|| श्री दुर्गायै नमः ||
सुरेशचन्द्र कुशवाह
शक्ति ही जीवन है, शक्ति ही धर्म है, शक्ति ही गति है, शक्ति ही आश्रय है एवं शक्ति ही सर्वस्व है, यह समझकर परमात्मरूपा महाशक्ति का आश्रय ग्रहण करो, परन्तु किसी भी दूसरे की शक्ति का अपमान कभी मत करो, गरीब एवं दुखी प्राणियों की अपनी शक्ति भर तन - मन - धन से सेवाकर महाशक्ति की प्रसन्नता प्राप्त करो | पापाचार, अनाचार, व्यभिचार आदि को सर्वथा त्यागकर माँ दुर्गा देवी की विशुद्ध निष्काम भक्ति करो | वस्तुत: स्वार्थ और जबरदस्ती को बलि चढ़ाओ और शत्रु रूपी सिंह का कान पकड़कर उसे शिक्षा दो | माँ भगवती देवी के उपासक, संसार के शान्ति तथा मर्यादा नाशक जीवों की बलि चढ़ाकर, भगवती को प्रसन्न कर जगत के सुख के कारण बनते हैं | शक्ति से सुख है और उसी में सब कुछ है और इसी में सबका कल्याण है | माँ दुर्गा सुरेश्वरी देवी सबका कल्याण करें |
शक्ति की उपासना प्राचीन है | वर्त्तमान समय में, मध्यकालीन एवं अति प्राचीनकाल की उपासना से काफी भिन्नता आ गई है | काली, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, योगमाया, सुरेश्वरी देवी एवं अन्य किसी भी देवी की उपासना, शक्ति की उपासना कही जाती है | उद्देश्य भेद के अनुसार पूजा विधि में भी भेद है | सृष्टि की उत्पत्ति में और पुरुष दोनों ही हेतु हैं - जैसा कि भगवान श्रीकृष्ण जी ने स्वयं ब्रह्मवैवर्त पुराण प्रकृति. २ / ६६ / ७ - १० में कहा है तथा दुर्गा सप्तशती में भी वर्णन है कि भगवती शक्ति ही जगत का पालन करती है |
देवी भागवत के तृतीय स्कन्ध के २९ वें अध्याय में नारद जी के उपदेश से श्रीरामचन्द्र जी ने भगवती शक्ति की उपासना से रावण द्वारा अपहरण की गई सीतामाता को प्राप्त किया था | महाभारत में दुर्गा देवी को परमपूज्या माना गया है | स्वयं श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को दुर्गास्तोत्र पाठ करने के लिए कहा है - भीम पर्व अध्याय ३३ में दुर्गा स्तोत्र का उल्लेख है | इसी तरह स्कन्दपुराण एवं हरिवंश पुराण में भी दुर्गा शक्ति का वर्णन है | इसी क्रम में गुरु श्री गोविन्दसिंह जी ने प्रथम भगवती शक्ति की उपासना करके यवन - सम्राट का मुकाबला किया था | महाराणा प्रताप और शिवाजी शक्ति के परमोपासक थे | जो कुछ भी स्थावर - जंगम वस्तु उत्पन्न होती है वह सभी क्षेत्र और क्षेत्रग्य के संयोग से ही उत्पन्न होती है | जैसे बालक की उत्पत्ति में माता और पिता दोनों हेतु हैं वैसे ही जगत की उत्पत्ति में पुरुष और प्रकृति दोनों ही हेतु हैं, जो कि दोनों ही अनादी है | यह उपासना की चाह पर निर्भर है कि माता प्रधान रखकर उपासना करें या पिता की | यह भक्त की अन्त: प्रवृत्ति पर निर्भर है फल में कोई भेद नहीं है | भाव यदि सर्वोच्च हो तो फल भी सर्वोच्च होगा | जीव मात्र को माता सबसे अधिक प्रिय और श्रद्धेय होती है | माता जैसा कोमल, दयालू हृदय किसी का भी इस संसार में दृष्टिगोचर नहीं होता है | सन्तान कैसी भी दुष्ट, मातृसेवा से विमुख क्यों न हो फिर भी माँ अपनी सन्तान की सदैव हितैषिणी ही रहती है | " माँ " शब्द में प्रेमामृत भरा हुआ है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता है | पुत्र जब अपनी माँ को " माँ " " माँ " कहकर पुकारता है, तब माता का हृदय प्रेम से भर आता है | ऐसे ही भक्तजन " माँ " " माँ " कहकर अपने उपास्यदेव को पुकारते हैं तब उनके हृदय में एक दिव्य आनन्द की धारा बहने लगती है और माँ भगवती प्रेमातुर होकर भक्त की पुकार सुन शीघ्र ही पुत्र की भाँति अपने भक्तों के कष्टों का निवारण करती है | गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है -- " अन्नाद भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न संभव: | " अर्थात समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है | इसी प्रकार आध्यात्म रामायण, पाराशर स्मृति, ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं मत्स्य पुराण इत्यादि सभी में स्पष्ट उल्लेख है कि सभी प्राणियों की उत्पत्ति प्रकृति से तथा जीवन- यापन हेतु भरण - पोषण प्रकृति से और अन्त मे प्रकृति ही काल का ग्रास बनती है | अत: प्रकृति के बिना इस पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं है | नवरात्रों में परम श्रद्धेय, दयालू हृदयवाली, अत्यन्त प्रिय महाशक्ति श्रीदुर्गादेवी माँ भगवती के रूप में हम साक्षात प्रकृति की उपासना करते हैं | अत: हम निरन्तर तेजी के साथ हो रहे पेड़ - पौधों के कटान, पहाड़ियों के खनन एवं निर्माण कार्यों से घटती कृषि योग्य भूमि तथा प्राचीन वन सम्पदा को नष्ट होने से बचायें और प्रकृति का दोहन कम से कम होने दें, यही श्रीदुर्गादेवी माँ भगवती, जो प्रकृति रूपा हैं की सच्ची उपासना होगी |
|| बोलो माँ शेरावाली की जय ||
|| बोलो श्री दुर्गामाई की जय ||