कितना लिखूं...
रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित
चाहे जितना लिखूं..
नदियों-सा बहता लिखूं,
या सागर-सा गहरा लिखूं।
झरनों-सा झरता लिखूं ,
या प्रकृति का चेहरा लिखूं।।
रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित..
प्रेम का सागर लिखूं
या चेतना का चिंतन लिखूं
प्रीति की गागर लिखूं
या आत्मा का मंथन लिखूं
रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित..
आत्मतत्व चिंतन लिखूं,
या प्राणेश्वर परमात्मा लिखूं।
स्थिर चित्त योगी लिखूं,
या यताति सर्वात्मा लिखूं।।
रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित..
जेल में जन्मा लिखूं ,
या गोकुल का पलना लिखूं।
देवकी की गोदी लिखूं ,
या यशोदा का ललना लिखूं ।।
रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित..
देवकी का नंदन लिखूं
या यशोदा का लाल लिखूं
वासुदेव का तनय लिखूं
या नंद का गोपाल लिखूं
रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित..
गोपियों का प्रिय लिखूं,
या राधा का प्रियतम लिखूं।
रुक्मणि का श्री लिखूं
या सत्यभामा का श्रीतम लिखूं।।
रहोगे तुम फिर भी अपरिभाषित..
चाहे जितना लिखूं..