// श्री जानकीवल्लभो विजयते //
होलिकोत्सव पर्व में ठहाके
आचार्य लालभूषन मिश्र जी
( संस्कृत शिक्षक )
गया ( बिहार ) भारत
होलिकोत्सव पर्व में ठहाके लगाकर हँसना, ऊँची आवाज में बोलना या गायन करना पौराणिक है भविष्यपुराण के अनुसार गुरु वशिष्ठ जी के आग्रह पर राजा रघु जी ने फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को शँका रहित होकर बोलने तथा खिल - खिला कर हँसते हुए सारे नगर में घूमने का आदेश अपने प्रजाओं को दिया था | प्रजाओं ने लकड़ियों एवं कंडों के ढेर में निम्न मन्त्र से होलिका पूजन किया :-
असृक्पा भय संत्र स्तै:, कृता त्वं होलिवालिशै: |
अतस्त्वां पूजयिष्यामि, भूतं भूतिप्रदा भव ||
होलिका पूजन करके प्रजाओं ने अग्नि प्रज्वलित किया और नये अन्न ( चना, गेहूँ इत्यादि ) को अग्नि में तपाया | तपे हुए नये अन्न को ग्रहण करने से बच्चों को आरोग्य लाभ हुआ | ऊँची आवाज में गायन करते हुए पूरे नगर में भ्रमण किया | इससे बच्चों को रोगी ( बीमार, अस्वस्थ ) बनाने बाली खून को पीने वाली "ढूंढा राक्षसी" प्रभाव हीन हो गयी |
भविष्य पुराण में कहा गया है :-
तत: किल किला शब्दै: ताल शब्दै: मनोहरै: |
अट्टाट्ट हासै: डिंभानां राक्षसी क्षय मेष्यति ||
इस पौराणिक परम्परा के अनुसार हम होलिका दहन करते आ रहे हैं |
दूसरी पौराणिक मान्यता है कि होलिकोत्सव पर्व हिरण्यकशिपु की बहन अर्थात प्रहलाद की फ़ूआ ( बूआ ) होलिका की स्मृति में मनाया जाता है | होलिका अपने वरदान के प्रभाव से आग में नहीं जलती थी | भगवान श्रीविष्णु जी के विरोधी हिरण्यकशिपु की आज्ञा से फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को श्रीविष्णु भक्त प्रहलाद को गोद में लेकर होलिका लकड़ियों और कंडों के ढेर पर बैठ गयी | और उसमें अग्नि प्रज्वलित कर दी गयी | आग लगाये जाने पर श्रीविष्णु जी के प्रभाव से होलिका जल गयी और प्रहलाद जीवित रह गया |
इस घटना के बाद प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को होली दहन होने लगा | होली दहन करने के बाद दूसरे दिन उसके भस्मी को निम्न मन्त्र से ग्रहण किया जाता है | यह भस्म लगाने से आरोग्य एवं पुष्टि प्राप्त होती है |
वन्दिताऽसि सुरेन्द्रेण ब्रह्मणा शंकरेण च |
अत: त्वं पाहि नो देवी विभूतिर्भूतिदा भव ||
इसके स्थान पर कीचड़ या नाली की गन्दगी को लगाना हमारी बुराई या कुरीति है | रंग और गुलाल लगाकर होली खेलना एकता तथा सर्वमिलन समारोह हमारी अच्छाई है |
जय श्री राधे