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Monday, July 14, 2025

दुर्वासा ऋषि द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की माया का दर्शन

भगवान की लीला बड़ी विचित्र है। वे कब कौन-सा काम किस हेतु करेंगे, इसे कोई नहीं जानता । भगवान की प्रत्येक लीला ऐसे ही रहस्यों से भरी होती है । उनकी लीला और महिमा का कोई पार नहीं पा सकता । उनका मूल उद्देश्य अपने भक्तों को आनन्द देना और भवबन्धन से मुक्त करना है।कृष्णावतार के समय एक दिन दुर्वासा ऋषि परमात्मा श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए व्रजमण्डल में पधारे । उन्होंने यमुनाजी के तट पर बालु में बालकृष्ण को गोप-बालकों के साथ लोटते और मल्ल-युद्ध (कुश्ती) करते हुए देखा । बालकृष्ण के सभी अंग धूल-धूसरित थे । दिगम्बर वेष में सखाओं के साथ दौड़ते हुए श्रीहरि को देखकर दुर्वासा के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ ।वे सोचने लगे—क्या यह वही षडैश्वर्य-सम्पन्न ईश्वर है, जो धरती पर सखाओं के साथ लोट रहा है या यह केवल नंदबाबा का पुत्र है, परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण नहीं है ?
दुर्वासा ऋषि जब श्रीकृष्ण की माया से मोहित थे, उसी समय खेलते हुए बालकृष्ण स्वयं उनकी गोद में आ गए और हंसने लगे । हंसते हुए श्रीकृष्ण की श्वांस से खींच कर दुर्वासा उनके मुंह में समा गए । वहां उन्होंने एक विशाल लोक को देखा।
दुर्वासा अभी सोच ही रहे थे कि ‘मैं कहां आ गया ?तभी एक अजगर ने उन्हें निगल लिया । उसके पेट में ऋषि ने सातों लोकों और पातालों सहित समस्त ब्रह्माण्ड का दर्शन किया । इसके द्वीपों में घूमते हुए दुर्वासा एक पर्वत पर ठहर गए और सहस्त्रों वर्षों तक तप करते रहे ।इसके बाद भयंकर नैमित्तिक प्रलय का समय आ गया और समुद्र धरती को डुबोते हुए ऋषि के पास गया और दुर्वासा उसमें बहने लगे । एकार्णव जल में डूब कर उनकी स्मृति नष्ट हो गई और वे पानी के अंदर ही विचरने लगे । वहां उन्हें दूसरे ही ब्रह्माण्ड का दर्शन हुआ । इस ब्रह्माण्ड के छिद्र से होकर वे एक दिव्य सृष्टि में प्रवेश कर गए ।
वहां महान जलराशि बह रही थी; जिसमें कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड बह रहे थे । दुर्वासा ऋषि ने उस जल को ध्यान से देखा तो उन्हें वहां विरजा नदी बहती दिखाई दी, जिसे पार कर दुर्वासा ऋषि ने गोलोक में प्रवेश किया । गोलोक में दुर्वासाजी ने वृन्दावन, गोवर्धन और यमुना पुलिन के दर्शन किए । जब उन्होंने निकुंज में प्रवेश किया तब उन्हें करोड़ों सूर्यों के समान ज्योतिर्मण्डल के अंदर दिव्य सहस्त्र कमल दल पर विराजमान साक्षात् पुरुषोत्तम श्रीराधाबल्लभ भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हुए; जो असंख्य गोप-गोपियों व गौओं से घिरे हुए थे ।
दुर्वासा ऋषि को देख कर भगवान श्रीकृष्ण हंसने लगे । हंसते समय उनके श्वांस से खिंच कर दुर्वासा ऋषि उनके से मुंह बाहर निकल गए । श्रीकृष्ण के मुख में बाहर निकलने पर दुर्वासा ऋषि ने उन्हीं बालरूप धारी नंदनन्दन को देखा जो यमुना तट पर बालु में बालकों के साथ खेल रहा था । महावन में श्रीकृष्ण के धूल-धूसरित रूप का दर्शन कर दुर्वासा ऋषि यह समझ गए कि ये श्रीकृष्ण ही साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं । दुर्वासा ऋषि ने हाथ जोड़ कर धूल-धूसरित बालकृष्ण की जो स्तुति की, वह ‘नंदनन्दन स्तोत्र’ के नाम से जानी जाती है। पूर्ण पुरुषोत्तम परमात्मा श्रीकृष्ण का साक्षात् दर्शन कर दुर्वासा ऋषि उन्हीं का ध्यान व जप करते हुए बदरिकाश्रम चले गए ।
पाठकों की जानकारी के लिए उस स्तुति का एक अंश दिया जा रहा है

बालं नवीन शतपत्र विशाल नेत्रं,बिम्बाधरं सजल मेघरुचिं मनोज्ञम्। 
मन्दस्मितं मधुर सुन्दर मन्दयानं,श्रीनंदनन्दन महं मनसा नमामि ।। १ ।।

अर्थात्—श्रीनंदनन्दन के नेत्र नवीन कमल के समान विशाल हैं, पके हुए बिम्बाफल के समान लाल-लाल ओंठ हैं, जल से भरे काले मेघ के समान शरीर की कान्ति है, मन्द-मन्द मुस्कराते हुए वे बहुत सुन्दर जान पड़ते हैं । उनकी धीमी-धीमी चाल भी बहुत आकर्षक और सुन्दर है; उन बाल गोपाल को मैं मन से प्रणाम करता हूँ।
दुर्वासा ऋषि द्वारा कहा गया नंदनन्दन स्तोत्र मनुष्य की समस्त विपत्तियों का नाश करने वाला व उनका साक्षात् दर्शन कराने वाला है।
भगवान श्रीकृष्ण की बाललीलाएं जीवन में आनंद प्राप्त करने तथा ध्यान के लिए है, वह अनुकरण करने के लिए नहीं है । उनकी बाल्यावस्था का जीवन तो भक्तों के ध्यान का विषय है।
कृष्ण ने ही चुना था कुरूक्षेत्र को महाभारत के युद्ध के लिए
कुरुक्षेत्र को महाभारत के युद्ध के लिए भगवान श्री कृष्ण ने ही चुना था, लेकिन उन्होंने कुरुक्षेत्र को ही महाभारत युद्ध के लिए क्यों चुना इसकी दास्तां भी अजब है ।
शास्त्रों के मुताबिक महाभारत का युद्ध जब तय हो गया तो उसके लिये जमीन तलाश की जाने लगी। श्रीकृष्ण जी बढ़ी हुई असुरता से ग्रसित व्यक्तियों को उस युद्ध के द्वारा नष्ट कराना चाहते थे।
क्रूरता और द्वेष से संस्कारित भूमि चाहते थे श्री कृष्ण भगवान कृष्ण को डर था कि भाई-भाइयों के, गुरु शिष्यों के व संबंधी कुटुंबियों के इस युद्ध में एक दूसरे को मरते देखकर कहीं ये संधि न कर बैठें। इसलिए ऐसी भूमि युद्ध के लिए चुनने का फैसला लिया गया जहां क्रोध और द्वेष के संस्कार पर्याप्त मात्रा में हों। श्री कृष्ण ने कई दूत अनेकों दिशाओं में भेजे और उन्हें वहाँ की घटनाओं का जायजा लेने को कहा।
कुरूक्षेत्र ऐसी जगह मिली जहां छोटी बात पर भाई ने भाई को छुरा घोंपा
एक दूत ने सुनाया कि कुरूक्षेत्र में बड़े भाई ने छोटे भाई को खेत की मेंड़ टूटने पर बहते हुए वर्षा के पानी को रोकने के लिए कहा। उसने साफ इन्कार कर दिया। इस पर बड़ा भाई आग बबूला हो गया। उसने छोटे भाई को छुरे से गोद डाला और उसकी लाश को पैर पकड़कर घसीटता हुआ उस मेंड़ के पास ले गया और जहां से पानी निकल रहा था वहाँ उस लाश को पानी रोकने के लिए लगा दिया।
भूमि को उपयुक्त पाकर कुरूक्षेत्र में हुआ था युद्ध का ऐलान
इस सच्ची कहानी को सुनकर श्रीकृष्ण ने तय किया कि यही भूमि भाई-भाई के युद्ध के लिए उपयुक्त है।
श्रीकृष्ण आश्वस्त हो गए कि इस भूमि के संस्कार यहां पर भाइयों के युद्ध में एक दूसरे के प्रति प्रेम उत्पन्न नहीं होने देंगे। उन्होंने महाभारत का युद्ध कुरूक्षेत्र में करवाने का ऐलान किया था।
महाभारत की यह कथा साबित करती है कि शुभ और अशुभ विचारों एवं कर्मों के संस्कार भूमि में देर तक समाये रहते हैं। इसीलिए ऐसी भूमि में ही निवास करना चाहिए जहां शुभ विचारों और शुभ कार्यों का समावेश रहा हो।