// श्री जानकीवल्लभो विजयते //
तेरी मेरी जनम - जनम
श्री विश्वनाथ मिश्र जी "पंचानन "
पटना (बिहार) भारत
तेरी मेरी जनम - जनम की प्रीति |
यह लोक, वह लोक बंधा है,
सुन्दर, नील - वितान तना है |
रवि, शशि, तारे गण से मंडित
चहुँ दिशी विस्तृत - विश्व, घाना है |
घिरी है, एक ईट की भीति |
कोमल - किसलय, कलित - कुसुम में,
मधु, पराग, भँवरा, मधुवन में |
जीव, जीव, निर्जीव - पीव में |
क्षिति - जल, पावक - गगन, पवन में
प्रकम्पित रहती एक ही गीति |
सब का सबसे साथ जुडा है,
एक प्राण, एक तेज भरा है |
साँस - साँस हर तार मिला है,
जब - जब यह आधार हिला है |
टूटी, बिखरी, सृष्टि की रीति |
माया - अंश - जीव बिखरना
लोक - रीति क्षण भर अपनाना |
फिर इक से इक क्या छिनगाना,
प्राण - प्राण को क्या विलगाना |
यह तो कलुष - ह्रदय की नीति |
प्रतिफल, तुम हो मेरे मन में
रूप तुम्हारा जगजीवन में |
देख रहा हूँ नयन - नयन में,
प्रिय मेरे हर अवलोकन में |
घूम रही क्षण - क्षण जो बीती |
जय श्री राधे