कितना कुछ सिमट जाता था एक नीले से कागज में
जिसे नवयौवना भाग कर सीने से लगाती और अकेले में आंखो से आंसू बहाती।
माँ की आस थी पिता का संबल थी बच्चों का भविष्य थी और गाँव का गौरव थी ये चिठ्ठियां
डाकिया चिठ्ठी लायेगा कोई बाँच कर सुनायेगा। देख-देख चिठ्ठी को कई-कई बार छू कर चिठ्ठी को अनपढ भी “एहसासों” को पढ़ लेते थे। अब तो स्क्रीन पर अंगूठा दौडता हैं और अक्सर ही दिल तोड़ता है मोबाइल का स्पेस भर जाए तो सब कुछ दो मिनट में “डिलीट” होता है।
सब कुछ सिमट गया है 6 इंच में जैसे मकान सिमट गए फ्लैटों में जज्बात सिमट गए मैसेजों में चूल्हे सिमट गए गैसों में और इंसान सिमट गए पैसों में ।
राधे राधे 🙏 जय सियाराम