बहुत समय पहले कि बात है बिहारी जी का एक परम प्रिय भक्त था।वह नित्य प्रति बिहारी जी का भजन-कीर्तन करता था।उसके ह्रदय का ऐसा भाव था कि बिहारी जी नित्य उसके भजन-कीर्तन को सुनने आते थे
एक दिन स्वप्न में बिहारी जी ने उससे शिकायत करते हुए कहा, तुम नित्य प्रति भजन-कीर्तन करते हो और मैं नित्य उसे सुनने आता भी हूं लेकिन आसन ना होने के कारण मुझे कीर्तन में खड़े रहना पड़ता है, जिस कारण मेरे पांव दुख जाते है,अब तू ही मुझे मेरे योग्य कोई आसन दे जिस पर बैठ मैं तेरा भजन-कीर्तन सुन सकू।तब भक्त ने कहा, प्रभु ! स्वर्ण सिंहासन पर मैं आपको बैठा सकूं इतना मुझमें सार्मथ्य नहीं और भूमि पर आपको बैठने के लिए कह नहीं सकता।
यदि कोई ऐसा आसन है जो आपके योग्य है तो वो है मेरे ह्रदय का आसन आप वहीं बैठा किजिये प्रभु।
बिहारी जी ने हंसते हुए कहा, वाह ! मान गया तेरी बुद्धिमत्ता को
मैं तुझे ये वचन देता हूं जो भी प्रेम भाव से मेरा भजन-कीर्तन करेगा मैं उसके ह्रदय में विराजित हो जाऊंगा।
ये सत्य भी है और बिहारी जी का कथन भी।वह ना बैकुंठ में रहते है ना योगियों के योग में और ना ध्यानियों के ध्यान में, वह तो प्रेम भाव से भजन-कीर्तन करने वाले के ह्रदय में रहते है।
रामचरितमानस में श्री गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी यही कहा है
वचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहि नि:काम।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा विश्राम॥
हे भक्त जो कर्म वचन और मन से जिसे मेरी ही गति है मेरा ही सहारा है मेरा ही भरोसा है और जो निष्काम भाव से मेरा भजन करते हैं उनके हृदय कमल में मैं सदा विश्राम किया करता हूं