महामंत्र > हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे|हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे||

Monday, June 23, 2025

विराट महोत्सव

श्री हरिदास ठाकुर जी अब बहुत वृद्ध हो गए हैं, तो भी नित्य तीन लाख नाम जाप करते है। एक दिन गोविंद हरिदास जी को श्रीजगन्नाथ जी का महाप्रसाद देने गए तो देखा कि वे लेटे-लेटे धीरे-धीरे हरिनाम कर रहे है। गोविन्द ने कहा- “हरिदास! उठो, प्रसाद लो।
हरिदास जी उठे, उठकर बोले- "मेरी नाम संख्या अभी तक पूरी नहीं हुई है।” इतना कहकर उन्होंने प्रसाद की उपेक्षा न हो, इसलिए एक चावल प्रसाद का दाना मुख में डाला और लेट गये।हरिदास जी की ऐसी अवस्था सुन दूसरे दिन श्री चैतन्य महाप्रभु जी ने आकर पूछा- “हरिदास, स्वस्थ हैं ना।
हरिदास जी बोले – प्रभु, शरीर तो स्वस्थ है, पर मन स्वस्थ नहीं, क्योकि वृद्धावस्था के कारण नाम जप संख्या पूरी नहीं कर पाता हूँ। यह सुनकर महाप्रभु का हृदय द्रवित हो गया, पर मन का भाव छिपाते हुए उन्होंने कहा- "हरिदास तुम तो सिद्ध हो, लोक कल्याण के लिए तुम्हारा अवतार हुआ है। अब वृद्ध हो गए हो तो जप की संख्या कुछ कम कर दो।
अपनी प्रशंसा सुनकर हरिदास जी प्रभु के चरणों में गिर पड़े और बोले- "प्रभु मै अति नीच हूँ, आपकी प्रशंसा पाने के योग्य नहीं हूँ।
चैतन्य महाप्रभु हरिदास जी की दीन वाणी सुनकर हरिदास के विषादपूर्ण मुख की ओर छलछलाते नेत्रो से देर तक देखते रहे। 
हरिदास जी ने चैतन्य महाप्रभु जी से कहा- "प्रभु मेरा एक निवेदन है, यदि आप मुझसे प्रसन्न है तो आप मुझसे पहले नही, मैं आपसे पहले देह त्याग कर जाना चाहता हूँ, प्रभु मैं आपका विरह सहन नहीं कर पाऊ्।
यह सुनकर चैतन्य महाप्रभु का हृदय दुखी हो गया अश्रुपूर्ण नेत्रों से रुधे कंठ से बोले - “हरिदास, तुम चले जाओगे तो मै कैसे रहूंगा? क्यों अपने संग सुख से मुझे वंचित करना चाहते हो, तुम्हारे जैसे भक्त को छोड़ मेरा कौन है?"
हरिदास जी ने कहा - “प्रभु, कोटि-कोटि महापुरुष तुम्हारी लीला के सहायक है। मेरे जैसे शुद्र जीव के मर जाने से तुम्हारी क्या हानि होगी?" इतना कह रोते-रोते हरिदास जी ने महाप्रभु के श्री चरण पकड़ लिए। श्रीचरणों में सिर देकर कम्पित स्वर से हरिदास जी बोले- "मैं जाना चाहता हूँ। आपके चरण कमल अपने वक्ष स्थल पर धारणकर और आपका श्रीमुख देखते-देखते, मधुर नाम लेते लेते, बोलो प्रभु, यह वर दे रहे हो न?”
महाप्रभु ने एक गहरी साँस ली और धीरे से बोले- “हरिदास, तुम जो भी इच्छा करोगे, श्रीकृष्ण उसे पूर्ण किये बिना न रह सकेंगे, पर मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूँगा।" इतना कह चैतन्य महाप्रभु जी चुप हो 
थोड़ी देर में उच्च स्वर से ‘हरिदास, हरिदास, कह उनसे लिपट कर रोने लगे, चैतन्य महाप्रभु जी के नयन जल से हरिदास जी का वक्ष स्थल भीग गया ओर स्पर्श से सर्वांग पुलकित हो उठा।हरिदास जी आश्वस्त होकर महाप्रभु से बोले- "कल प्रात: जगन्नाथ जी के दर्शन कर इस अधम को दर्शन देने की कृपा करे।" 
महाप्रभु समझ गए कि हरिदास चाहते हैं कल ही उनकी इच्छा पूर्ण हो। दूसरे दिन प्रात:काल चैतन्य महाप्रभु श्रीजगन्नाथ जी के दर्शन कर स्वरुप दामोदर, राय रामानंद ,सार्वभोम भट्टाचार्य, वक्रेश्वर पंडित आदि प्रमुख भक्तों को साथ ले हरिदास जी की कुटिया में आये। भक्तों ने सोचा आज महाप्रभु हरिदास जी के पास जा रहे हें, अवश्य कोई विशेष लीला होनी है।
कुटिया में पहुँचते ही महाप्रभु ने कहा-"हरिदास, क्या समाचार है?
हरिदास जी ने उत्तर दिया- “दास प्रस्तुत है।” कहते-कहते हरिदास जी ने महाप्रभु और भक्तों को प्रणाम किया। हरिदास जी दुर्बलता के कारण खड़े नहीं रह सकते थे, चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें बैठाकर भक्तों सहित उनके चारों और नृत्य और हरिनाम संकीर्तन किया। नृत्य कर रहे है स्वरुप, व्रकेश्वर और स्वयं महाप्रभु, रामानंद और सार्वभोम गान करने लगे। हरिदास जी उनकी चरणधूलि लेकर अपने सर्वांग में मल रहे है। हरिदास जी वहाँ धीरे-धीरे लेट गए और धीरे-धीरे महाप्रभु के चरणकमल अपने हृदय पर धारण किये। महाप्रभु के चरणकमल हाथ से पकड़े हुए हरिदास जी ने अपने दोनों नेत्र प्रभु के मुख चन्द्र पर अर्पित किये और नेत्रों से प्रेमाश्रु विसर्जन करते-करते *‘
भक्तगण हरिदास जी का इस प्रकार निर्याण देखकर अवाक रह गए। पहले किसी को विश्वास ही नहीं हुआ कि हरिदास जी ने स्वेच्छा से शरीर त्याग किया है। मृत्यु पर भक्त की विजय और उसकी महिमा में वृद्धि देख महाप्रभु के हृदय में आनंद नहीं समां रहा और साथ ही जिस भक्त पर वे इतना गर्व करते थे, जिसके दर्शन कर वे तृप्ती अनुभव करते थे उनके संग से सहसा वंचित हो जाने के कारण अत्यंत दुखी भी थे। आनंद एंवम विषाद के बीच महाप्रभु ने हरिदास जी के मृत शरीर को गोद में लेकर नृत्य आरम्भ किया उनकी आँखों से प्रेमाश्रु बह रहे थे। भक्त ही उनके सब कुछ है, प्रत्येक भक्त के लिए उनका प्रेम अनंत है।
नृत्य समाप्त कर महाप्रभु ने हरिदास जी का गुणगान कर अपने हृदय की व्यथा को शांत किया। थोड़ी देर बाद हरिदास जी के शरीर को समुद्र की ओर ले चले। चैतन्य महाप्रभु आगे नृत्य करते जा रहे है, पीछे-पीछे भक्तवृन्द जा रहे है। प्रभु ने समुद्र तट पर जाकर हरिदास की देह को स्नान कराया ओर महाप्रभु बोले- “आज से यह समुद्र महातीर्थ हुआ।” तब समुद्र तीर पर बालुका में हरिदास जी को समाधि दी। हरिदास जी को माला और चंदन अर्पण कर उनका चरणोदक पीकर भक्तों ने उनके शरीर को समाधि में शयन कराया। महाप्रभु ने अपने हाथ से समाधि में बालुका दी।
भक्तों सहित ‘हरि बोल, हरि बोल की ध्वनि के साथ समाधि की परिक्रमा करते हुए नृत्य कीर्तन किया तथा उसके पश्चात सबने समुद्र स्नान किया और पुन: समाधि की परिक्रमा कर कीर्तन करते हुए श्री जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार पर पंसारियो की जो दुकानें है उनसे महाप्रभु ने भिक्षा देने को कहा। पंसारी डलिया भर-भर कर भिक्षा देने लगे। महाप्रभु को स्वयं भिक्षा करते देख भक्त बहुत दुखी हुए, उन्होंने महाप्रभु से हाथ जोड़कर निवेदन किया "प्रभु आप अपने स्थान पर चले हम भिक्षा लेकर आते है।
महाप्रभु स्वरुप गोस्वामी के मुख की ओर देखकर उच्च स्वर से रो पड़े मानो कह रहे हो अपने प्रिय हरिदास के उत्सव के लिए भिक्षा करने को मना कर तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो। प्रभु को दुखी मन से अपने स्थान जाना पड़ा।
विराट महोत्सव हुआ, महाप्रभु ने अपने हाथ से परोसना आरम्भ किया। फिर भक्तों के साथ महाप्रभु प्रसाद पा रहे है ओर उच्च स्वर में हरिदास जी के गुणों का कीर्तन कर रहे है। महोत्सव समाप्त होने पर महाप्रभु ने सबको वरदान देते हुए कहा- हरिदास के निर्याण का जिन्होंने दर्शन किया, नृत्य कीर्तन किया, उनकी समाधी में बालू दी ओर जिन्होंने उनके महोत्सव में महाप्रसाद पाया उन सबको जल्दी ही श्री कृष्ण की प्राप्ति होगी।

Saturday, June 21, 2025

निष्काम प्रेम ही सच्ची भक्ति है

एक गाँव में एक बूढ़ी माई रहती थी । माई का आगे – पीछे कोई नहीं था इसलिए बूढ़ी माई बिचारी अकेली रहती थी । एक दिन उस गाँव में एक साधू आया । बूढ़ी माई ने साधू का बहुत ही प्रेम पूर्वक आदर सत्कार किया । जब साधू जाने लगा तो बूढ़ी माई ने कहा – “ महात्मा जी ! आप तो ईश्वर के परम भक्त है । कृपा करके मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिये जिससे मेरा अकेलापन दूर हो जाये । अकेले रह – रह करके उब चुकी हूँ।
साधू ने मुस्कुराते हुए अपनी झोली में से बाल – गोपाल की एक मूर्ति निकाली और बुढ़िया को देते हुए कहा – “ माई ये लो आपका बालक है, इसका अपने बच्चे की तरह प्रेम पूर्वक लालन-पालन करती रहना। बुढ़िया माई बड़े लाड़-प्यार से ठाकुर जी का लालन-पालन करने लगी।
एक दिन गाँव के कुछ शरारती बच्चों ने देखा कि माई मूर्ती को अपने बच्चे की तरह लाड़ कर रही है । नटखट बच्चो को माई से हंसी – मजाक करने की सूझी । उन्होंने माई से कहा – “अरी मैय्या सुन ! आज गाँव में जंगल से एक भेड़िया घुस आया है, जो छोटे बच्चो को उठाकर ले जाता है। और मारकर खा जाता है । तू अपने लाल का ख्याल रखना, कही भेड़िया इसे उठाकर ना ले जाये !
 बुढ़िया माई ने अपने बाल-गोपाल को उसी समय कुटिया मे विराजमान किया और स्वयं लाठी (छड़ी) लेकर दरवाजे पर पहरा लगाने के लिए बैठ गयी।
अपने लाल को भेड़िये से बचाने के लिये बुढ़िया माई भूखी -प्यासी दरवाजे पर पहरा देती रही। पहरा देते-देते एक दिन बीता, फिर दुसरा, तीसरा, चौथा और पाँचवा दिन बीत गया।
बुढ़िया माई पाँच दिन और पाँच रात लगातार, बगैर पलके झपकाये -भेड़िये से अपने बाल-गोपाल की रक्षा के लिये पहरा देती रही। उस भोली-भाली मैय्या का यह भाव देखकर, ठाकुर जी का ह्रदय प्रेम से भर गया, अब ठाकुर जी को मैय्या के प्रेम का प्रत्यक्ष रुप से आस्वादन करने की इच्छा हुई ।
भगवान बहुत ही सुंदर रुप धारण कर, वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर माई के पास आये। ठाकुर जी के पाँव की आहट पाकर माई ड़र गई कि “कही दुष्ट भेड़िया तो नहीं आ गया, मेरे लाल को उठाने !” माई ने लाठी उठाई और भेड़िये को भगाने के लिये उठ खड़ी हूई।
तब श्यामसुंदर ने कहा – “मैय्या मैं हूँ, मैं तेरा वही बालक हूँ -जिसकी तुम रक्षा करती हो!”
माई ने कहा – “क्या ? चल हट तेरे जैसे बहुत देखे है, तेरे जैसे सैकड़ो अपने लाल पर न्यौछावर कर दूँ, अब ऐसे मत कहियो ! चल भाग जा यहा से ।
ठाकुर जी मैय्या के इस भाव और एकनिष्ठता को देखकर बहुत ज्यादा प्रसन्न हो गये । ठाकुर जी मैय्या से बोले – “अरी मेरी भोली मैय्या, मैं त्रिलोकीनाथ भगवान हूँ, मुझसे जो चाहे वर मांग ले, मैं तेरी भक्ती से प्रसन्न हूँ”
बुढ़िया माई ने कहा – “अच्छा आप भगवान हो, मैं आपको सौ-सौ प्रणाम् करती हूँ ! कृपा कर मुझे यह वरदान दीजिये कि मेरे प्राण-प्यारे लाल को भेड़िया न ले जाय” अब ठाकुर जी और ज्यादा प्रसन्न होते हुए बोले – “तो चल मैय्या मैं तेरे लाल को और तुझे अपने निज धाम लिए चलता हूँ, वहाँ भेड़िये का कोई भय नहीं है।” इस तरह प्रभु बुढ़िया माई को अपने निज धाम ले गये।
दोस्तों ! भगवान को पाने का सबसे सरल मार्ग है, भगवान को प्रेम करो – निष्काम प्रेम जैसे बुढ़िया माई ने किया । इस कहानी से शिक्षा मिलती है कि हमें अपने अन्दर बैठे ईश्वरीय अंश की काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार रूपी भेड़ियों से रक्षा करनी चाहिए । जब हम पूरी तरह से तन्मय होकर अपनी पवित्रता और शांति की रक्षा करते है तो एक न एक दिन ईश्वर हमें दर्शन जरुर देते है।

Friday, June 20, 2025

मोहन के गोपाल

छोटे-से गांव में एक दरिद्र विधवा ब्राह्मणी रहती थी। छह वर्षीय बालक मोहन के अतिरिक्त उसका और कोई नहीं था।वह दो-चार भले घरों से भिक्षा मांगकर अपना तथा बच्चे का पेट भर लेती और भगवान का भजन करती थी। भीख पूरी न मिलती तो बालक को खिलाकर स्वयं उपवास कर लेती। यह कम चलता रहा। ब्राह्मणी को लगा कि ब्राह्मण के बालक को दो अक्षर न आए यह ठीक नहीं है। गांव में पड़ाने की व्यवस्था नहीं थी। गाँव से दो कोस पर एक पाठशाला थी। ब्राह्मणी अपने बेटे को लेकर वहा गई। उसकी दरिद्रता तथा रोने पर दया करके वहा के अध्यापक ने बच्चे को पढ़ाना स्वीकार कर लिया।वहां पढने वाले छात्र गुरु के घर में रहते थे किंतु ब्राह्मणी का पुत्र मोहन अभी बहुत छोटा था और ब्राह्मणी को भी अपने पुत्र को देखे विना चैन नहीं पड़ता था अत: मोहन नित्य पढ़ने जाता और सायंकाल घर लौट आता। उसको विद्या प्राप्ति के लिए प्रतिदिन चार कोस चलना पड़ता। मार्ग में कुछ दूर जंगल था। शाम को लौटने में अंधेरा होने लगता था। उस जंगल में मोहन को डर लगता था।

एक दिन गुरुजी के यहा कोई उत्सव था। मोहन को अधिक देर हो गई और जब वह घर लौटने लगा रात्रि हो गई थी। अंधेरी रात जंगली जानवरों की आवाजों से बालक मोहन भय से थर-थर कांपने लगा।

ब्राह्मणी भी देर होने के कारण बच्चे को ढूंढने निकली थी। किसी प्रकार अपने पुत्र को वह घर ले आई।

मोहन ने सरलता से कहा : मां ! दूसरे लड़को को साथ ले जाने तो उनके नौकर आते हैं। मुझे जंगल में आज बहुत डर लगा। तू मेरे लिए भी एक नौकर रख दे। बेचारी ब्राह्मणी रोने लगी। उसके पास इतना पैसा कहा कि नौकर रख सके। शमाता को रोते देख मोहन ने कहा :मां ! तू रो मत ! क्या हमारा और कोई नहीं है ? अब ब्राह्मणी क्या उत्तर दे ? उसका हृदय व्यथा से भर गया।

उसने कहा : बेटा ! गोपाल को छोड़कर और कोई हमारा नहीं है।बच्चे की समझ में इतनी ही बात आई कि कोई गोपाल उसका है। 

उसने पूछा : गोपाल कौन ? वे क्या लगते हैं मेरे और कहा रहते हैं ?

ब्राह्मणी ने सरल भाव से कह दिया : ”वे तुम्हारे भाई लगते हैं। सभी जगह रहते हैं परंतु आसानी से नहीं दिखते। संसार में ऐसा कौन सा स्थान है जहां वे नहीं रहते। लेकिन उनको तो देखा था ध्रुव ने, प्रहलाद ने ओर गोकुल के गोपों ने।

बालक को तो अपने गोपाल भाई को जानना था। वह पूछने लगा : गोपाल मुझसे छोटे हैं या बड़े अपने घर आते हैं या नहीं?

माता ने उसे बताया : तुमसे वे बड़े हैं और घर भी आते हैं पर हम लोग उन्हें देख नहीं सकते। जो उनको पाने के लिए व्याकुल होता है उसी के पुकारने पर वे उसके पास आते हैं।

मोहन ने कहा : जंगल में आते समय मुझे बड़ा डर लगता है। मैं उस समय खूब व्याकुल हो जाता हूं। वहां पुकारू तो क्या गोपाल भाई आएंगे? 

माता ने कहा : तू विश्वास के साथ पुकारेगा तो अवश्य वे आएंगे। मोहन की समझ में इतनी बात आई कि जंगल में अब डरने की जरूरत नहीं है। डर लगने पर मैं व्याकुल होकर पुकारूंगा तो मेरा गोपाल भाई वहा आ जाएगा।दूसरे दिन पाठशाला से लौटते समय जब वह वन में पहुचा उसे डर लगा। 

उसने पुकारा : गोपाल भाई ! तुम कहां हो ? मुझे यहा डर लगता है। मैं व्याकुल हो रहा हूं। गोपाल भाई ।

जो दीनबंधु हैं दीनों के पुकारने पर वह कैसे नहीं बोलेंगे। मोहन को बड़ा ही मधुर स्वर सुनाई पड़ा : भैया ! तू डर मत। मैं यह आया। यह स्वर सुनते ही मोहन का भय भाग गया।थोड़ी दूर चलते ही उसने देखा कि एक बहुत ही सुंदर ग्वालबाल उसके पास आ गया। वह हाथ पकड़कर बातचीत करने लगा। साथ-साथ चलने लगा। उसके साथ खेलने लगा। वन की सीमा तक वह पहुंचाकर लौट गया। गोपाल भाई को पाकर मोहन का भय जाता रहा।घर आकर उसने जब माता को सब बातें बताईं तब वह ब्राह्मणी हाथ जोडकर गदगद हो अपने प्रभु को प्रणाम करने लगी।उसने समझ लिया जो दयामयी द्रोपदी और गजेंद्र की पुकार पर दौड़ पड़े थे मेरे भोले बालक की पुकार पर भी वही आए थे। ऐसा ही नित्य होने लगा। एक दिन उसके गुरुजी के पिता का श्राद्ध होने लगा। सभी विद्यार्थी कुछ न कुछ भेंट देंगे। गुरुजी सबसे कुछ लाने को कह रहे थे।

मोहन ने भी सरलता से पूछा : गुरुजी ! मैं क्या ले आऊं ?गुरु को ब्राह्मणी की अवस्था का पता था। उन्होंने कहा : बेटा ! तुमको कुछ नहीं लाना होगा। लेकिन मोहन को यह बात कैसे अच्छी लगती। सब लड़के लाएंगे तो मैं क्यों न लाऊं उसके हठ को देखकर गुरुजी ने कह दिया : अच्छा तुम एक लोटा दूध ले आना।घर जाकर मोहन ने माता से गुरुजी के पिता के श्राद्ध की बात कही और यह भी कहा” मुझे एक लोटा दूध ले जाने की आज्ञा मिली है। ब्राह्मणी के घर में था क्या जो वह दूध ला देती। मांगने पर भी उसे दूध कौन देता लेकिन मोहन ठहरा बालक। वह रोने लगा। अंत में माता ने उसे समझाया : तू गोपाल भाई से दूध मांग लेना। वे अवश्य प्रबंध कर देंगे।दूसरे दिन मोहन ने जंगल में गोपाल भाई को जाते ही पुकारा और मिलने पर कहा आज मेरे गुरुजी के पिता का श्राद्ध है। मुझे एक लोटा दूध ले जाना है। मां ने कहा है कि गोपाल भाई से मांग लेना। सौ मुझे तुम एक लोटा दूध लाकर दो। गोपाल ने कहा : मैं तो पहले से यह लौटा भर दूध लाया हूं । तुम इसे ले जाओ। मोहन बड़ा प्रसन्न हुआ। पाठशाला में गुरुजी दूसरे लड़कों के उपहार देखने और रखवाने में लगे थे। मोहन हंसता हुआ पहुंचा। कुछ देर तो वह प्रतीक्षा करता रहा कि उसके दूध को भी गुरुजी देखेंगे। पर जब किसी का ध्यान उसकी ओर न गया।

 तब वह बोला : गुरुजी ! मैं दूध लाया हूं।’ गुरु जी ढेरों चीजें सम्हालने में व्यस्त थे। मोहन ने जब उन्हें स्मरण दिलाया तब झुंझलाकर बोले : जरा-सा दूध लाकर यह लड़का कान खाए जाता है जैसे इसने हमें निहाल कर दिया।

इसका दूध किसी बर्तन से डालकर हटाओ इसे यहां से। मोहन अपने इस अपमान से खिन्न हो गया। उसका उत्साह चला गया। उसके नेत्रों से आंसू गिरने लगे।नौकर ने लोटा लेकर दूध कटोरे मे डाला तो कटोरा भर गया फिर गिलास में डाला तो वह भी भर गया। बाल्टी में टालने लगा तो वह भी भर गई। भगवान के हाथ से दिया वह लोटा भर दूध तो अक्षय था।नौकर घबराकर गुरुजी के पास गया। उसकी बात सुनकर गुरुजी तथा और सब लोग वहां आए अपने सामने एक बड़े पात्र में दूध डालने को उन्होंने कहा। पात्र भर गया पर लोटा तनिक भी खाली नहीं हुआ। इस प्रकार बड़े-बड़े बर्तन दूध से भर गए। 

अब गुरुजी ने पूछा : बेटा ! तू दूध कहां से लाया हें ? 

सरलता से बालक ने कहा : मेरे गोपाल भईया ने दिया। गुरुजी और चकित हुए। उन्होंने पूछा : गोपाल भाई कौन ? तुम्हारे तो कोई भाई नहीं। मोहन ने दृढ़ता से कहा : है क्यों नहीं। गौपाल भाई मेरा बड़ा भाई है। वह मुझे रोज वन में मिल जाते है। मां कहती हैं कि वह सब जगह रहता है पर दिखता नहीं कोई उसे खूब व्याकुल होकर पुकारे तभी वह आ जाता है। उससे जो कुछ मांगा जाए वह तुरंत दे देता है। अब गुरुजी को कुछ समझना नहीं था। मोहन को उन्होंने हृदय से लगा लिया। श्राद्ध में उस दूध से खीर बनी और ब्राह्मण उसके स्वाद का वर्णन करते हुए तृप्त नहीं होते थे ।गोपाल भाई के दूध का स्वाद स्वर्ग के अमृत में भी नहीं तब संसार के किसी पदार्थ में कहां से होगा। उस दूध का बना श्राद्धान्त पाकर गुरुजी के पितर तृप्त ही नहीं हुए, माया से मुक्त भी हो गए। श्राद्ध समाप्त हुआ। संध्या को सब लोग चले गए। मोहन को गुरुजी ने रोक लिया था। 

अब उन्होंने कहा : बेटा ! मैं तेरे साथ चलता हूं। तू मुझे अपने गोपाल भाई के दर्शन करा देगा न ?

मोहन ने कहा :चलिए मेरा गोपाल भाई तो पुकारते ही आ जाता है।” वन में पहुंच कर उसने पुकारा। उत्तर में उसे सुनाई पड़ा :आज तुम अकेले तो हो नहीं तुम्हें डर तो लगता नहीं, फिर मुझे क्यों बुलाते हो ?

मोहन ने कहा : ”मेरे गुरुजी तुम्हें देखना चाहते हैं तुम जल्दी आओ ! 

जब मोहन ने गोपाल भाई को देखा तो गुरुजी से कहा :आपने देखा मेरा गोपाल भाई कितना सुदर है ?

गुरुजी कहने लगे : “मुझे तो दिखता ही नहीं। मैं तो यह प्रकाशमात्र देख रहा हूं।अब मोहन ने कहा : गोपाल भाई ! तुम मेरे गुरुजी को दिखाई क्यों नहीं पड़ते।

उत्तर मिला : तुम्हारी बात दूसरी है। तुम्हारा अत: करण शुद्ध है तुममें सरल विश्वास है, अत: मैं तुम्हारे पास आता हूं।तुम्हारे गुरुदेव को जो प्रकाश दिख गया उनके लिए वही बहुत है। उनका इतने से ही कल्याण हो जाएगा।उस अमृत भरे स्वर को सुनकर गुरुदेव का हृदय गदगद हो गया। उनको अपने हृदय में भगवान के दर्शन हुए। भगवान की उन्होंने स्तुति की।कुछ देर में जब भगवान अंतर्धान हो गए, तब मोहन को साथ लेकर वे उसके घर आए और वहां पहुंचकर उनके नेत्र भी धन्य हो गए।गोपाल भाई उस ब्राह्मणी की गोद में बैठे थे और माता के नेत्रों की अश्रुधार उनकी काली धराली अलकों को भिगो रही थी। माता को शरीर की सुध-बुध ही नहीं थी।

Thursday, June 19, 2025

ठाकुरजी का विश्वास

हर समय माला लेकर बैठे रहते हो । कुछ पैसे धेले का इंतजाम करो लड़की के लिए लड़का नहीं देखना । निर्मला ने रोज की तरह सुबह से ही बड़बड़ाना शुरु कर दिया।ईश्वर पर विश्वास रखो , समय पर सब हो जाएगा । चौबे जी ने अपना गमछा संभालते हुए कहा। ईश्वर तो जैसे घर बैठे ही लड़का भेज देंगे। उनके पास तो कोई काम है नहीं सिर्फ आपका ध्यान रखने के अलावा।अरे क्यों पूरा दिन चकचक करती रहती हो ? चौबे जी कभी गुस्सा नहीं होते । वो तो बस पूरा दिन बस लड्डू गोपाल के बारे में ही सोचते हैं । जयपुर वाली मौसी बता रही थी , उनके रिश्तेदारी में एक लड़का है । अब देखकर तो जब आओगे , जब जेब में 1000 , 2000 रुपए होंगे । जो दो चार रुपए बचते हैं , उन्हें अपने दोस्तों को उधार दे देते हो । आज तक लौटाए हैं किसी ने।आज तक किसी चीज की कोई कमी हुई है । आगे भी नहीं होगी ईश्वर की कृपा से । तुम तो मुझे भजन भी नहीं करने देती ।
भजन ही करना था तो शादी क्यों की ? अब वो बैठे-बिठाए तुम्हारी लड़की की शादी भी कर जाएंगे।हां रहने दो बस । लो थैला पकड़ो और जाओ सब्जी ले आओ ।और हां , जिस लडके के बारे में मैंने बात की है ।उसके बारे में जरा सोचना परसों जाना है तुम्हें ।अब थोड़े बहुत पैसों के लिए एफडी तो तुडवाओगे नहीं । जो यार दोस्तों को उधार दे रखे हैं उनसे जरा मांग लो।थैला लेकर निकल तो गए लेकिन विचार यही है मन में ।पैसों का इंतजाम कैसे होगा ? सब्जी लेने से पहले जरा अपने दोस्त से अपने पैसों की बात कर ली जाए । जिस शोरूम में काम करता है , वो भी पास ही है।राकेश ने अपने मित्र को देखा तो गले लगा लिया । चौबे कैसे आना हुआ।कुछ ना भैया कुछ समस्या आन पड़ी है । पैसो की सख्त जरुरत है ? अपने ही पैसे चौबे जी ऐसे मांग रहे हैं , जैसे उधार मांग रहे हो। देखता हूं साहब से मांगता हूं ।6 दिन पहले ही विदेश से आए हैं । ऐसे 6 शोरूम है उनके पास । बात करके तुम्हें बता दूंगा और बताओ ललिया ठीक है ? कैसा चल रहा है उसका योगा क्लास। बढ़िया चल रहा है सुबह 5:00 बजे जाती है ,पूरा 5000 कमाती है । चौबे जी ने बड़े गर्व से कहा
सर्वगुण संपन्न है हमारी लाली। कैबिन से बाहर निकले ही थे , एक जगह नज़र टिकी गई। इतनी सुंदर मूर्ति लड्डू गोपाल की । चौबे जी अपलक देख रहे थे जैसे अभी बात करने लगेगी। तभी राकेश ने ध्यान भंग करते हुए कहा ," बडे साहब ने आर्डर पर बनवाई है । बाहर से बनकर आई है । ऐसी 3 बनवाई हैं।रास्ते भर मूर्ति की छवि उनकी नजरों से ओझल नहीं हो रही थी, काश वो मूर्ति उनके पास होती ।भूल नहीं पा रहे हैं अगर उनके पास होती कैसे निहलाते , क्या क्या खिलाते ,घर कब आया पता ही नहीं चला ।लेकिन घर के सामने इतनी भीड़ क्यों है ? गाड़ी तो काफी महंगी लग रही है ? अपने घर के दरवाजे में घुसने ही वाले थे कि थैला हाथ से छीनकर निर्मला ने मुस्कुराकर उनका स्वागत किया।कौन आया है ? अंदर सूट बूट में एक आदमी बैठा है ।चौबे जी को देखते ही वो हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।
राधे राधे चौबे जी ने कहा । बैठिए । क्षमा कीजिए मैंने आपको पहचाना नहीं।अरे आप कैसे पहचानेंगे ? हम पहली बार मिल रहे हैं । उसने बड़ी शालीनता के साथ जवाब दिया। जी कहिए , मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ?दरअसल मैं आपसे कुछ मांगने आया हूं।सीधा-सीधा बताइए चौबे जी सोच में पडे थे जाने क्या मांग ले ? इतने बड़े आदमी को मुझसे क्या चाहिए ?
आज से चार दिन पहले मैं मॉर्निंग वॉक के लिए गया था ।लेकिन उस दिन मेरे साथ एक दुर्घटना हुई ।मुझे हार्टअटैक आ गया । आसपास कोई नहीं था मदद के लिए ।ना मैं कुछ बोल पा रहा था । तभी एक लड़की स्कूटी पर आती दिखी । मुझे सडक पर पड़े हुए देखकर उसने अपनी स्कूटी रोकी । अकेली वो मुझे उठा नहीं सकती थी । फिर अपनी स्कूटी से दूर की दुकान पर जाकर एक आदमी को बुलाकर लाई । उसकी मदद से उसने मुझे अपनी स्कूटी पर बिठाया और मुझे हॉस्पिटल लेकर गई । अगर थोड़ी सी भी देर हो जाती शायद मेरा अन्त निश्चित था ।और वो लड़की कोई और नहीं , आपकी बेटी थी।उस आदमी ने हाथ जोड़ते हुए कहा , अगर आप लायक समझे ,तो मैं अपने बेटे के लिए आपकी बेटी का हाथ मांगता हूं।जो अनजान की मदद कर सकती है।वो अपने परिवार का कितना ध्यान रखेगी ।
चौबे जी एक दम जड़ हो गए । विश्वास नहीं कर पा रहे थे क्या यह सच में ये हो रहा है कि मुझे किसी के दरवाजे पर ना जाना पड़े । इस स्थिति से बाहर नहीं निकले थे कि तभी उन्होंने अपने पास रखे हुए बैग में से एक बड़ा सा बक्सा निकाला । इसमें वही मूर्ति थी , जिसे अभी शोरूम में देखकर आए थे । जो आंखो के सामने से ओझल नहीं। हो रही थी । जिसे देखते ही मन में ये ख्याल आया था कि काश मेरे मंदिर में होती । ऊपरवाले ने प्रमाणित कर दिया की मुझे उसका जितना ख्याल है उसे मेरा मुझसे ज्यादा।

जागृत महादेव

एक बार एक शिव-भक्त अपने गांव से केदारनाथ धाम जी की यात्रा पर निकला। पहले यातायात की सुविधाएँ तो थी नहीं, वह पैदल ही निकल पड़ा। रास्ते में जो भी मिलता केदारनाथ जी का मार्ग पूछ लेता। मन में शिवजी का ध्यान करता रहता। चलते चलते उसको महीनों बीत गए।
आखिरकार एक दिन वह श्री केदार धाम जी पहुंच ही गया। केदारनाथ जी में मंदिर के द्वार 6 महीने खुलते है और 6 महीने बंद रहते हैं। वह उस समय पर पहुंचा जब मन्दिर के द्वार बंद हो रहे थे। पंडित जी को उसने बताया कि वह बहुत दूर से महीनो की यात्रा करके आया है। पंडित जी से प्रार्थना की - कृपा कर के दरवाज़े खोलकर प्रभुजी के दर्शन करवा दीजिये।

 लेकिन यहां का तो नियम है एक बार बंद तो बंद, नियम तो नियम होता है ऐसा पंडित जी का कहना था। 
वह बहुत रोया। बार-बार भगवन शिवजी को याद किया कि प्रभुजी बस एक बार दर्शन दे दो। वह प्रार्थना कर रहा था सभी से, कि पंडित जी को बोलकर कृपया एक बार तो दर्शन करवा दो। लेकिन किसी ने भी नहीं सुनी।

पंडित जी बोले अब यहाँ 6 महीने बाद आना, 6 महीने बाद यहां के दरवाजे खुलेंगे। यहाँ 6 महीने बर्फ और अत्यधिक ठंड पड़ती है। और सभी जन वहां से चले गये। वह वहीं पर रोता रहा। रोते-रोते रात होने लगी चारो तरफ अँधेरा हो गया। लेकिन उसे विश्वास था अपने शिवजी पर कि वो जरुर कृपा करेंगे। उसे बहुत भूख और प्यास भी लग रही थी। उसने किसी के आने की आहट सुनी। देखा एक सन्यासी बाबाजी उसकी ओर आ रहे हैं। वह सन्यासी बाबाजी उस के पास आये और पास में बैठ गये। पूछा - बेटा कहाँ से आये हो ? 
उस ने सारा हाल सुना दिया और बोला मेरा यहाँ पर आना व्यर्थ हो गया बाबा जी! 
बाबा जी ने उसे समझाया और खाना भी दिया। और फिर बहुत देर तक बाबाजी उससे बातें करते रहे। बाबा जी को उस पर दया आ गयी। वह बोले, बेटा मुझे लगता है, सुबह मन्दिर जरुर खुलेगा। तुम दर्शन जरुर करोगे।
बाबाजी ने अपनी गोद का सिरहाना दे उसके सिर को सहलाते हुए गोद में सुलाया।
बातों-बातों में इस भक्त को ना जाने कब नींद आ गयी। सूर्य के मद्धिम प्रकाश के साथ भक्त की आँख खुली। उसने इधर उधर बाबाजी को देखा, किन्तु वे वहां नहीं थे । इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता उसने देखा पंडित जी आ रहे हैं अपनी पूरी मंडली के साथ। उस ने पंडितजी को प्रणाम किया और बोला- कल तो आप ने कहा था मन्दिर 6 महीने बाद खुलेगा ? और इस बीच कोई नहीं आएगा यहाँ, लेकिन आप तो सुबह ही आ गये। पंडित जी ने उसे गौर से देखा, पहचानने की कोशिश की और पुछा - तुम वही हो ना जो मंदिर का द्वार बंद होने पर आये थे ? जो मुझे मिले थे। 6 महीने होते ही वापस आ गए ! उस आदमी ने आश्चर्य से कहा - नहीं-नहीं, मैं कहीं नहीं गया। कल ही तो आप मिले थे, रात में मैं यहीं सो गया था। मैं कहीं नहीं गया। पंडित जी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था।
उन्होंने कहा - लेकिन मैं तो 6 महीने पहले मंदिर बन्द करके गया था और आज 6 महीने बाद आया हूँ। तुम छः महीने तक यहाँ पर जिन्दा कैसे रहे ? आश्चर्य है! पंडित जी और सारी मंडली हैरान थी। इतनी भयंकर सर्दी में एक अकेला व्यक्ति कैसे छः महीने तक ज़िन्दा रह सकता है। तब उस भक्त ने उनको सन्यासी बाबाजी के मिलने और उनके साथ की गयी सारी बातें बता दी, कि एक सन्यासी आये थे - लम्बे से थे, बड़ी-बड़ी जटाये, एक हाथ में त्रिशुल और एक हाथ में डमरू लिए, मृग-शाला पहने हुए थे। पंडित जी और सब लोग उसके चरणों में गिर गये। बोले, हमने तो जिंदगी लगा दी किन्तु प्रभुजी के दर्शन ना पा सके, सच्चे भक्त तो तुम हो। तुमने तो साक्षात शिवजी के दर्शन किये हैं। उन्होंने ही अपनी योग-माया से तुम्हारे 6 महीने को एक रात में परिवर्तित कर दिया। काल-खंड को छोटा कर दिया। यह सब तुम्हारे पवित्र मन, तुम्हारी श्रद्वा और विश्वास के कारण ही हुआ है।

Wednesday, June 18, 2025

प्रभु का ध्यान

एक बार गौ लोक धाम में कृष्णप्रिया राधाजी ने श्री गोविन्द से पूछा हे माधव ! कंस आपका सगा मामा होते हुए भी आपके माता पिता को घोर पीड़ा देता था, निरंतर आपका अपमान करता था, आपका संतों का मजाक उड़ाता था, आपको मार देने के प्रयास करता था, कभी किसी को भेजकर कभी किसी को, हत्या के प्रयत्न करता रहता था। फिर भी उस महापापी के ऐसे कौन से पुण्य थे, कि उसे आपके हाथों परम मोक्ष प्राप्त हुआ ? मोहन ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया राधे ! कंस जो कुछ भी करता और सोचता था वह सब मेरे ही बारे में होता था। चाहे द्वेष, क्रोध या भय के कारण, पर मेरा स्मरण उसे हर पल रहता था। जो व्यक्ति हर वक्त मेरा सुमिरन करेगा उसे मैं मोक्ष ही दूँगा चाहे वो मेरा विरोधी ही क्यों न हो।
उनके नाम का जाप सभी पापों का नाश कर देता है। मैं उन परम भगवान को नमस्कार करता हूं, जो सभी कष्टों का निवारण करते हैं।

भगवान् का दंड

गया के आकाशगंगा पहाड़ पर एक परमहंस जी वास करते थे।एक दिन परमहंस जी के शिष्य ने एकादशी के दिन निर्जला उपवास करके द्वादशी के दिन प्रातः उठकर फल्गु नदी में स्नान किया,विष्णुपद का दर्शन करने में उन्हें थोड़ा विलम्ब हो गया। वे साथ में एक गोपाल जी को सर्वदा ही रखते थे। द्वादशी के पारण का समय बीतता जा रहा था, देखकर वे अधीर हो गये एवं शीघ्र एक हलवाई की दुकान में जाकर उन्होंने दुकानदार से कहा..
पारण का समय निकला जा रहा है, मुझे कुछ मिठाई दे दो, गोपाल जी को भोग लगाकर मैं थोड़ा जल ग्रहण करुँगा। दुकानदार उनकी बात अनसुनी कर दी।साधु के तीन - चार बार माँगने पर भी हाँ ना कुछ भी उत्तर नहीं मिलने से व्यग्र होकर एक बताशा लेने के लिए जैसे ही उन्होने हाथ बढ़ाया, दुकानदार और उसके पुत्र ने साधु की खुब पिटाई की,निर्जला उपवास के कारण साधु दुर्बल थे, इस प्रकार के प्रहार से वे सीधे गिर पड़े। 
रास्ते के लोगों ने बहुत प्रयास करके साधु की रक्षा की।साधु ने दुकानदार से एक शब्द भी नहीं कहा, ऊपर की ओर देखकर थोड़ा हँसते हुए प्रणाम करके कहा-भली रे दयालु गुरुजी, तेरी लीला। केवल इतना कहकर साधु पहाड़ की ओर चले गये।गुरुदेव परमहंस जी पहाड़ पर ध्यानमग्न बैठे हुए थे, एकाएक चौक उठे एवं चट्टान से नीचे कूदकर बड़ी तीव्र गति से गोदावरी नामक रास्ते की ओर चलने लगे।रास्ते में शिष्य को देखकर परमहंस जी कहा 'क्यो रे बच्चा, क्या किया। शिष्य ने कहा, गुरुदेव मैने तो कुछ नहीं किया।परमहंस जी ने कहा, बहुत किया। तुमने बहुत बुरा काम किया। रामजी के ऊपर बिल्कुल छोड़ दिया। जाकर देखो, रामजी ने उसका कैसा हाल किया। यह कहकर शिष्य को लेकर परमहंस जी हलवाई की दुकान के पास जा पहुँचे।उन्होंने देखा हलवाई का सर्वनाश हो गया है।साधु को पीटने के बाद, जलाने की लकड़ी लाने के लिए हलवाई का लड़का जैसे ही कोठरी में घुसा था उसी समय एक काले नाग ने उसे डस लिया। 
हलवाई घी गर्म कर रहा था, सर्पदंश से मृत अपने पुत्र को देखने दौड़ा। उधर चूल्हे पर रखे घी के जलने से दुकान की फूस की छत पर आग लग गई।परमहंस जी ने देखा, लड़का रास्ते पर मृतवत पड़ा है, दुकान धू-धू करके जल रही है, रास्ते के लोग हाहाकार कर रहे है। भयानक दृश्य था।परमहंस जी शिष्य को लेकर पहाड़ पर आ गए। शिष्य को खूब फटकारते हुए कहा कि बिना अपराध के कोई अत्याचार करता है,तो क्रोध न आने पर भी साधु पुरुष को कम-से-कम एक गाली ही देकर आना चाहिए। साधु के थोड़ा भी प्रतिकार करने से अत्याचारी की रक्षा हो जाती है, परमात्मा के ऊपर सब भार छोड़ देने से परमात्मा बहुत कठोर दंड देते हैं।भगवान् का दंड बड़ा भयानक है।