|| श्री जानकीवल्लभो विजयते ||
डॉ राजदेव शर्मा श्राद्धकर्म भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख अंग है | लौकिक, पारलौकिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि समृद्धि के उपयुक्त देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकारादी की स्वस्थ - सुन्दर चेष्टाओं एवं हलचलों की संज्ञा " संस्कृति " है | किसी भी राष्ट्र की संस्कृति की पहचान मनोरम क्रियाओं एवं आचरणों से होती है | भारतीय संस्कृति आचारमूलक है | हमारी संस्कृति का निर्माण जिन तत्वों से हुआ है | वे हैं - साचार, सद्विचार, वर्णाश्रमधर्म का पालन, वतारवाद, योग या भक्तिमूलक उपासना पद्धति, शास्त्रों में आस्था, पुनर्जन्म में विश्वास, देव - लोक और पितृ - लोक की स्वीकृति तथा मोक्ष की प्राप्ति श्राद्ध कर्म का सम्बन्ध भी इन्हीं सांस्कृतिक मूल्यों या आचरणों से है |
" श्राद्ध " शब्द का ग्रहण दो अर्थों में किया जाता है | इसका सामान्य अर्थ है | श्रद्धापूर्वक कर्म - सम्पादन: श्रद्धया कृतं सम्पादितमिदिम | जिन कर्मों के द्वारा मनुष्य तुच्छ " स्व " से ऊपर " पर " की चेतना से जुड़ जाता है, अहं की विगलित कर इदं में प्रवेश करता है तथा व्यष्टि को समष्टि में तिरोहित कर देता है, उन्हें हम श्राद्ध कहते हैं | वस्तुत: यह मनुष्य की उदार एवं विराट भावनाओं अथवा आचरणों का प्रतीक है | यह चारित्रिक उत्कर्ष है ; करुणा, मैत्री, दान - दक्षिणा एवं मांगल्य का संचार है | अपने प्रिय पूर्वजों एवं पूज्यजनों का सम्मान मनुष्य को कृतज्ञ बनाता है, जिससे वह सब में गुण दर्शन करता है | वह सभी भूतों को आत्मवत देखता है | अत: श्राद्ध समदर्शिता का प्रतीक है | यह वह कला है जिसके माध्यम से मनुष्य पितर - पूजा के व्यास से भागवतरूप चराचर जगत को तृप्त करता है | पितृ सेवा परमात्मा के विश्वरूप की पूजा है | इस लिए ऋषियों की मान्यता है कि जो श्रद्धा सहित श्राद्ध - कर्म करता है, वह मानो ब्रह्मादि देवता के साथ - साथ पितृगण, मनुष्य, पशु, पक्षी, भूतगण आदि समस्त जगत को प्रसन्न कर देता है |
श्राद्धं श्रद्धान्वित: कूर्वन्प्रीणयत्यखिलेजगत | ( विष्णु पुराण ३ /१४ /२ )
" श्राद्ध " शब्द श्रद्धा से बना है | श्राद्ध और श्रद्धा में घनिष्ठ सम्बन्ध है | स्कन्दपुराण कि स्थापना है कि " श्रद्धा " नाम इसलिए पड़ा है | कि उस कृत्य में श्रद्धा विद्यमान है | तात्पर्य यह है कि श्राद्धकर्म में न केवल विश्वास है, प्रत्युत एक अटल - अविचल धारण है कि व्यक्ति को यह करना ही है | इसलिए श्राद्धकर्म मन अथवा चित्त की स्थिरता का द्योतक है | योगदर्शन में श्रद्धा को मन का प्रसाद या स्थैर्य ( अक्षोभ ) कहा गया है - श्रद्धा चेतस: सम्प्रसाद: | श्रद्धा से रहित श्राद्ध अर्थ हीन, व्यर्थ एवं दम्भ का रूप है | भगवान श्री कृष्ण जी का तो कथन है कि श्रद्धा रहित और संशय युक्त पुरुष नाश को प्राप्त होता है, संशय युक्त पुरुष के लिए न सुख है , न इहलोक है और न परलोक ही है -
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति | नायंलोको स्ति न परो न सुखं संशयात्मन: || ( गीता ४/४० )
महाभारत शान्तिपर्व में कहा गया है कि श्रद्धा हीन कर्म व्यर्थ हो जाता है | श्रद्धालु मनुष्य साक्षात धर्म का स्वरूप है | श्रद्धा से सबकी रक्षा होती है और पापों से मुक्ति मिलती है | आत्मवादी विद्वान श्रद्धा से ही धर्म का चिंतन करते हैं और स्वर्ग को प्राप्त करते हैं | तात्पर्य ! श्रद्धा की श्रद्धा से समन्वित श्राद्ध ही फलदायक या मोक्षदायक हो सकता है |
उपर्युक्त सामान्य अर्थ के अतिरिक्त श्राद्ध का एक विशेष अर्थ भी है | अपने मृत पितरों के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले कर्म - विशेष को श्राद्ध कहते हैं | देश, काल और पात्र में श्रद्धा के साथ जो भोजन पितरों के उद्देश्य से ब्राह्मणों को दिया जाय उसे श्राद्ध कहते हैं |
देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत | पितृनुद्दिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहतम ||
( श्राद्ध प्रकाश पृ. ३ )
उपर्युक्त परिभाषाओं में तीन बातों का निर्देश मिलता है - ( १ ) त्याग की भावना, ( २ ) श्रद्धा का सहयोग और ( ३ ) पितृलोक की मान्यता | स्मरणीय है कि ये तीनों बिन्दु भारतीय संस्कृति के अंग है | त्याग, तापस, श्रद्धा- विश्वास, सदाचरण के साथ - साथ अन्य लोकों की मान्यता भारतीय संस्कृति के मुख्य पहलू हैं | सदगुणों एवं मानवीय मूल्यों की बातें तो अन्य देशों में भी की जाती रही है, किन्तु परलोकवाद भारतीय मनीषा की विशेष देन है | श्राद्ध का परलोकवाद से घनिष्ठ सम्बन्ध है | पितृलोक की कल्पना से ही श्राद्धकर्म का महत्त्व है | अत: पहले लोकों की स्थिति एवं संख्या आदि पर विचार आवश्यक है |
परलोक की कल्पना प्राय: सभी धर्मों में पायी जाती है, किन्तु भारतीय मनीषियों ने इस विषय में जितनी गूढ़ एवं सूक्ष्म कल्पना की है उतनी अन्य राष्ट्रों में नहीं है |
प्रधान सम्पादक -
आचार्य महेश भारद्वाज
वृन्दावन - इन्साफ साप्ताहिक