महामंत्र > हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे|हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे||

Monday, September 15, 2025

राजा और मंत्री

एक राजा जिसका बहुत बडा राज्य था। कोई कमी नहीं थी जो भी हुक्म करते वही हो जाता था। लेकिन राजा में एक आदत थी कि वह जो भी कोई थोड़ी सी गलती करता उसे तुरंत दस बडे खुंखार कुत्तों के सामने डालकर उसे कुत्तों से नुचवाता। राजा बडे गुस्से वाला था।
राजा की इस आदत से सभी परेशान थे। राजा का मंत्री भी राजा की इस आदत की आलोचना करता था। एक दिन उसी मंत्री से कोई गलती हो गयी। राजा को गलती का पता चला तो राजा ने तुरंत हुक्म दिया कि जाओ मंत्री को कुत्तों के सामने ले जाओ।
मंत्री ने राजा से गलती मानी, माफी मांगी लेकिन राजा ने कुछ नहीं सुना और कहा कि जो कह दिया सो कह दिया और सिपाहियों से कहा ले जाओ कुत्तों के बाडे में। मंत्री ने कहा ठीक है राजा जी लेकिन मेरी आखिरी इच्छा तो मान लो। राजा ने कहा ठीक है बताओ अपनी आखिरी इच्छा। मंत्री ने कहा मुझे दस दिन की महौलत दे दीजिए बस। राजा ने कहा ठीक है दस दिन की महौलत दे देते हैं।
लेकिन ग्यारहवें दिन सजा जरूर मिलेगी। मंत्री दस दिन तक राजा के पास नहीं आया। और ग्यारहवें दिन राजा के सामने पेश हो गया। राजा ने मंत्री को देखा और सिपाहियों से कहा जो सजा रखी थी मंत्री के लिए उसे पूरी की जाए। सिपाही मंत्री को कुत्तों के बाडे में लेकर गये, कुत्तों को भी खोल दिया गया। लेकिन कुत्ते मंत्री पर प्रहार करने के बजाय मंत्री से प्यार से पेश आ रहे थे।
यह देखकर राजा चौंक गया कि जिन कुत्तों को प्रहार करने के लिए ट्रेन किया गया है वे इतने प्यार से पेश आ रहे हैं। राजा ने मंत्री से कहा कि ये चमत्कार कैसे हो गया! इन कुत्तों को क्या हो गया है। मंत्री ने जवाब दिया कि इन दस दिनों में मैंने इन कुत्तों की बहुत सेवा की है। इन्हें खाना खिलाया, नहलाया अब ये कुत्ते जान चुके हैं कि मैं इनके लिए कुछ अच्छा करता हूँ ना कि बुरा। ये मुझ पर प्रहार नहीं करेंगे। मैंने आपकी इतने दिनों से सेवा की है, फिर भी आप मेरी एक गलती को माफ नहीं कर सके। आपसे ज्यादा अच्छे तो ये कुत्ते हैं जो अच्छा और बुरे को पहचानते हैं। राजा यह सब देखकर बड़ा शर्मिन्दा हुआ।

शिक्षा:-
हमें हमेशा सोच समझ कर फैसले लेने चाहिए।किसी की एक गलती को लेकर ही उसे जिन्दगी भर के लिए सजा नहीं देनी चाहिये बल्कि उसे माफ करने की हिम्मत रखनी चाहिए..!!

Friday, September 12, 2025

अहंकारी पीपल

एक बहुत ही घना जंगल था। उस जंगल में एक आम और एक पीपल का भी पेड़ था। एक बार मधुमक्‍खी का झुण्‍ड उस जंगल में रहने आया, लेकिन उन मधुमक्‍खी के झुण्‍ड को रहने के लिए एक घना पेड़ चाहिए था। रानी मधुमक्‍खी की नजर एक पीपल के पेड़ पर पड़ी तो रानी मधुमक्‍खी ने पीपल के पेड़ से कहा- हे पीपल भाई, क्‍या में आपके इस घने पेड़ की एक शाखा पर अपने परिवार का छत्‍ता बना लुं?
पीपल को कोई परेशान करे यह पीपल को पसंद नहीं था। अंहकार के कारण पीपल ने रानी मधुमक्‍खी से गुस्‍से में कहा- हटो यहाँ से, जाकर कहीं और अपना छत्‍ता बनालो। मुझे परेशान मत करो।
पीपल की बात सुन कर पास ही खड़े आम के पेड़ ने कहा- पीपल भाई बना लेने दो छत्‍ता। ये तुम्‍हारी शाखाओं में सुरक्षित रहेंगी।
पीपल ने आम से कहा- तुम अपना काम करो, इतनी ही चिन्‍ता है तो तुम ही अपनी शाखा पर छत्‍ता बनाने के लिए क्‍यों नही कह देते?
इस बात से आम के पेड़ ने मधुमक्‍खी रानी से कहा- हे रानी मक्‍खी, अगर तुम चाहो तो तुम मेरी शाखा पर अपना छत्‍ता बना लो।
इस पर रानी मधुमक्‍खी ने आम के पेड़ का आभार व्‍यक्‍त किया और अपना छत्‍ता आम के पेड़ पर बना लिया।
समय बीतता गया और कुछ दिनों बाद जंगल में कुछ लकडहारे आए उन लोग को आम का पेड़ दिखाई दिया और वे आपस में बात करने लगे कि इस आम के पेड़ को काट कर लकड़ियां ले लिया जाये।
वे लोग अपने औजार लेकर आम के पेड़ को काटने चले तभी एक व्‍यक्ति ने ऊपर की और देखा तो उसने दूसरे से कहा- नहीं, इसे मत काटो। इस पेड़ पर तो मधुमक्‍खी का छत्‍ता है, कहीं ये उड़ गई तो हमारा बचना मुश्किल हो जायेगा।
उसी समय एक आदमी ने कहा क्‍यों न हम लोग ये पीपल का पेड़ ही काट लिया जाए इसमें हमें ज्‍यादा लकड़ियां भी मिल जायेगी और हमें कोई खतरा भी नहीं होगा।
वे लोग मिल कर पीपल के पेड़ को काटने लगे। पीपल का पेड़ दर्द के कारण जोर-जोर से चिल्‍लाने लगा, बचाओ-बचाओ-बचाओ…
आम को पीपल की चिल्‍लाने की आवाज आई, तो उसने देखा कि कुछ लोग मिल कर उसे काट रहे हैं।
आम के पेड़ ने मधुमक्‍खी से कहा, हमें पीपल के प्राण बचाने चाहिए… आम के पेड़ ने मधुमक्‍खी से पीपल के पेड़ के प्राण बचाने का आग्रह किया तो मधुमक्‍खी ने उन लोगो पर हमला कर दिया और वे लोग अपनी जान बचा कर जंगल से भाग गए।
पीपल के पेड़ ने मधुमक्‍खीयों को धन्‍यवाद दिया और अपने आचरण के लिए क्षमा मांगी।
तब मधुमक्‍खीयों ने कहा, धन्‍यवाद हमें नहीं, आम के पेड़ को दो जिन्‍होंने आपकी जान बचाई है, क्‍योंकि हमें तो इन्‍होंने कहा था कि अगर कोई बुरा करता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम भी वैसा ही करें।अब पीपल को अपने किये पर पछतावा हो रहा था और उसका अंहकार भी टूट चुका था। पीपल के पेड़ को उसके अंहकार की सजा भी मिल चुकी थी।

शिक्षा:-
हमें कभी अंहकार नहीं करना चाहिए। जितना हो सके, लोगो के काम ही आना चाहिए, जिससे वक्‍त पड़ने पर तुम भी किसी से मदद मांग सको। जब हम किसी की मदद करेंगे तब ही कोई हमारी भी मदद करेगा।

Thursday, September 11, 2025

श्राद्ध - रहस्य

|| श्री जानकीवल्लभो विजयते ||
डॉ राजदेव शर्मा


          श्राद्धकर्म भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख अंग है | लौकिक, पारलौकिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि समृद्धि के उपयुक्त देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकारादी की स्वस्थ - सुन्दर चेष्टाओं एवं हलचलों की संज्ञा " संस्कृति " है | किसी भी राष्ट्र की संस्कृति की पहचान मनोरम क्रियाओं एवं आचरणों से होती है | भारतीय संस्कृति आचारमूलक है | हमारी संस्कृति का निर्माण जिन तत्वों से हुआ है | वे हैं - साचार, सद्विचार, वर्णाश्रमधर्म का पालन, वतारवाद, योग या भक्तिमूलक उपासना पद्धति, शास्त्रों में आस्था, पुनर्जन्म में विश्वास, देव - लोक और पितृ - लोक की स्वीकृति तथा मोक्ष की प्राप्ति श्राद्ध कर्म का सम्बन्ध भी इन्हीं सांस्कृतिक मूल्यों या आचरणों से है |
            " श्राद्ध " शब्द का ग्रहण दो अर्थों में किया जाता है | इसका सामान्य अर्थ है | श्रद्धापूर्वक  कर्म - सम्पादन: श्रद्धया कृतं सम्पादितमिदिम | जिन कर्मों के द्वारा मनुष्य तुच्छ " स्व " से ऊपर " पर " की चेतना से जुड़ जाता है, अहं की विगलित कर इदं में प्रवेश करता है तथा व्यष्टि को समष्टि में तिरोहित कर देता है, उन्हें हम श्राद्ध कहते हैं | वस्तुत: यह मनुष्य की उदार एवं विराट भावनाओं अथवा आचरणों का प्रतीक है | यह चारित्रिक उत्कर्ष है ; करुणा, मैत्री, दान - दक्षिणा एवं मांगल्य का संचार है | अपने प्रिय पूर्वजों एवं पूज्यजनों का सम्मान मनुष्य को कृतज्ञ बनाता है, जिससे वह सब में गुण दर्शन करता है | वह सभी भूतों को आत्मवत देखता है | अत: श्राद्ध समदर्शिता का प्रतीक है | यह वह कला है जिसके माध्यम से मनुष्य पितर - पूजा के व्यास से भागवतरूप चराचर जगत को तृप्त करता है | पितृ सेवा परमात्मा के विश्वरूप की पूजा है | इस लिए ऋषियों की मान्यता है कि जो श्रद्धा सहित श्राद्ध - कर्म करता है, वह मानो ब्रह्मादि देवता के साथ - साथ पितृगण, मनुष्य, पशु, पक्षी, भूतगण आदि समस्त जगत को प्रसन्न कर देता है |
श्राद्धं श्रद्धान्वित: कूर्वन्प्रीणयत्यखिलेजगत | ( विष्णु पुराण ३ /१४ /२ ) 
                  " श्राद्ध " शब्द श्रद्धा से बना है | श्राद्ध और श्रद्धा में घनिष्ठ सम्बन्ध है | स्कन्दपुराण कि स्थापना है कि " श्रद्धा " नाम इसलिए पड़ा है | कि उस कृत्य में श्रद्धा विद्यमान है | तात्पर्य यह है कि श्राद्धकर्म में न केवल विश्वास है, प्रत्युत एक अटल - अविचल धारण है कि व्यक्ति को यह करना ही है | इसलिए श्राद्धकर्म मन अथवा चित्त की स्थिरता का द्योतक है | योगदर्शन में श्रद्धा को मन का प्रसाद या स्थैर्य ( अक्षोभ ) कहा गया है - श्रद्धा चेतस: सम्प्रसाद: | श्रद्धा से रहित श्राद्ध अर्थ हीन, व्यर्थ एवं दम्भ का रूप है | भगवान श्री कृष्ण जी का तो कथन है कि श्रद्धा रहित और संशय युक्त पुरुष नाश को प्राप्त होता है, संशय युक्त पुरुष के लिए न सुख है , न इहलोक है और न परलोक ही है - 
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति | नायंलोको स्ति न परो न सुखं संशयात्मन: || ( गीता ४/४० )
                  महाभारत शान्तिपर्व में कहा गया है कि श्रद्धा हीन कर्म व्यर्थ हो जाता है | श्रद्धालु मनुष्य साक्षात धर्म का स्वरूप है | श्रद्धा से सबकी रक्षा होती है और पापों से मुक्ति मिलती है | आत्मवादी विद्वान श्रद्धा से ही धर्म का चिंतन करते हैं और स्वर्ग को प्राप्त करते हैं | तात्पर्य ! श्रद्धा की श्रद्धा से समन्वित श्राद्ध ही फलदायक या मोक्षदायक हो सकता है | 
                   उपर्युक्त सामान्य अर्थ के अतिरिक्त श्राद्ध का एक विशेष अर्थ भी है | अपने मृत पितरों के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले कर्म - विशेष को श्राद्ध कहते हैं | देश, काल और पात्र में श्रद्धा के साथ जो भोजन पितरों के उद्देश्य से ब्राह्मणों को दिया जाय उसे श्राद्ध कहते हैं | 
देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत | पितृनुद्दिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहतम ||
( श्राद्ध प्रकाश पृ. ३ ) 
उपर्युक्त परिभाषाओं में तीन बातों का निर्देश मिलता है - ( १ ) त्याग की भावना, ( २ ) श्रद्धा का सहयोग और ( ३ ) पितृलोक की मान्यता | स्मरणीय है कि ये तीनों बिन्दु भारतीय संस्कृति के अंग है | त्याग, तापस, श्रद्धा- विश्वास, सदाचरण के साथ - साथ अन्य लोकों की मान्यता भारतीय संस्कृति के मुख्य पहलू हैं | सदगुणों एवं मानवीय मूल्यों की बातें तो अन्य देशों में भी की जाती रही है, किन्तु परलोकवाद भारतीय मनीषा की विशेष दें है | श्राद्ध का परलोकवाद से घनिष्ठ सम्बन्ध है | पितृलोक  की कल्पना से ही श्राद्धकर्म का महत्त्व है | अत: पहले लोकों की स्थिति एवं संख्या आदि पर विचार आवश्यक है | 
परलोक की कल्पना प्राय: सभी धर्मों में पायी जाती है, किन्तु भारतीय मनीषियों ने इस विषय में जीतनी गुड एवं सूक्ष्म कल्पना की है उतनी अन्य राष्ट्रों में नहीं है |
प्रधान सम्पादक -
आचार्य महेश भारद्वाज 
वृन्दावन - इन्साफ साप्ताह

Thursday, September 4, 2025

छोटी गौरैया का विश्वास

कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र को विशाल सेनाओं के आवागमन की सुविधा के लिए तैयार किया जा रहा था। उन्होंने हाथियों का इस्तेमाल पेड़ों को उखाड़ने और जमीन साफ करने के लिए किया। ऐसे ही एक पेड़ पर एक गौरैया अपने चार बच्चों के साथ रहती थी। जब उस पेड़ को उखाड़ा जा रहा था तो उसका घोंसला जमीन पर गिर गया, लेकिन चमत्कारी रूप से उसकी संताने अनहोनी से बच गई। लेकिन वो अभी बहुत छोटे होने के कारण उड़ने में असमर्थ थे।
कमजोर और भयभीत गौरैया मदद के लिए इधर-उधर देखती रही। तभी उसने कृष्ण को अर्जुन के साथ वहा आते देखा। वे युद्ध के मैदान की जांच करने और युद्ध की शुरुआत से पहले जीतने की रणनीति तैयार करने के लिए वहां गए थे।
उसने कृष्ण के रथ तक पहुँचने के लिए अपने छोटे पंख फड़फड़ाए और किसी प्रकार श्री कृष्ण के पास पहुंची।
हे कृष्ण, कृपया मेरे बच्चों को बचाये क्योकि लड़ाई शुरू होने पर कल उन्हें कुचल दिया जायेगा।
सर्व व्यापी भगवन बोले "मैं तुम्हारी बात सुन रहा हूं, लेकिन मैं प्रकृति के कानून में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
गौरैया ने कहा "हे भगवान ! मै जानती हूँ कि आप मेरे उद्धारकर्ता हैं, मैं अपने बच्चों के भाग्य को आपके हाथों में सौंपती हूं। अब यह आपके ऊपर है कि आप उन्हें मारते हैं या उन्हें बचाते हैं काल चक्र पर किसी का बस नहीं है,"
श्री कृष्ण ने एक साधारण व्यक्ति की तरह उससे बात की जिसका आशय था कि वहा ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके बारे में वो कुछ भी कर सकते थे। गौरैया ने विश्वास और श्रद्धा के साथ कहा "प्रभु, आप कैसे और क्या करते है वो मै नहीं जान सकती,"। "आप स्वयं काल के नियंता हैं, यह मुझे पता है। मैं सारी स्थिति एवं परिस्थति एवं स्वयं को परिवार सहित आपको समर्पण करती हूं।"
भगवन बोले "अपने घोंसले में तीन सप्ताह के लिए भोजन का संग्रह करो।"
गौरैया और श्री कृष्ण के सवाद से अनभिज्ञ, अर्जुन गौरैया को दूर भगाने की कोशिश करते है।गौरैया ने अपने पंखों को कुछ मिनटों के लिए फुलाया और फिर अपने घोंसले में वापस चली गई।दो दिन बाद, शंख के उद् घोष से युद्ध शुरू होने की घोषणा की गई।
कृष्ण ने अर्जुन से कहा की अपने धनुष और बाण मुझे दो। अर्जुन चौंका क्योंकि कृष्ण ने युद्ध में कोई भी हथियार नहीं उठाने की शपथ ली थी। इसके अतिरिक्त, अर्जुन का मानना था कि वह ही सबसे अच्छा धनुर्धर है। मुझे आज्ञा दें, भगवान,"अर्जुन ने दृढ़ विश्वास के साथ कहा, मेरे तीरों के लिए कुछ भी अभेद्य नहीं है।चुपचाप अर्जुन से धनुष लेकर कृष्ण ने एक हाथी को निशाना बनाया। लेकिन, हाथी को मार के नीचे गिराने के बजाय, तीर हाथी के गले की घंटी में जा टकराया और एक चिंगारी सी उड़ गई।
अर्जुन ये देख कर अपनी हसी नहीं रोक पाया कि कृष्ण एक आसान सा निशान चूक गए।क्या मैं प्रयास करू?" उसने स्वयं को प्रस्तुत किया।
उसकी प्रतिक्रिया को नजरअंदाज करते हुए, कृष्ण ने उन्हें धनुष वापस दिया और कहा कि कोई और कार्रवाई आवश्यक नहीं है। लेकिन केशव तुमने हाथी को क्यों तीर मारा? अर्जुन ने पूछा।क्योंकि इस हाथी ने उस गौरैया के आश्रय उसके घोंसले को जो कि एक पेड़ पर था उसको गिरा दिया था।कौन सी गौरैया?" अर्जुन ने पूछा। "इसके अतिरिक्त, हाथी तो अभी स्वस्थ और जीवित है। केवल घंटी ही टूट कर गिरी है! अर्जुन के सवालों को खारिज करते हुए, कृष्ण ने उसे शंख फूंकने का निर्देश दिया। युद्ध शुरू हुआ,अगले अठारह दिनों में कई जानें चली गईं। अंत में पांडवों की जीत हुई। एक बार फिर, कृष्ण अर्जुन को अपने साथ सुदूर क्षेत्र में भ्रमण करने के लिए ले गए। कई शव अभी भी वहाँ हैं जो उनके अंतिम संस्कार का इंतजार कर रहे हैं। जंग का मैदान गंभीर अंगों और सिर, बेजान सीढ़ियों और हाथियों से अटा पड़ा था।
कृष्ण एक निश्चित स्थान पर रुके और एक घंटी जो कि हाथी पर बाँधी जाती थी उसे देख कर विचार करने लगे ।अर्जुन, उन्होंने कहा, "क्या आप मेरे लिए यह घंटी उठाएंगे और इसे एक तरफ रख देंगे?
निर्देश बिलकुल सरल था परन्तु अर्जुन के समझ में नहीं आया। आख़िरकार, विशाल मैदान में जहाँ बहुत सी अन्य चीज़ों को साफ़ करने की ज़रूरत थी, कृष्ण उसे धातु के एक टुकड़े को रास्ते से हटाने के लिए क्यों कहेंगे? उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से उनकी ओर देखा। हाँ, यह घंटी," कृष्ण ने दोहराया। "यह वही घंटी है जो हाथी की गर्दन पर पड़ी थी जिस पर मैंने तीर मारा था।अर्जुन बिना किसी और सवाल के भारी घंटी उठाने के लिए नीचे झुका। जैसे ही उन्होंने इसे उठाया, , उसकी हमेशा के लिए जैसे दुनिया बदल गई, ।
एक, दो, तीन, चार और पांच। चार युवा पक्षियों और उसके बाद एक गौरैया उस घंटी के नीचे से निकले । बाहर निकल के माँ और छोटे पक्षी कृष्ण के इर्द-गिर्द मंडराने लगे एवं बड़े आनंद से उनकी परिक्रमा करने लगे। अठारह दिन पहले काटी गई एक घंटी ने पूरे परिवार की रक्षा की थी।
मुझे क्षमा करें हे कृष्ण, अर्जुन ने कहा,आपको मानव शरीर में देखकर और सामान्य मनुष्यों की तरह व्यवहार करते हुए, मैं भूल गया था कि आप वास्तव में कौन हैं।आइये हम भी तब तक इस घंटी के नीचे विश्राम करे जब तक ये हमारे लिए उठाई ना जाये !

इंद्र और तोते की कथा

देवराज इन्द्र और धर्मात्मा तोते की यह कथा महाभारत से है।कहानी कहती है,अगर किसी के साथ ने अच्छा वक्त दिखाया है तो बुरे वक्त में उसका साथ छोड़ देना ठीक नहीं।एक शिकारी ने शिकार पर तीर चलाया। तीर पर सबसे खतरनाक जहर लगा हुआ था।पर निशाना चूक गया।तीर हिरण की जगह एक फले-फूले पेड़ में जा लगा।पेड़ में जहर फैला।वह सूखने लगा।उस पर रहने वाले सभी पक्षी एक-एक कर उसे छोड़ गए।पेड़ के कोटर में एक धर्मात्मा तोता बहुत बरसों से रहा करता था। तोता पेड़ छोड़ कर नहीं गया,बल्कि अब तो वह ज्यादातर समय पेड़ पर ही रहता।दाना-पानी न मिलने से तोता भी सूख कर काँटा हुआ जा रहा था।बात देवराज इन्द्र तक पहुँची। मरते वृक्ष के लिए अपने प्राण दे रहे तोते को देखने के लिए इन्द्र स्वयं वहाँ आए।
 धर्मात्मा तोते ने उन्हें पहली नजर में ही पहचान लिया।इन्द्र ने कहा,देखो भाई इस पेड़ पर न पत्ते हैं, न फूल,न फल।अब इसके दोबारा हरे होने की कौन कहे,बचने की भी कोई उम्मीद नहीं है।जंगल में कई ऐसे पेड़ हैं,जिनके बड़े-बड़े कोटर पत्तों से ढके हैं।पेड़ फल-फूल से भी लदे हैं।वहाँ से सरोवर भी पास है।तुम इस पेड़ पर क्या कर रहे हो,वहाँ क्यों नहीं चले जाते ?तोते ने जवाब दिया,देवराज,मैं इसी पर जन्मा,इसी पर बढ़ा,इसके मीठे फल खाए।इसने मुझे दुश्मनों से कई बार बचाया। इसके साथ मैंने सुख भोगे हैं।आज इस पर बुरा वक्त आया तो मैं अपने सुख के लिए इसे त्याग दूँ।जिसके साथ सुख भोगे,दुख भी उसके साथ भोगूँगा,मुझे इसमें आनन्द है।आप देवता होकर भी मुझे ऐसी बुरी सलाह क्यों दे रहे हैं ?' यह कह कर तोते ने तो जैसे इन्द्र की बोलती ही बन्द कर दी।तोते की दो-टूक सुन कर इन्द्र प्रसन्न हुए,बोल,मैं तुमसे प्रसन्न हूँ।कोई वर मांग लो।तोता बोला,मेरे इस प्यारे पेड़ को पहले की तरह ही हरा-भरा कर दीजिए।देवराज ने पेड़ को न सिर्फ अमृत से सींच दिया,बल्कि उस पर अमृत बरसाया भी।पेड़ में नई कोपलें फूटीं।वह पहले की तरह हरा हो गया,उसमें खूब फल भी लग गए।तोता उस पर बहुत दिनों तक रहा,मरने के बाद देवलोक को चला गया।
 अपने आश्रयदाता के दुख को जो अपना दुख समझता है,उसके कष्ट मिटाने स्वयं ईश्वर आते हैं।बुरे वक्त में व्यक्ति भावनात्मक रूप से कमजोर हो जाता है। जो उस समय उसका साथ देता है,उसके लिए वह अपने प्राणों की बाजी लगा देता है।किसी के सुख के साथी बनो न बनो,दुख के साथी जरूर बनो।

Wednesday, September 3, 2025

विश्वास

एक आदमी जब भी दफ्तर से वापस आता, तो कुत्ते के प्यारे से बच्चें रोज उसके पास आकर उसे घेर लेते थे क्योंकि वो रोज उन्हें बिस्कुट देता था।
कभी 4 कभी 5 कभी 6 बच्चे रोज आते और वो रोज उन्हें पारलें बिस्कुट या ब्रेड खिलता था।
एक रात जब वो दफ़्तर से वापस आया तो बच्चो ने उसे घेर लिया लेकिन उसने देखा कि घर मे बिस्कुट ओर ब्रेड दोनो खत्म हो गए है।
रात भी काफी हो गई थी, इस वक़्त दुकान का खुला होना भी मुश्किल था, सभी बच्चे बिसकिट्स का इंतज़ार करने लगे।
उसने सोचा कोई बात नही कल खिला दूंगा, ओर ये सोचकर उसने घर का दरवाजा बंद कर लिया, बच्चे अभी भी बाहर उसका इंतजार कर रहे थे। ये देखकर उसका मन विचलित हो गया, तभी उसे याद आया की घर मे मेहमान आये थे, जिनके लिए वो काजू बादाम वाले बिस्किट लाया था।
उसने फटाफट डब्बा खोला तो उसमें सिर्फ 7-8 बिसकिट्स थे,
उसके मन मे खयाल आया कि इतने से तो कुछ नही होगा, एक का भी पेट नही भरेगा, पर सोचा कि चलो सब को एक एक दे दूंगा, तो ये चले जायेंगे।
उन बिस्किट को लेकर जब वो बाहर आया तो देखा कि सारे कुत्ते जा चुके थे, सिर्फ एक कुत्ता उसके इंतज़ार में अभी भी इस विश्वास के साथ बैठा था कि कुछ तो जरूर मिलेगा। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।
उसने वो सारे बिस्किट उस एक कुत्ते के सामने डाल दिये।
वो कुत्ता बड़ी खुशी के साथ वो सब बिस्किट खा गया और फिर चला गया। बाद में उस आदमी ने सोचा कि हम मनुषयो के साथ भी तो यही होता है, जब ईश्वर हमे देता रहता है, तब हम खुश रहते है उसकी भक्ति करते है उसके फल का इंतज़ार करते है, लेकिन भगवान को जरा सी देर हुई नही की हम उसकी भक्ति पर संदेह करने लगते है, दूसरी तरफ जो उसपर विश्वास बनाये रखता है, उसे उसके विश्वास से ज्यादा मिलता है।
इसलिये अपने प्रभु पर विश्वास बनाये रखे, अपने विश्वास को किसी भी परिस्थिति में डिगने ना दे, अगर देर हो रही है इसका मतलब है कि प्रभु आपके लिए कुछ अच्छा करने में लगे हुए है।

Thursday, August 28, 2025

माँ की ममता

गाँव के सरकारी स्कूल में संस्कृत की क्लास चल रही थी। गुरूजी दिवाली की छुट्टियों का कार्य बता रहे थे।तभी शायद किसी शरारती विद्यार्थी के पटाखे से स्कूल के स्टोर रूम में पड़ी दरी और कपड़ो में आग लग गयी।देखते ही देखते आग ने भीषण रूप धारण कर लिया। वहां पड़ा सारा फर्निचर भी स्वाहा हो गया।
सभी विद्यार्थी पास के घरो से, हेडपम्पों से जो बर्तन हाथ में आया उसी में पानी भर भर कर आग बुझाने लगे।आग शांत होने के काफी देर बाद स्टोर रूम में घुसे तो सभी विद्यार्थियों की दृष्टि स्टोर रूम की बालकनी (छज्जे) पर जल कर कोयला बने पक्षी की ओर गयी।
पक्षी की मुद्रा देख कर स्पष्ट था कि पक्षी ने उड़ कर अपनी जान बचाने का प्रयास तक नही किया था और वह स्वेच्छा से आग में भस्म हो गया था।
सभी को बहुत आश्चर्य हुआ।
एक विद्यार्थी ने उस जल कर कोयला बने पक्षी को धकेला तो उसके नीचे से तीन नवजात चूजे दिखाई दिए, जो सकुशल थे और चहक रहे थे।उन्हें आग से बचाने के लिए पक्षी ने अपने पंखों के नीचे छिपा लिया और अपनी जान देकर अपने चूजों को बचा लिया था।
एक विद्यार्थी ने संस्कृत वाले गुरूजी से प्रश्न किया - गुरूजी, इस पक्षी को अपने बच्चो से कितना मोह था, कि इसने अपनी जान तक दे दी? गुरु जी ने तनिक विचार कर कहा - नहीं, यह मोह नहीं है अपितु माँ के प्रेम की पराकाष्ठा है, मोह करने वाला ऐसी विकट स्थिति में अपनी जान बचाता और भाग जाता। प्रेम और मोह में जमीन आसामान का फर्क है। मोह में स्वार्थ निहित होता है और प्रेम में त्याग होता है।
भगवान ने माँ को प्रेम की मूर्ति बनाया है और इस दुनिया में माँ के प्रेम से बढ़कर कुछ भी नहीं है।माँ के उपकारो से हम कभी भी उपकृत नहीं हो सकते।इसलिए दोस्तों मां के आँखों में कभी आंसू मत आने देना।
सदैव उनका ख्याल रखिये।
जय जननी जय पुण्य धरा,अनुपम तेरी परम्परा।।