एकमात्र आकर, सत्यस्वरूप, आनंदस्वरूप तथा चित्स्वरूप हैं। स्वयं विष्णु ही राम के रूप में अवतीर्ण हुए थे। वे लोकोत्तर वलशाली, अद्भुत दिव्य धनुष और बाणों से पूजित तथा आजानुबाहु हैं। परम पुरुषोत्तम राम सीता और लक्ष्मण के साथ नित्य ही सुशोभित रहते हैं। भक्त का विश्वास है कि नरशार्दूल भगवान् राम के प्रात: निद्रात्याग करन मात्र से सारा संसार जाग उठेगा। भगवान् ही जीवों के स्वामी हैं। एकमात्र वही शेषी हैं। जीव उनका शेष है। भगवान् राम ही जीवों के परम प्राप्य हैं। वही एकमात्र उपाय भी हैं। भगवान् राम के पार्षदों में लक्ष्मण परम प्राप्य हैं। वही एकमात्र उपाय भी हैं। भगवान् राम के पार्षदों में लक्ष्मण परम प्रिय हैं। अनुमान भी उनके दूसरे पार्षद हैं। स्वामी जी ने भगवान् राम के अर्चावतार अथवा प्रतिमावतार के चारों स्वयं व्यक्त, दैव, सैद्ध और मानुष की पूजा षोडशोपचार से करने के लिए आदेश दिया है। रामानंद जी के मत से सीता के द्वारा ही राम की प्राप्ति होती है। महारानी सीता पुरुषकारभूता हैं और वही उपाय भी है ।
रामानंद ने जीव की साधारण ढंग से इस प्रकार व्याख्या की है - जो सदैव एक स्वरूप में स्थित है, जो ईश्वर की अपेक्षा अज्ञ, चेतन, सर्वदा पराधीन (भगवदधीन), सूक्ष्म से सूक्ष्म, बद्धादि भेदों से भिन्न भिन्न शरीरों में भिन्न भिन्न प्रकार का होकर भिन्न है। भगवान् से परिव्याप्त शरीर में जो रहता है, स्वकर्मानुसार फल भोगनेवाला, भगवन् ही जिसके सर्वदा सहायक हैं, अपने को कर्ता, भोक्ता समझने का जिसे अभिमान है, तत्व के जिज्ञासुओं द्वारा जानने योग्य है, श्रेष्ठ विद्वान् उसी को जीव कहते हैं। यह जीव ज्ञानस्वरूप, आनंदस्वरूप तथा ज्ञान और सुख आदि गुणोंवाला, अणु परिमाणवाला, देहेंद्रियादि से भी अपूर्व, परमात्मा का प्रिय, नित्य एवं स्वप्रकाश है। भगवान् शेषी और जीव उनका शेष है। भगवान् ही जीवों के स्वामी हैं। जीव परतंत्र है। अत: भगवान् की निर्हेतुक कृपा के बिना जीव को मोक्ष नहीं मिल सकता।
रामानंद ने भगवान् और जीव में पिता-पुत्र-संबंध, रक्ष्य-रक्षक-संबंध, सेव्य-सेवक-संबंध, आत्मा-आत्मीयत्व-संबंध तथा भोग्य-भोक्तृत्व आदि नव प्रकार के संबंधों को स्वीकार किया है। जीवों के दो भेद हैं - बद्ध और मुक्त।
अनादि कर्मों की राशि से अनेक प्रकार के शरीर का अभिमानी जीवबद्ध कहा गया है। बद्ध जीव दो प्रकार के हैं - १. मुमुक्षु, २. बुभुक्षु। भगवान् की निर्हेतुक कृपा से अविद्यादि दुष्ट कर्मों की वासना की रुचि की प्रवृत्ति के संबंध से छूटने का प्रयत्न करनेवाले जीवों को मुमुक्षु कहते हैं। इसके विरुद्ध सांसारिक भोग की कामनावाले जीव बुभुक्षु कहलाते हैं।
मुमुक्षु जीव भी दो प्रकार के हैं - १. शुद्ध भक्त, २. चेतनांतर साधन। ज्ञानादि साधनहीन, स्मृति भक्ति में निष्ठित वेदोक्त वर्णाश्रम कर्म करनेवाले और उपासना निरत भक्त शुद्ध भक्त कहलाते हैं। स्वानुष्ठित कर्म विज्ञानादि समूह को ही प्रधान साधन मानकर किसी उत्तम संबंध विशेष को प्राप्त करके सदा मोक्ष में निश्चय वाले जीव चेतनांतर साधन कहलाते हैं।
मोक्षपरायण जीव भी दो प्रकार के हैं - १. प्रपन्न, २. पुरुषकारनिष्ठ। अन्य सभी को छोड़कर परम कृपालु, समर्थ, अविनाशी श्रीराम को ही प्राप्य और उनको ही उपाय समझकर जो जीव संस्थित हैं, उन्हें प्रपन्न कहते हैं। श्रीराम की स्वतंत्रता का विचार करके कुछ संकुचित होकर, परम कृपालु आचार्य को ही उपाय मानकर स्थित रहनेवाले जीव पुरुषकारनिष्ठ कहलाते हैं।
प्रपन्न जीव भी दो प्रकार के होते हैं - १. दृप्त, २. आर्त। शरीरस्थिति पर्यत स्वकर्मानुसार प्राप्त दु:खादि का भोग करते हुए शरीर के अंत में मोक्ष सिद्धि का निश्चय करके महाबोध एवं अत्यंत विश्वासयुक्त रहनेवाले जीवदृप्त कहलाते हैं। संसृति को उसी क्षण न सहन करतेश् हुए जो भगवात् प्राप्ति में अत्यंत शीघ्रता चाहते हैं वे आर्त जीव है।
पुरुषकारनिष्ठ जीव भी दो प्रकार के हैं - १. आचार्य-कृपा-मात्र प्रपन्न, २. महापुरुष-सेवातिरेक-प्रपन्न। अंत में रामानंद ने बद्ध जीवों के संबंध में कहा है कि शुद्ध भक्त वही है जो भगवान् के यश के श्रवण, कीर्तनादि में ही निष्ठा रखते हैं।
मुक्त जीव दो प्रकार के हैं १. नित्य, २. कादाचित्क। नित्य जीव गर्भ जन्मादि दु:खों के अनुभव करनेवाले कहलाते हैं, जैसे - हनुमान। नित्य जीव भी दो प्रकार के हैं - १. परिजन, २. परिच्छद। हनुमान परिजन और किरीट आदि परिच्छेद की परिभाषा में आते हैं। इसी प्रकार कादाचित्क जीव के भी दो भेद किए गए हैं - १. भागवत, २. केवल। जो जीव भगवत्परायण हैं उन्हें भागवत कहते हैं। भागवत जीव के भी दो भेद हैं - १. भगवत्परायण होकर नित्य उनका ही ध्यान करनेवाले जीव। २. भगवद्-गुणानुसंधान-परायण के साथ कैकयेपरायण होनेवाले जीव। इसी प्रकार केवल जीव के भी दो भेद बतलाए गए हैं - १. दु:खभावनैकपरायण, २. अनुभूति परायण।
रामानंद के मत के अनुसार प्रकृति के संबंध में उनकी वही धारणा है जो सांख्य में वर्णित है। तत्वविद्, विकाररहित, संपूर्ण विश्व का कारण, एक होकर भी अनेक प्रकार से शोभित, शुक्लादि भेद से अनेक वर्णोवाली, सत्व, रज, तम आदि गुणों को प्रश्रय देनेवाली, अव्यक्त प्रधान आदि शब्दों से अभिहित, स्वतंत्र व्यापारहीन, ईश्वराधीन रहनेवाली और महत्तत्व एवं अहंकार आदि को उत्पन्न करनेवाली सत्ता को ही प्रकृति कहते हैं। रामानंद जी ने इन विशेषणों का विवेचन नहीं किया है, केवल संकेत मात्र किया है।
रामानंद के मत से भगवान् की कृपा से सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर साकेत लोक को प्राप्त करके परब्रह्म से सायुज्य की प्राप्ति करना ही मोक्ष कहलाता है। रामानंद संप्रदाय में भक्त, श्री राम की कृपा से सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है और उनके साथ नित्य क्रीड़ा करता है।
साकेत - रामानंद के मत से जीव सुषुम्ना, अर्चिमार्ग, अर्हमार्ग, उत्तरायण, संवत्सर, सूर्य, चंद्र, और विद्युत् आदि मार्गों से होता हुआ दिव्य लोक साकेत में पहुँचकर विश्राम करता है। यही भगवान् राम का लोक है, जहाँ करोड़ों सूर्य के प्रकाश से युक्त हेम का सिंहासन है, जहाँ स भक्त फिर इस संसार में नहीं लौटता। इस साकेत लोक के चारों ओर विरजा नदी बहती रहती है जिसका जल अत्यंत निर्मल है।
तीर्थयात्रा करने के बाद रामानन्द जब घर आए और गुरुमठ पहुँचे तो उनके गुरुभाइयों ने उनके साथ भोजन करने में आपत्ति की। उनका अनुमान था कि रामानन्द ने तीर्थाटन में अवश्य ही खानपान संबंधी छुआछूत का कोई विचार नहीं किया होगा। राघवानन्द ने अपने शिष्यों का यह आग्रह देखकर एक नया संप्रदाय चलाने की सलाह दे दी। यहीं से रामानन्द संप्रदाय का जन्म हुआ।इन दृष्टियों से रामानंद संप्रदाय एवं रामानुज संप्रदाय में भेद है किंतु दार्शनिक सिद्धांत से दोनों ही संप्रदाय विशिष्टाद्वैत मत के पोषक हैं। दोनों ही ब्रह्म को चिदचिद्विशिष्ट मानते हैं और दोनों ही के मत के पोषक हैं। दोनों ही ब्रह्म को चिदचिद्विशिष्ट मानते हैं और दोनों ही के मत से मोक्ष का उपाय परमोपास्य की 'प्रपत्ति' है। रामानंद संप्रदाय में निम्नलिखित बातें प्रधान हैं -
१. द्विभुज श्रीराम परमोपास्य हैं।
२. 'ओम् रामाय नम:' सांप्रदायिक मंत्र है।
३. इस संप्रदाय का नाम श्री संप्रदाय या 'रामानंद संप्रदाय' या 'वैरागी संप्रदाय' है।
४. इस संप्रदाय में आचार पर अधिक बल नहीं दिया जाता। कर्मकांड का महत्व यहाँ बहुत कम है।
५. इस संप्रदाय में शुक्लश्री, बिंदुश्री, रक्तश्री, लस्करी आदि अनेक प्रकार के तिलक प्रचलित हैं।
रामानंद ने उदार भक्ति का मार्ग प्रदर्शित किया। उनके शिष्यों में जुलाहा, चमार, जाट, राजपूत, आदि और स्त्रियाँ भी थीं। भक्ति का द्वार सभी के लिए मुक्त था। उन्होंने वैरागी संप्रदाय की स्थापना इसी कारण की। उनके उपदेशों के फलस्वरूप दो विचारधारा जो परिवर्तन के विरुद्ध थी। दूसरी नवीन विचारधारा जो परिवर्तन करके हिंदू, मुसलमान सभी को सम्मिलित करने को उद्यत थी। प्रथम विचारधारा के महानतम व्यक्ति संत तुलसीदास थे और दूसरी विचारधारा के प्रमुख व्यक्ति संत कबीरदास थे।
रामानन्द सम्प्रदाय को जो श्री संप्रदाय कहा जाता है उसमें 'श्री' शब्द का अर्थ लक्ष्मी के स्थान पर 'सीता' किया जाता है। इस संप्रदाय का दार्शनिक मत विशिष्टाद्वैत ही माना जाता है, जैसा ऊपर उल्लिखित हो चुका है।
विशिष्टाद्वैत शब्द का अर्थ इस प्रकार किया गया है - विशिष्टं चा विशिष्टं च विशिष्टे, विशिष्टयोरद्वैते विशिष्टाद्वैतम् अर्थात् सूक्ष्म चिदचित् विशिष्ट अथवा कारण ब्रह्म और स्थूल चिदचिद् विशिष्ट अथवा कार्य ब्रह्म में अभिन्नता स्थापित करना ही विशिष्टाद्वैत का उद्देश्य है। रामानंद संप्रदाय में राम को ही ब्रह्म कहा गया है और 'सीताराम' आराध्य माने गए हैं।
स्वामी जी का ब्रह्म राम विश्व की उत्पत्ति, रक्षा और इसका लय करता है। उसके प्रकाश से सूर्य और चंद्रमा संसार को प्रकाशित करते हैं। जो वायु को चलायमान करता है, जो पृथ्वी को स्थिर रखता है, वह ज्ञानस्वरूप, साक्षी, अनेक शुभ गुणों से युक्त, अविनाशी एवं विश्वभर्ता ईश्वर ही ब्रह्म है। यह ब्रह्म नित्य है; ब्रह्मादि का विधायक, वेदों का उपदेष्टा, स्वयं सर्वज्ञ है। सदयोगियों की रखा करता है, चेतन को भी चेतनता प्रदान करता है, स्वतंत्र है। इस ब्रह्म पद से श्री रामचंद्र का ही बोध होता है। रामानंद उसी राम के सस्मित मुखकमल का स्मरण करते हैं जो जानकी के कटाक्षों से अवलोकित, भक्तों के मनोवांछित धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को देने के लिए कल्पतरु के समान है।
सीतापति भगवान् राम समस्त गुणों के एकमात्र आकर, सत्यस्वरूप, आनंदस्वरूप तथा चित्स्वरूप हैं। स्वयं विष्णु ही राम के रूप में अवतीर्ण हुए थे। वे लोकोत्तर वलशाली, अद्भुत दिव्य धनुष और बाणों से पूजित तथा आजानुबाहु हैं। परम पुरुषोत्तम राम सीता और लक्ष्मण के साथ नित्य ही सुशोभित रहते हैं। भक्त का विश्वास है कि नरशार्दूल भगवान् राम के प्रात: निद्रात्याग करन मात्र से सारा संसार जाग उठेगा। भगवान् ही जीवों के स्वामी हैं। एकमात्र वही शेषी हैं। जीव उनका शेष है। भगवान् राम ही जीवों के परम प्राप्य हैं। वही एकमात्र उपाय भी हैं। भगवान् राम के पार्षदों में लक्ष्मण परम प्राप्य हैं। वही एकमात्र उपाय भी हैं। भगवान् राम के पार्षदों में लक्ष्मण परम प्रिय हैं। अनुमान भी उनके दूसरे पार्षद हैं। स्वामी जी ने भगवान् राम के अर्चावतार अथवा प्रतिमावतार के चारों स्वयं व्यक्त, दैव, सैद्ध और मानुष की पूजा षोडशोपचार से करने के लिए आदेश दिया है। रामानंद जी के मत से सीता के द्वारा ही राम की प्राप्ति होती है। महारानी सीता पुरुषकारभूता हैं और वही उपाय भी है ।
रामानंद ने जीव की साधारण ढंग से इस प्रकार व्याख्या की है - जो सदैव एक स्वरूप में स्थित है, जो ईश्वर की अपेक्षा अज्ञ, चेतन, सर्वदा पराधीन (भगवदधीन), सूक्ष्म से सूक्ष्म, बद्धादि भेदों से भिन्न भिन्न शरीरों में भिन्न भिन्न प्रकार का होकर भिन्न है। भगवान् से परिव्याप्त शरीर में जो रहता है, स्वकर्मानुसार फल भोगनेवाला, भगवन् ही जिसके सर्वदा सहायक हैं, अपने को कर्ता, भोक्ता समझने का जिसे अभिमान है, तत्व के जिज्ञासुओं द्वारा जानने योग्य है, श्रेष्ठ विद्वान् उसी को जीव कहते हैं। यह जीव ज्ञानस्वरूप, आनंदस्वरूप तथा ज्ञान और सुख आदि गुणोंवाला, अणु परिमाणवाला, देहेंद्रियादि से भी अपूर्व, परमात्मा का प्रिय, नित्य एवं स्वप्रकाश है। भगवान् शेषी और जीव उनका शेष है। भगवान् ही जीवों के स्वामी हैं। जीव परतंत्र है। अत: भगवान् की निर्हेतुक कृपा के बिना जीव को मोक्ष नहीं मिल सकता।
रामानंद ने भगवान् और जीव में पिता-पुत्र-संबंध, रक्ष्य-रक्षक-संबंध, सेव्य-सेवक-संबंध, आत्मा-आत्मीयत्व-संबंध तथा भोग्य-भोक्तृत्व आदि नव प्रकार के संबंधों को स्वीकार किया है। जीवों के दो भेद हैं - बद्ध और मुक्त।
अनादि कर्मों की राशि से अनेक प्रकार के शरीर का अभिमानी जीवबद्ध कहा गया है। बद्ध जीव दो प्रकार के हैं - १. मुमुक्षु, २. बुभुक्षु। भगवान् की निर्हेतुक कृपा से अविद्यादि दुष्ट कर्मों की वासना की रुचि की प्रवृत्ति के संबंध से छूटने का प्रयत्न करनेवाले जीवों को मुमुक्षु कहते हैं। इसके विरुद्ध सांसारिक भोग की कामनावाले जीव बुभुक्षु कहलाते हैं।
मुमुक्षु जीव भी दो प्रकार के हैं - १. शुद्ध भक्त, २. चेतनांतर साधन। ज्ञानादि साधनहीन, स्मृति भक्ति में निष्ठित वेदोक्त वर्णाश्रम कर्म करनेवाले और उपासना निरत भक्त शुद्ध भक्त कहलाते हैं। स्वानुष्ठित कर्म विज्ञानादि समूह को ही प्रधान साधन मानकर किसी उत्तम संबंध विशेष को प्राप्त करके सदा मोक्ष में निश्चय वाले जीव चेतनांतर साधन कहलाते हैं।
मोक्षपरायण जीव भी दो प्रकार के हैं - १. प्रपन्न, २. पुरुषकारनिष्ठ। अन्य सभी को छोड़कर परम कृपालु, समर्थ, अविनाशी श्रीराम को ही प्राप्य और उनको ही उपाय समझकर जो जीव संस्थित हैं, उन्हें प्रपन्न कहते हैं। श्रीराम की स्वतंत्रता का विचार करके कुछ संकुचित होकर, परम कृपालु आचार्य को ही उपाय मानकर स्थित रहनेवाले जीव पुरुषकारनिष्ठ कहलाते हैं।
प्रपन्न जीव भी दो प्रकार के होते हैं - १. दृप्त, २. आर्त। शरीरस्थिति पर्यत स्वकर्मानुसार प्राप्त दु:खादि का भोग करते हुए शरीर के अंत में मोक्ष सिद्धि का निश्चय करके महाबोध एवं अत्यंत विश्वासयुक्त रहनेवाले जीवदृप्त कहलाते हैं। संसृति को उसी क्षण न सहन करतेश् हुए जो भगवात् प्राप्ति में अत्यंत शीघ्रता चाहते हैं वे आर्त जीव है।
पुरुषकारनिष्ठ जीव भी दो प्रकार के हैं - १. आचार्य-कृपा-मात्र प्रपन्न, २. महापुरुष-सेवातिरेक-प्रपन्न। अंत में रामानंद ने बद्ध जीवों के संबंध में कहा है कि शुद्ध भक्त वही है जो भगवान् के यश के श्रवण, कीर्तनादि में ही निष्ठा रखते हैं।
मुक्त जीव दो प्रकार के हैं १. नित्य, २. कादाचित्क। नित्य जीव गर्भ जन्मादि दु:खों के अनुभव करनेवाले कहलाते हैं, जैसे - हनुमान। नित्य जीव भी दो प्रकार के हैं - १. परिजन, २. परिच्छद। हनुमान परिजन और किरीट आदि परिच्छेद की परिभाषा में आते हैं। इसी प्रकार कादाचित्क जीव के भी दो भेद किए गए हैं - १. भागवत, २. केवल। जो जीव भगवत्परायण हैं उन्हें भागवत कहते हैं। भागवत जीव के भी दो भेद हैं - १. भगवत्परायण होकर नित्य उनका ही ध्यान करनेवाले जीव। २. भगवद्-गुणानुसंधान-परायण के साथ कैकयेपरायण होनेवाले जीव। इसी प्रकार केवल जीव के भी दो भेद बतलाए गए हैं - १. दु:खभावनैकपरायण, २. अनुभूति परायण।
रामानंद के मत के अनुसार प्रकृति के संबंध में उनकी वही धारणा है जो सांख्य में वर्णित है। तत्वविद्, विकाररहित, संपूर्ण विश्व का कारण, एक होकर भी अनेक प्रकार से शोभित, शुक्लादि भेद से अनेक वर्णोवाली, सत्व, रज, तम आदि गुणों को प्रश्रय देनेवाली, अव्यक्त प्रधान आदि शब्दों से अभिहित, स्वतंत्र व्यापारहीन, ईश्वराधीन रहनेवाली और महत्तत्व एवं अहंकार आदि को उत्पन्न करनेवाली सत्ता को ही प्रकृति कहते हैं। रामानंद जी ने इन विशेषणों का विवेचन नहीं किया है, केवल संकेत मात्र किया है।
रामानंद के मत से भगवान् की कृपा से सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर साकेत लोक को प्राप्त करके परब्रह्म से सायुज्य की प्राप्ति करना ही मोक्ष कहलाता है। रामानंद संप्रदाय में भक्त, श्री राम की कृपा से सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है और उनके साथ नित्य क्रीड़ा करता है।
साकेत - रामानंद के मत से जीव सुषुम्ना, अर्चिमार्ग, अर्हमार्ग, उत्तरायण, संवत्सर, सूर्य, चंद्र, और विद्युत् आदि मार्गों से होता हुआ दिव्य लोक साकेत में पहुँचकर विश्राम करता है। यही भगवान् राम का लोक है, जहाँ करोड़ों सूर्य के प्रकाश से युक्त हेम का सिंहासन है, जहाँ स भक्त फिर इस संसार में नहीं लौटता। इस साकेत लोक के चारों ओर विरजा नदी बहती रहती है जिसका जल अत्यंत निर्मल है।