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Tuesday, May 13, 2025

मन्दिर चाहिए तो पंडित भी चाहिए

हमारे इलाके एक मंदिर है , जहाँ के पंडित लगभग २० साल से पंडिताई कर कर रहे हैं ।एक बार मंदिर जाने पर मेरे पास आये और बोले ,मेरे बेटे की फीस में ३००० रूपये की कमी पड़ रही है , कुछ लोगों से कहा है पर ईश्वर की इच्छा उनके पास भी इस समय नहीं हैं , अगर आप मदद कर सके तो मैं बाद में वापस कर दूँगा बच्चे का साल बर्बाद हो जाएगा , २० साल से मंदिर की सेवा में हूँ , यहीं मैं आपको जुबान दे रहा हूँ ।मैं आप के पैसे अवश्य लौटा दूंगा।मैंने घर आ कर पैसे निकाल कर उनको दे दिए क्योंकि मुझे उनकी बात में सच्चाई दिखी।मेरे साथ उस समय मेरी पड़ोसन भी गयी थीं , उन्होंने मुझसे कहा ,कौन लौटाता है , आप उन पैसों को भूल जाइए, मुझे भी उस समय यही लगा कि हो सकता है ऐसा हो , फिर भी मुझे ये तसल्ली थी कि वो पैसे बच्चे की शिक्षा में लगे हैं। इसलिए शाम को मैंने पति को पूरी घटना बताते हुए कहा , मैंने एक बच्चे की शिक्षा के लिए वो पैसे दिए हैं , अगर वो नहीं लौटाते हैं तो ठीक है वो उनके बच्चे की शिक्षा में लग गए , अगर लौटा देते हैं तो मैं किसी दूसरे बच्चे की शिक्षा में वो पैसे लगा दूँगी।
इसके बाद कई महीने बीत गए मैंने उनसे कभी पैसों के बारे में बात नहीं की , वो स्वयं ही कहते रहे कि मैं लौटा दूँगा , लौटा दूँगा और मैं कोई बात नहीं कह कर आगे बढ़ जाती। करीब एक साल बाद वो मेरे पास आये और पैसे लौटते हुए बोले , आज ईश्वर की कृपा से मैं मुक्त हुआ , बहुत विपरीत परिस्थितियाँ आयीं, समय पर नहीं लौटा सका , पर अपना संकल्प सदा याद रहा , कागज़ में लिख कर रख लिया था।वो पैसे दे कर चले गए | मैंने वो पैसे किसी और बच्चे की शिक्षा में लगाने के लिए रख लिए।लेकिन मैं सोचती रही कि दिल्ली के एक पोर्श इलाके का मंदिर , जहाँ अक्सर आयोजन होते रहते हैं वहाँ का पंडित मात्र ३००० रुपये जमा कर लौटाने के लिए इतना संघर्ष करता रहा।वो पंडित जिसकी ड्यूटी सुबह ६ बजे से रात ९ बजे तक चलती है , जो नयी कारों के आगे मन्त्र पढ़ कर नारियल फोड़ने के बाद भी स्वयं सायकील से चलता है।कहाँ है उसके पास पैसा ? 
इसी में मुझे एक घटना याद आ गयी। आज से करीब २५ साल पहले की बात है हमारे गाँव के पंडित जो अक्सर हमारे घर आया करते थे और माँ उनको आटा , घी , शक्कर आदि बाँध कर दे देती थी।एक बार वो पिताजी से बात कर रहे थे , हमने तो कर ली पंडिताई अब बेटा नहीं करेगा | उनकी मासिक तनख्वाह मात्र दो अंको में थी , जो उस समय गाँव में कुये से पानी भरने वालों से भी कम थी।उनका जीवन इसी भिक्षा और शादी ब्याह में चढ़ाए गए पैसों से चलता था ।अक्सर पंडितों को भोजन भट्ट , खाऊ , पैसा ऐठने वाले से संबोधित किया जाता है | क्या दुबले -पतले सूखे बीमार पंडित बहुतायत से नहीं हैं।
कुछ प्रसिद्द बड़े मंदिरों , मठों की बात छोड़ दें तो जरा आप भी ध्यान दीजिये हमारे घरों में पूजा पाठ करने वाले , शादी–ब्याह कराने वाले , मुंडन–जनेऊ करने वाले कितने पंडित ऐसे हैं जिनकी अट्टालिकाएं खड़ी हैं , कार से चलते हैं या बैंक लबालब भरे हैं।या तो हम कह दे कि हमें मंदिर ही नहीं चाहिए, लेकिन अगर हमें मंदिर चाहिए , मदिर में पूजा –पाठ , घंटा ध्वनि , मंत्रोच्चार के लिए एक पंडित चाहिए ,तो पंडित को ११ रुपये देते समय हमें क्यों अहसान करने जैसा महसूस होता है , इससे ज्यादा तो हम होटल में टिप देते हुए खुद को शिष्ट महसूस करते हैं | क्या पंडित के परिवार नहीं है | 
एक बार फिर से या तो हम कह दें कि हमें मंदिर ही नहीं चाहिए | लेकिन अगर हमें मंदिर चाहिए और मंदिर में आरती करने के लिए एक पंडित भी चाहिए तो उसकी इतनी तनख्वाह तो हो कि वो अपना जीवन यापन कर सके।