महामंत्र > हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे|हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे||

Monday, July 28, 2025

जागिए

बहुत समय पहले की बात है। एक बार गिद्धों का एक बड़ा झुंड उड़ता-उड़ता एक टापू पर जा पहुँचा। वह टापू समुद्र के बीचों-बीच था, जहाँ शांति ही शांति थी। मछलियाँ, मेंढक और छोटे समुद्री जीवों की भरमार थी। वहाँ गिद्धों को भोजन की कोई कमी नहीं थी और सबसे बड़ी बात—टापू पर कोई शिकारी जानवर नहीं था।
गिद्धों को जैसे स्वर्ग मिल गया हो। आरामदायक जीवन, बिना किसी खतरे के हर दिन मौज-मस्ती, भरपेट भोजन और चैन की नींद। गिद्धों में अधिकतर युवा थे। उन्होंने वहीं बस जाने का मन बना लिया। वे बोले, “अब जंगल का क्या काम? वहाँ खतरे हैं, मुश्किलें हैं। हम यहीं रहेंगे, यही हमारा भविष्य है।
लेकिन उसी झुंड में एक बूढ़ा गिद्ध भी था। उसने वह जंगल देखा था जहाँ जीवन कठिन था, लेकिन सच्चा था। उसने शिकारी जानवरों से जूझना सीखा था, भूख में उड़ना सीखा था और गिरकर उठना सीखा था।
एक दिन बूढ़े गिद्ध ने सभा बुलाई। उसने कहा, बेटों, यह टापू तुम्हें मजबूत नहीं बना रहा, यह तुम्हें कमज़ोर कर रहा है। तुम उड़ना भूल चुके हो, पंजे कुंद हो गए हैं और आँखें आलस की धुंध में धँस चुकी हैं। चलो, लौट चलें जंगल की ओर, जहाँ जीवन कठिन है, लेकिन वो तुम्हें जीवित रहना सिखाता है।
युवा गिद्ध हँस पड़े। एक ने कहा, बाबा, तुम पुरानी सोच के हो। अब जमाना बदल गया है। हमें आराम मिल रहा है, फिर जंगल क्यों लौटें?”
बूढ़े ने बहुत समझाया, लेकिन कोई नहीं माना। वो अकेला ही उड़ गया। समय बीता। कुछ महीने बाद बूढ़े गिद्ध को अपने पुराने साथियों की याद आई। उसने सोचा, देखूं, सब कैसे हैं। वह वापस टापू पर लौटा पर वहाँ जो उसने देखा, उससे उसकी आँखें भर आईं। हर ओर गिद्धों की लाशें पड़ी थीं। कुछ घायल गिद्ध तड़प रहे थे। उसने दौड़कर एक घायल गिद्ध से पूछा, “ये क्या हो गया?”
घायल गिद्ध की आँखों में पश्चाताप था। उसने कहा,
बाबा, आपके जाने के कुछ दिन बाद एक जहाज आया। जहाज से कुछ शिकारी कुत्ते इस टापू पर छोड़ दिए गए। पहले तो उन्होंने कुछ नहीं किया, लेकिन फिर उन्हें पता चल गया कि हम उड़ नहीं सकते। हमारे पंजे बेकार हो चुके हैं, नाखून कुंद हो चुके हैं। फिर उन्होंने हम पर हमला किया और एक-एक कर मार डाला। हम चाहकर भी भाग नहीं सके। हमें माफ कर दीजिए, हमने आपकी बात नहीं मानी बूढ़े गिद्ध ने सिर झुका लिया। वह जानता था, जो होना था, वह हो चुका है।

लेकिन जानना चाहोगे, वो युवा गिद्ध कौन थे?
वे गिद्ध कोई और नहीं, आज का हिन्दू समाज है।
एक ऐसा समाज, जो हजारों वर्षों से युद्ध लड़ता आया, जिसने ज्ञान, बलिदान, तप और त्याग की विरासत पाई थी। लेकिन अब वह टापू के गिद्धों की तरह आराम में डूब चुका है।
जातिवाद, भोगवाद, सेकुलरिज़्म की लोरी में सोया हुआ समाज, जिसे याद नहीं कि राजा दाहिर कैसे मारे गए, वीर हकीकत राय को क्या यातनाएँ दी गईं, शंभाजी महाराज को कैसे टुकड़ों में काटा गया। जिसे याद नहीं कि मंदिर कैसे तोड़े गए, बेटियाँ कैसे लूटी गईं, पंजाब, बंगाल, केरल, कश्मीर में क्या-क्या हुआ।
वो समाज अब केवल मौज-मस्ती, सोशल मीडिया और आराम के सपनों में जी रहा है, ये मानकर कि अब कुछ नहीं होगा पर क्या सच में अब कुछ नहीं होगा?
क्योंकि शिकारी फिर से लौट रहे है इस बार नए जहाजों से।
सोचिए, क्या आप भी उसी टापू के गिद्ध तो नहीं बन गए?
अब भी समय है… उड़ना सीखिए, जागिए, और अपने अस्तित्व की रक्षा करिए।

Friday, July 25, 2025

पांच प्रेत

नगर अभी दूर था। वन हिंसक जन्तुओं से भरा पड़ा था। सो विशाल वटवृक्ष, सरोवर और शिव मंदिर देखकर आचार्य महीधर वहीं रुक गये। शेष यात्रा अगले दिन पूरी करने का निश्चय कर थके हुए आचार्य महीधर शीघ्र ही निद्रा देवी की गोद में चले गये।
आधा रात, सघन अन्धकार, जीव-जन्तुओं की रह-रहकर आ रहीं भयंकर आवाजें- आचार्य प्रवर की नींद टूट गई। मन किसी बात पर विचार करे इससे पूर्व ही उन्हें कुछ सिसकियाँ सुनाई दीं उन्हें लगा पास में कोई अन्ध-कूप है उनमें कोई पड़ा हुआ रुदन कर रहा है अब तक सप्तमी का चन्द्रमा आकाश में ऊपर आ गया था, हल्का-हल्का प्रकाश फैल रहा था, आचार्य महीधर कूप के पास आये और झाँककर देखा तो उसमें पाँच प्रेत किलबिला रहे थे।
यों दुःखी अवस्था में पड़े प्रेतों को देखकर महीधर को दया आ गई उन्होंने पूछा-तात! आप लोग कौन हैं यह दुर्दशा आप लोग क्यों भुगत रहे हैं ? इस पर सबसे बड़े प्रेत ने बताया हम लोग प्रेत है मनुष्य शरीर में किये गये पापों के दुष्परिणाम भुगत रहे हैं आप संसार में जाइये और लोगों को बताइये जो पाप कर हम लोग प्रेत योनि में आ पड़े है वह पाप और कोई न करें। आचार्य ने पूछा- आप लोग यह भी तो बताइये कौन कौन से पाप आप सबने किये हैं। तभी तो लोगों को उससे बचने के लिए कहा जा सकता है।
“मेरा नाम पर्युषित है आर्य” पहले प्रेत ने बताना प्रारम्भ किया- मैं पूर्व जन्म में ब्राह्मण था, विद्या भी खूब पढ़ी थी किन्तु अपनी योग्यता का लाभ समाज को देने की बात को तो छुपा लिया हाँ अपने पाँडित्य से लोगों में अन्ध-श्रद्धा, अन्धविश्वास जितना फैला सकता था फैलाया और हर उचित अनुचित तरीके से केवल यजमानों से द्रव्य-दोहन किया उसी का प्रतिफल आज इस रूप में भुगत रहा हूँ । ब्राह्मण होकर भी जो ब्रह्म नहीं रखता, समाज को धोखा देता है वह मेरी ही तरह प्रेत होता है।
“मैं क्षत्रिय था पूर्व जन्म में” । अब सूचीमुख नामक दूसरे प्रेत ने आत्म कथा कहनी प्रारम्भ की। मेरे शरीर में शक्ति की कमी नहीं थी। मुझे लोगों की रक्षा के लिये नियुक्त किया गया। रक्षा करना तो दूर प्रमोद वश मैं प्रजा का भक्षक ही बन बैठा। चाहे किसी को दण्ड देना, चाहे जिसको लूट लेना ही मेरा काम था एक दिन मैंने एक अबला को देखा जो जंगल में अपने बेटे के साथ जा रही थी मैंने उसे भी नहीं छोड़ा उसका सारा धन छीन लिया, यहाँ तक उनका पानी तक लेकर पी लिया। दोनों प्यास से तड़प कर वहीं मर गये उसी पाप का प्रतिफल प्रेतयोनि में पड़ा भुगत रहा हूँ।
तीसरे शीघ्राग ने बताया- मैं था वैश्य। मिलावट, कम तौल, ऊँचे भाव तक ही सीमित रहता तब भी कोई बात थी, व्यापार में अपने साझीदारों तक का गला काटा। एक बार दूर देश वाणिज्य के लिए अपने एक मित्र के साथ गया। वहाँ से प्रचुर धन लेकर लौट रहा था रास्ते में लालच आ गया मैंने अपने मित्र की हत्या करदी और उसकी स्त्री, बच्चों को भी धोखा दिया व झूठ बोला उसकी स्त्री ने इसी दुःख में अपने प्राण त्याग दिये उस समय तो किसी की पकड़ में नहीं आ सका पर मृत्यु से आखिर कौन बचा है तात ! मेरे पाप ज्यों ज्यों मरणकाल समीप आता गया मुझे संताप की भट्टी में झोंकते गये और आज जो मेरी स्थिति है वह आप देख ही रहे है। पाप का प्रतिफल ही है जो इस प्रेतयोनि में पड़ा मल-मूत्र पर जीवन निर्वाह करने को विवश हूँ। अंग-अंग से व्रण फूट रहे हैं दुःखों का कहीं अन्त नहीं दिखाई दे रहा।
अब चौथे की बारी थी- उसने अपने घावों पर बैठी मक्खियों को हाँकते और सिसकते हुये कहा- तात! मैं पूर्व जन्म में “रोधक” नाम का शूद्र था। तरुणाई में मैंने विवाह किया कामुकता मेरे मस्तिष्क पर बुरी तरह सवार हुई। पत्नी मेरे लिये भगवान् हो गई उसकी हर सुख सुविधा का ध्यान दिया पर अपने पिता-माता, भाई बहनों का कुछ भी ध्यान नहीं दिया। ध्यान देना तो दूर उन्हें श्रद्धा और सम्मान भी नहीं दिया। अपने बड़ों के कभी पैर छुये हों मुझे ऐसा एक भी क्षण स्मरण नहीं। आदर करना तो दूर जब तब उन्हें धमकाया और मारा-पीटा भी। माता-पिता बड़े दुःख और असह्यपूर्ण स्थिति में मरे। एक स्त्री से तृप्ति नहीं हुई तो और विवाह किये। पहली पत्नियों को सताया घर से बाहर निकाला। उन्हीं सब कर्मों का प्रतिफल भुगत रहा हूँ मेरे तात् और अब छुटकारे का कोई मार्ग दीख नहीं रहा।
चार प्रेत अपनी बात कह चुके किन्तु पांचवां प्रेत तो आचार्य महीधर की ओर मुख भी नहीं कर रहा था पूछने पर अन्य प्रेतों ने बताया-यह तो हम लोगों को भी मुँह नहीं दिखाते-बोलते बातचीत तो करते हैं पर अपना मुँह इन्होंने आज तक नहीं दिखाया।
“आप भी तो कुछ बताइये”- आचार्य प्रवर ने प्रश्न किया-इस पर घिंघियाते स्वर में मुँह पीछे ही फेरे-फेरे पांचवें प्रेत ने बताया-मेरा नाम “कलाकार” है मैं पूर्व जन्म में एक अच्छा लेखक था पर मेरी कलम से कभी नीति, धर्म और सदाचार नहीं लिखा गया। कामुकता, अश्लीलता और फूहड़पन बढ़ाने वाला साहित्य ही लिखा मैंने, ऐसे ही संगीत, नृत्य और अभिनय का सृजन किया जो फूहड़ से फूहड़ और कुत्सायें जगाने वाला रहा हो। मैं मूर्तियाँ और चित्र एक से एक भावपूर्ण बना सकता था, किन्तु उनमें भी कुरुचि वर्द्धक वासनायें और अश्लीलतायें गढ़ी। सारे समाज को भ्रष्ट करने का अपराध लगाकर मुझे यमराज ने प्रेत बना दिया। किन्तु मैं यहाँ भी इतना लज्जित हूँ कि अपना मुंह इन प्रेत भाइयों को भी नहीं दिखा सकता।
आचार्य महीधर ने अनुमान लगाया अपने अपने कर्त्तव्यों से गिरे हुये यह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और कलाकार कुल पाँच ही थे इन्हें प्रेतयोनि का कष्ट भुगतना पड़ रहा है। और आज जबकि सृष्टि का हर ब्राह्मण, हर क्षत्रिय, वैश्य और प्रत्येक शूद्र कर्त्तव्यच्युत हो रहा है, हर कलाकार अपनी कलम और तूलिका से हित-अनहित की परवाह किये बिना वासना की गन्दी कीचड़ उछाल रहा है, तब आने वाले कल में प्रेतों की संख्या कितनी भयंकर होगी। कुल मिलाकर सारी धरती नरक में ही बदल जायेगी। सो लोगों को कर्त्तव्य जागृत करना ही आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। अब तक प्रातःकाल हो चुका था आचार्य महीधर यह संकल्प लेकर चल पड़े पाँचों प्रेतों की कहानी सुनकर मार्ग भ्रष्ट लोगों को सही पथ प्रदर्शन करने लगे।

Tuesday, July 22, 2025

एक दिल दहला देने वाली हकीकत

एक घर के मोबाइल नम्बर पर “रॉंग नम्बर” से कॉल आई.. घर की एक औरत ने कॉल रिसीव की तो सामने से किसी अनजान शख्स की आवाज़ सुनकर उसने कहा ‘सॉरी रॉंग नम्बर’ और कॉल डिस्कनेक्ट कर दी.. उधर कॉल करने वाले ने जब आवाज़ सुनी तो वो समझ गया कि ये नम्बर किसी लड़की का है, अब तो कॉल करने वाला लगातार रिडाइल करता रहता है पर वो औरत कॉल रिसीव न करती। फिर मैसेज का सिलसिला शुरू हो गया जानू बात करो न मोबाइल क्यूँ रिसीव नहीं करती..?
एक बार बात कर लो यार! उस औरत की सास बहुत मक्कार और झगड़ालू थी.. इस वाक़ये के अगले दिन जब मोबाइल की रिंग टोन बजी तो सास ने रिसीव कर लिया.. सामने से उस लड़के की आवाज़ सुनकर वो शॉक्ड रह गई, लड़का बार बार कहता रहा कि जानू! मुझसे बात क्यूँ नहीं कर रही, मेरी बात तो सुनो प्लीज़, तुम्हारी आवाज़ ने मुझे पागल कर दिया है, वगैरह वगैरह… सास ने ख़ामोशी से सुनकर मोबाइल बंद कर दिया जब रात को उसका बेटा घर आया तो उसे अकेले में बुलाकर बहू पर बदचलनी और अंजान लड़के से फोन पर बात करने का इलज़ाम लगाया
पति ने तुरन्त बीवी को बुलाकर बुरी तरह मारना शुरू कर दिया, जब वो उसे बुरी तरह पीट चुका तो माँ ने मोबाइल उसके हाथ में दिया और कहा कि इसी में नम्बर है तुम्हारी बीवी के यार का.. पति ने कॉल डिटेल्स चेक की फिर एक एक करके सारे अनरीड मैसेज पढ़े तो वो गुस्से में बौखला गया.. उसने तुरन्त बीवी को रस्सी से बाँधा और फिर से बेतहाशा पीटने लगा और उधर माँ ने लड़की के भाई को फोन किया और कहा कि हमने तुम्हारी बहन को अपने यार से मोबाइल पर बात करते और मैसेज करते हुवे पकड़ लिया है.. जिसने तुम्हारी इज़्ज़त की धज्जियां बिखेर दीं।
खबर सुनकर तुरन्त उस लड़की का भाई और उसकी माँ भी वहां पहुँच गये.. पति और सास ने इल्जाम लगाये और ताने मारे तो लड़की के भाई ने भी उसे बालों से पकड़कर खूब पीटा.. लड़की कसमें खाती रही, झूठे इलज़ाम के लिये चीखती चिल्लाती रही, अपनी सफाई देती रही जाहिल और शैतान सास और पति के आगे बेबस रही… लड़की की माँ ने अपनी बेटी से कहा कि भारतीय होकर गीता पर हाथ रखकर कसम खाओ, तो उसने नहाकर फ़ौरन सबके सामने गीता पर हाथ रखकर कसम भी खाई, मगर शैतान सास ने इसे भी नकार दिया और कहा कि जो अपने पति से गद्दारी कर सकती है तो उसके लिये गीता की कसम भी कोई मुश्किल काम नहीं है।
इसके साथ पति ने वो सारे मैसेजेस उसके भाई को दिखाये जो लड़के ने लड़की को करने के लिये किये थे.. सास ने मक्कार और चालाक कहकर आग पर घी डाल दिया.. लड़की के भाई को गुस्सा आई और उसका पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा, उसने तुरन्त पिस्तौल निकाली और लड़की के सर में चार गोलियां दाग दी और इस तरह एक “रॉंग नंबर” ने एक खानदान उजाड़ दिया.. 3 बच्चों को अनाथ कर दिया.. जब लड़की के दूसरे भाई को खबर हुई तो उसने अपने भाई भाभी और बहन के शौहर और सास के साथ उस अनजान नम्बर पर FIR दर्ज कर दी।
पुलिस साइबर ने जब मोबाइल की जांच की तो मालूम हुवा कि लड़की ने सिर्फ एक बार उस रॉंग नम्बर को रिसीव किया था, इसके बाद उस नम्बर से वो कॉल और मैसेजेस के जरिये लड़की को फंसाने के चक्कर में लगा रहा.. सारी बातें साफ़ होने के बाद जब दूसरे भाई को खबर हुई जिसने बहन को गोली मारी थी तो उसने उसी वक़्त जेल में ख़ुदकुशी कर ली और रॉंग नम्बर मिलाने वाले लड़के को पुलिस ने पकड़कर हवालात में डाल दिया और इस तरह एक “रॉंग नम्बर” ने सिर्फ तीन दिनों में एक भारतीय दामन औरत को उसके 3 बच्चों से पूरी ज़िन्दगी के लिये दूर कर दिया और अगले 13 दिनों के अन्दर 3 बच्चे अनाथ और 2 खानदान तबाह और बर्बाद हो गये।
ज़रा सोचिये और बताइये कि कसूरवार कौन
1- रॉंग कॉल वाला
2- मक्कार सास
3- शक्की और जाहिल पति
4- गैरतमंद भाई
5- मोबाइल
आप सब लोग गौर से सोच कर जवाब जरूर दीजियेगा और वो पति और भाई लोगों से सर्वनीय निवेदन है की किसी भी औरत पर इल्जाम लगाने से पहले सच्चाई जान ले तब फैसला करे क्योंकि पत्निया और बेटियां ऐसे नहीं होती। और वो लोग जो रांग नंबर जान कर भी किसी महिला के पास फोन बार बार करते है, उन्हें खुद समझना चाहिए की हमारे घर मे भी एक माँ बहन बेटी है। सब का सम्मान करे।

Sunday, July 20, 2025

संत श्री लालाचार्य जी

संत श्री लालाचार्य जी महाराज महान संत हो गए। ये परम वैष्णव संत श्री रामानुजाचार्य जी के जामाता थे। वैष्णव वेश के प्रति उनकी अनन्य निष्ठा थी।वे वैष्णव वेशधारी प्रत्येक संत को अपना भाई मानते थे और उसका उसी प्रकार आदर सत्कार करते थे।
श्री लालाचार्यजी के इस भाव को उनकी धर्मपत्नी तो जानती थी, परन्तु साधारण लोग भला इसे क्या समझे। एक दिन श्री लालाचार्यजी की पत्नी जल भरने के लिए नदी तट पर गयी हुई थी उनके साथ उनकी कुछ सहेलियां भी थी, जो श्री लालाचार्याजी की वैष्णव निष्ठा के कारण उनका मज़ाक उड़ाया करती थी।
उसी समय किसी वैष्णव संत का शरीर बहता हुआ उधर नदी किनारे आया, उसके शरीर पर वैष्णव चिन्ह अंकित थे और वह तुलसी कंठी माला धारण किये हुए थे।
सहेलियों ने व्यंग करते हुए पूछा, इन्हें देखकर ठीक से पहचान लो, तुम्हारे जेठ है या देवर। पत्नी ने घर आकर श्री लालाचार्य जी से यह बात कही, ये बात सुनकर वे रोने लगे, अंत मे ये सोच कर अपने मन को शांत किया ये मेरे भाई भगवद्भक्त थे, वैष्णव संत थे इन्हें भगवद्धामकी प्राप्ति हुई है। तत्पश्चात उनका शव प्राप्तकर अंतिम क्रिया करने के उद्देश्य से वे नदी किनारे आये और विधि-विधानपूर्वक उनकी क्रिया की। तेरहवी के दिन श्री लालाचार्याजी ने उन वैष्णव संत के निमित्त ब्राह्मण भोजन का आयोजन किया और उसके हेतु स्थानीय ब्राह्मणों को आमंत्रित किया,परन्तु उन ब्राह्मणों ने सोचा न जाने किसका शव उठा लाये, उसकी जाति गोत्र का कुछ पता नही और उसके तेरहवी में हमें खिलाकर भ्रष्ट कर देना चाहते है।
अतः इसके घर कोई ब्राह्मण नहीं जाना चाहिए तथा जो ब्राह्मण परिचय का आये उसे भी ये सब बताकर रोक देना चाहिए।
जब श्री लालाचार्यजी को यह पता चला तो वह बहुत चिंतित हुए और उन्होंने ये सब बातें श्री रामानुजाचार्य से कही। श्रीरामानुजाचार्य जी ने कहा की इस विषय में तुम्हे चिंता नहीं करनी चाहिए, वे ब्राह्मण अज्ञानी है और उन्हें वैष्णव-प्रसाद के महात्म्य का ज्ञान नहीं है। यह कहकर उन्होंने दिव्य वैष्णव पार्षदों का आवाहन किया और वैष्णव-प्रसाद की महिमा जानने वाले वे दिव्य पार्षद ब्राह्मण वेश में उपस्थित होकर श्री लालाचार्याजी के घर की ओर जाने लगे।उन्हें देख कर वहां के स्थानीय ब्राह्मणों ने उन्हें रोकना चाहा, परन्तु उनके दिव्य तेज से अभिभूत होकर खड़े-के -खड़े रह गए और आपस में विचार किया के जब ये लोग भोजन करके बाहर आएंगे तब हम लोग इनकी हंसी उड़ायेंगे की कहो, किसके श्राद्ध के ब्राह्मण भोजन में आप गए थे?
क्या उसके कुल-गोत्र का भी आप सबको ज्ञान है? इधर ब्राह्मण लोग ऐसा सोच ही रहे थे, उधर ब्राह्मण वेशधारी पार्षद श्री लालाचार्याजी के आंगन से भोजन कर आकाश मार्ग से श्री वैकुंठधामके लिए प्रस्थान कर गए। ब्राह्मणों ने जब उन्हें आकाश मार्ग से जाते देखा तो उनकी आँखें खुली रह गयी,उन्हें अपनी भूल का पछतावा हुआ। वे लोग आकर श्री लालाचार्याजी महाराज के चरणोंमें गिर पड़े और क्षमा मांगते हुए रोने लगे।
संत श्री लालाचार्याजी महाराज तो परम वैष्णव थे, उन्हें उन लोगो पर किंचित रोष न था। वे बोले, आप सब ब्राह्मण है, इस प्रकार कहकर मुझे लज्जित न करे। आप सबकी कृपासे मुझे वैष्णव पार्षदों के दर्शन हुए, अतः मैं तो स्वयं आपका कृतज्ञ हूँ। ब्राह्मणों को अब श्री लालाचार्यजी के साधुत्व और सिद्धत्व में रंचमात्र भी संदेह नहीं रह गया। उन सब ने श्री लालाचार्याजी के यहाँ जाकर भग्वाद्प्रसाद के रूप में पृथ्वी पर गिरे हुए अन्नकणों को बीन-बीनकर खाया और आनंदमग्न हो गए।उन सब ने आचार्य श्री का शिष्यत्व ग्रहण किया और वैष्णव दीक्षा प्राप्त की।

लक्ष्मण जी के पाँच प्रश्न


मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा॥
कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥
      भावार्थ:-हे देव! मुझे समझाकर वही कहिए, जिससे सब छोड़कर मैं आपकी चरणरज की ही सेवा करूँ। ज्ञान, वैराग्य और माया का वर्णन कीजिए और उस भक्ति को कहिए, जिसके कारण आप दया करते हैं॥

ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ।
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ॥
      हे प्रभो! ईश्वर और जीव का भेद भी सब समझाकर कहिए, जिससे आपके चरणों में मेरी प्रीति हो और शोक, मोह तथा भ्रम नष्ट हो जाएँ॥ प्रत्येक जिज्ञासु के ये पांच प्रश्न होते हैं।

१- ज्ञान किसको कहते हैं ?
२- वैराग्य किसको कहते हैं ?
३- माया का स्वरूप बतलाइये ?
४- भक्ति के साधन बताइये कि भक्ति कैसे प्राप्त हो ?
५- जीव और ईश्वर में भेद बतलाइये ?

एक साधक के द्वारा एक सिद्ध को ये पाँच प्रश्न हुए हैं -
भगवान श्री राम लक्ष्मण जी की बात सुनकर कहते हैं -
थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई । सुनहु तात मति मन चित्त लाई ।।
अर्थात् थोड़े में ही सब समझा देता हूँ। यही विविधता है कि थोड़े में ही ज्यादा समझा देता हूँ -
पहले भगवान ने माया वाला सवाल उठाया है क्योंकि पहले माया को जान लेना चाहिए। भगवान कहते हैं कि माया वैसे तो अनिर्वचनीय है लेकिन फिर भी -
मैं अरु मोर तोर तैं माया । जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ।।

मैं, मेरा और तेरा - यही माया है, केवल छह शब्दों में बता दिया।

मैं अर्थात् जब '' मैं '' आता है तो '' मेरा '' आता है और जहां '' मेरा '' होता है वहां '' तेरा '' भी होता है - तो ये भेद माया के कारण होता है।

जैसे चाचा जी घर में सेब लाये तो अपने बेटे को दो सेब दे दिए और बड़े भाई का बेटा आया तो उसे एक सेब दे दिया। कारण कि ये मेरा बेटा है और वो बड़े भाई का बेटा है। बस मेरा और तेरा - और ज्यादा विस्तार में जाने की आवश्यकता ही नहीं है, यह भेद माया के कारण ही होता है।

उस माया के भी दो भेद बताये हैं - एक विद्या और दूसरी अविद्या
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा ।।
एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ।।

अविद्या रूपी माया जीव को जन्म-मरण के चक्कर में फंसाती है, भटकता रहता है जीव जन्म अथवा मृत्यु के चक्कर में। और दूसरी विद्या रूपी माया मुक्त करवाती है।

दूसरा प्रश्न - ज्ञान किसको कहते हैं ? हम ज्ञानी किसे कहेंगे ?

जो बहुत प्रकांड पंडित हो, शास्त्रों को जानता हो, बड़ा ही अच्छा प्रवचन कर सकता हो, दृष्टांत के साथ सिद्धांत को समझाये, संस्कृत तथा अन्य बहुत सी भाषाओं का जिसे ज्ञान हो - ज्ञानी !!!!

पंडित और ज्ञानी में अन्तर है, उसे पंडित कह सकते हैं लेकिन ज्ञानी नहीं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने बड़ी अद्भुत व्याख्या की है ज्ञानी की -

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं । देख ब्रह्म समान सब माहीं ।।

ज्ञान उसको कहते हैं - जहाँ मान न हो अर्थात् जो मान-अपमान के द्वन्द्व से रहित हो और सबमें ही जो ब्रह्म को देखे । ज्ञान के द्वारा तो ईश्वर की सर्वव्यापकता का अनुभव हो जाता है तो सबमें भगवान को देखने लग जाता है।

तीसरा प्रश्न - वैरागी किसको कहेंगे ?

हमारी परिभाषा यह है कि भगवें कपड़े पहने हो या फिर संसार छोड़ कर भाग गया हो, सिर पर जटायें हो, माथे पर तिलक हो, हाथ में माला लिए हुए हो - वैरागी !!!!

भगवान श्री राम कहते हैं -

कहिअ तात सो परम बिरागी । तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ।।

परम वैरागी वह है, जिसने सिद्धियों को तृन अर्थात् तिनके के समान तुच्छ समझा। कहने का तात्पर्य है कि जो सिद्धियों के चक्कर में नहीं फंसता और तीनि गुन त्यागी अर्थात् तीन गुण प्रकृति का रूप यह शरीर है - उससे जो ऊपर उठा अर्थात् शरीर में भी जिसकी आसक्ति नहीं रही - वही परम वैरागी है।

चौथा प्रश्न - जीव और ईश्वर में भेद -

दोहा - माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव ।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव ।।

अर्थात् जो माया को, ईश्वर को और स्वयं को नहीं जानता - वह जीव और जीव को उसके कर्मानुसार बंधन तथा मोक्ष देने वाला - ईश्वर।

पाँचवाँ प्रश्न - भक्ति के साधन कौन से हैं, जिससे भक्ति प्राप्त हो जाए ?

उत्तर - भगवान श्री राम कहते हैं -

भगति कि साधन कहउँ बखानी । सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी ।।
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती । निज निज कर्म निरत श्रुति रीती ।।

एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा । तब मम धर्म उपज अनुरागा ।।
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाही । मम लीला रति अति मन माहीं ।।

भक्ति के साधन बता रहा हूँ, जिससे प्राणी मुझे बड़ी सरलता से पा लेता है। सबसे पहले विप्रों के चरण विपरें। विप्र का अर्थ है, जिसका जीवन विवेक प्रदान हो, ऐसे विप्रों के चरण विपरें। वेदों के बताये मार्ग पर चलें, अपने कर्तव्य-कर्म का पालन करें। इससे विषयों में वैराग्य होगा तथा वैराग्य उत्पन्न होने पर भगवान के ( भागवत ) धर्म में प्रेम होगा। तब श्रवणादिक नौ प्रकार की भक्तियाँ आ जाएंगी और भगवान की लीलाओं में प्रेम हो जाएगा।

संतों के चरणों में प्रेम हो, मन, कर्म और वचन से भगवान का भजन करे तथा गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सबमें मुझे ही देखे, सबको वंदन करे, सबकी सेवा करे- इतना कर ले, तो समझो मिल गयी भक्ति !

अब भक्ति मिली है या नहीं, इसका हमें कैसे पता चले ????

तो इसके लिये दो चौपाई और बतायी हैं -
मम गुन गावत पुलक सरीरा।गदगद गिरा नयन बह नीरा ।।
काम आदि मद दंभ न जाकें । तात निरंतर बस मैं ताकें ।।
     मेरे गुणों को गाते समय जिसका तन पुलकायमान हो उठे, शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से पानी बहने लगे।
लेकिन केवल इतना ही काफी नहीं है। जिसका शरीर पुलकित हो उठे, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से नीर बहने लगे, उसे best acting का award अवश्य मिलेगा, लेकिन भगवान का भक्त नहीं कहलायेगा। उसके लिए एक चौपाई और कही है, वो बड़े काम की है -

 काम आदि मद दंभ न जाकें
        जिसमें काम ( विकार ) न हो, मद ( अहंकार ) न हो और सबसे बड़ी बात दंभ पाखंड न हो - वही भक्त है। भगवान ऐसे भक्त के सदा वश में रहते हैं।
दोहा - बचन कर्म मन मोरि गति भजन करहिं नि:काम ।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम ।।
   भगवान कहते हैं - जिसको मन, कर्म और वचन से मेरा ही आश्रय है तथा जो निष्काम भाव से मेरा भजन करता है, उसके हृदय में मैं सदा विश्राम करता हूँ।

मनुष्य योनि का महत्व 
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।
   भावार्थ:-मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है।
 सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं
       भावार्थ:-ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते है।

शिवजी का दुग्धाभिषेक क्यों

महर्षि और्व जंगल में तपस्या कर रहे थे।
उनके कठोर तप से देवराज इंद्र को भय हो गया, कि मेरा सिंहासन तो नहीं ले लेंगे। इंद्रदेव दौडे दौडे शिवजी के पास गए और बोले प्रभु हमारे इंद्रासन को बचाइए। भगवान शंकर बोले ठीक है। जब महर्षि पूजा का सामान इकट्ठा करने वन में गए, तो पीछे से शिवजी ने अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से महर्षि और्व के आश्रम को दग्ध कर दिया। उनके आश्रम के वृक्ष जल गए, पर्ण कुटी जल गई। महर्षि वापस आए तो देखा आश्रम पूर्ण रूपेण जल गया। तो महर्षि को क्रोध आ गया और श्राप दिया जिसने ऐसा किया है, कोई भी क्यों ना हो वह निरंतर अग्नि के दाह से पीड़ित रहे।
भगवान भोले शंकर कैलाश पर बैठे थे, तो श्राप के कारण उनके सारे शरीर में दाह उत्पन्न हो गया पूरा शरीर में अग्नि से चल रहा था। तीनों लोक में शंकर जी के दाह को कोई भी शांत नहीं कर सका। अंत में बद्रीकाआश्रम में भगवान बद्रीनारायण से दाह शांत करने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि आप ब्रह्म श्राप ग्रसित हो, पूरे ब्रह्मांड में कोई आपका दाह शांत नहीं कर सकता। केवल गायें ही ऐसी है जो आपके ताप को शांत कर सकती है, और ब्रह्म श्राप से मुक्ति दिला सकती है, तो गायों का स्मरण करो। तो शिव जी ने गोस्मरण किया, तो बद्रीकाश्रम क्षेत्र से 77 गायें उत्पन्न हुई। और उन्होंने अपने थनों से शिवजी पर दूध की धार गिराने लगी, जैसे ही 77 गायों के दूध से अभिषेक हुआ, तत्काल श्राप के कारण जो जलन हो रही थी, वह शांत हो गई। तभी शिवजी ने कहा कि जो भी मेरे ऊपर गाय के दूध से अभिषेक करेगा, उसके सब ताप शांत हो जाएंगे। तभी से गाय के दूध का अभिषेक शिवजी पर होने लगा।

Friday, July 18, 2025

हनुमान जी की माया सत्य घटना

सन् 1974-75 की बात है जयपुर के पास हनुमान जी का मंदिर है जहाँ हर साल मेला लगता है और मेले में जयपुर के आस- पास के देहातों से भी बहुत लोग आते हैं। वहाँ मेले में हलवाई आदि की दुकानें भी होती हैं।एक लोभी हलवाई के पास एक साधु बाबा आये। उन्होंने हलवाई के हाथ में चवन्नी रखी और कहाः "पाव भर पेड़े दे दे।
हलवाईः "महाराज ! चार आने में पाव भर पेड़े कैसे मिलेंगे ? पाव भर पेड़े बारह आने के मिलेंगे, चार आने में नहीं।
साधुः हमारे राम के पास तो चवन्नी ही है। भगवान तुम्हारा भला करेगा, दे दे पाव भर पेड़े।
हलवाईः "महाराज ! मुफ्त का माल खाना चाहते हो ? बड़े आये हो.... पेड़े खाने का शौक लगा है ?
साधु महाराज ने दो-तीन बार कहा किन्तु हलवाई न माना और उस चवन्नी को भी एक गड्डे में फेंक दिया।
साधु महाराज बोलेः "पेड़े नहीं देते हो तो मत दो लेकिन चवन्नी तो वापस दो।
हलवाईः "चवन्नी पड़ी है गड्डे में। जाओ, तुम भी गड्डे में जाओ।
साधु ने सोचाः "अब तो हद हो गयी ! फिर कहाः तो क्या पेड़े भी नहीं दोगे और पैसे भी नहीं दोगे ?
नहीं दूँगा। तुम्हारे बाप का माल है क्या ?
साधु तो यह सुनकर एक शिलापर जाकर बैठ गये।
संकल्प में परिस्थितियों को बदलने की शक्ति होती है। जहाँ शुभ संकल्प होता है वहाँ कुदरत में चमत्कार भी घटने लगते हैं।
रात्रि का समय होने लगा तो दुकानदार ने अपना गल्ला गिना। चार सौ नब्बे रूपये थे, उन्हें थैली में बाँधा और पाँच सौ पूरे करने की ताक में ग्राहकों को पटाने लगा।
इतने में कहीं से चार तगड़े बंदर आ गये। एक बंदर ने उठायी चार सौ नब्बे वाली थैली और पेड़ पर चढ़ गया।
दूसरे बंदर ने थाल झपट लिया।
तीसरे बंदर ने कुछ पेड़े ले जाकर शिला पर बैठे हुए साधु की गोद में रख दिये और चौथा बंदर इधर से उधर कूदता हुआ शोर मचाने लगा।
यह देखकर दुकानदार के कंठ में प्राण आ गये। उसने कई उपाय किये कि बंदर पैसे की थैली गिरा दे। जलेबी-पकौड़े आदि का प्रलोभन दिखाया किन्तु वह बंदर भी साधारण बंदर नहीं था। उसने थैली नहीं छोड़ी तो नहीं छोड़ी।
आखिर किसी ने कहा कि जिस साधु का अपमान किया था उसी के पैर पकड़ो।
हलवाई गया और पैरों में गिरता हुआ बोलाः "महाराज ! गलती हो गयी।
संत तो दयालु होते हैं।
साधुः गलती हो गयी है तो अपने बाप से माफी ले। जो सबका माई-बाप है उससे माफी ले। मैं क्या जानूँ ?
जिसने भेजा है बंदरों को उन्हीं से माफी माँग।
हलवाई ने जो बचे हुए पेड़े थे वे लिए और गया हनुमान जी के मंदिर में।
भोग लगाकर प्रार्थना करने लगाः "जै जै हनुमान गोसाईं.... मेरी रक्षा करो....।
कुछ पेड़े प्रसाद करके बाँट दिये और पाव भर पेड़े लाकर उन साधु महाराज के चरणों में रखे।
साधुः "हमारी चवन्नी कहाँ है ? गड्डे में गिरी है। 
साधुः मुझे बोलता था कि गड्डे में गिर। अब तू ही गड्डे में गिर और चवन्नी लाकर मुझे दे। हलवाई ने गड्डे में से चवन्नी ढूँढकर, धोकर चरणों में रखी।
साधु ने हनुमान जी से प्रार्थना करते हुए कहाः "प्रभो ! यह आपका ही बालक है। दया करो। देखते-देखते बंदर ने रूपयों की थैली हलवाई के सामने फैंकी।लोगों ने पैसे इकट्ठे करके हलवाई को थमाये। बंदर कहाँ से आये, कहाँ गये ? यह पता न चल सका।