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Tuesday, February 18, 2025

आओ पुण्य कमाते हैं

आओ पुण्य कमाते हैं 
घर में कुम्भ मनाते हैं 
प्रेम अपनत्व आनंद की
त्रिवेणी में परिवार संग 
डूबकी लगाते हैं
क्या हुआ जो जा न पाए 
करने कुम्भ स्नान 
क्या हुआ जो लेना पाए 
संतो से आशीर्वाद 
आओ बुजुर्गों को शीश नवाते हैं 
घर में कुम्भ मनाते हैं 
आओ हम सब मिल 
आध्यात्मिक चिंतन करते हैं 
साथ बैठ कर सब संग 
भजन कीर्तन करते हैं 
दान पुण्य आज मिल करते हैं 
घर में कुम्भ मनाते है
गंगा सा पवित्र जब मन होगा 
यमुना सा हृदय में प्रेम होगा 
सरस्वती सा जब ज्ञान होगा 
इसी त्रिवेणी संगम से 
स्वयं का कल्याण होगा 

गधे का दिमाग

एक बार की बात है जंगल के राजा शेर को बड़ी जोर की भूख लगी तो उसने लोमड़ी को आदेश दिया। मुझे कुछ खाने को लाओ वरना मैं तुझे खा जाऊंगा।घवराई लोमड़ी शिकार ढूंढने निकल पड़ी और उसे कुछ दूर पर एक तंदुरुस्त गधा मिल गया। उसने गधे से कहा शेर तुमको जंगल का राजा बनाना चाहता है , मेरे साथ तुरंत चलो। राजा बनने के लालच में गधा फौरन लोमड़ी के साथ चल पड़ा। लेकिन शेर ने जैसे ही गधे को देखा तो उस पर टूट पड़ा, गधा जान बचाकर भागा पर शेर के हमले से उसके कान कट गए। शेर के कहने पर लोमड़ी फिर गधे को मानने पहुंची तो गधे ने गुस्से में कहा तुमने मेरे साथ धोखेबाजी की , शेर तो मुझे मारने को उतावला था और उसने मेरे कान काट दिए पर तुम कह रही थी कि वो मुझे राजा बनाएगा।
लोमड़ी ने गधे से कहा तुम समझदार होकर बेवकूफों की तरह बातें मत करो, शेर ने तुम्हारे कान इसलिए हटाएं हैं ताकि तुम्हारे सिर पर मुकुट अच्छे से फिट हो सके अब चलो तुरंत ताज पहनने के लिए , मुहूर्त निकला जा रहा है ।
 गधे ने सोचा यार ये बात तो लोमड़ी बिलकुल सही कह रही है, वाकई बड़े कानों की वजह से मुकुट फिट नहीं होता। इसतरह वो लोमड़ी की बातों में आकर फिर शेर के पास चल पड़ा‌। शेर ने फिर गधे को देखते ही हमला किया, गधा फिर भागा पर इस बार शेर के हमले से उसकी पूंछ कट गई। शेर के भय से लोमड़ी फिर गधे को लेने पहुंची ।
गधे ने तमतमाते हुए कहा तुम सफेद झूठ बोल रही हो मुझे मरवाने का प्लान कर रही हो और कहती हो शेर मुझे राजा बनाना चाहता है शेर ने इस बार मेरी पूंछ काट डाली, अगर मैं नहीं भागता तो इस बार मर जाता ।
लोमड़ी ने गधे से कहा फिर वही मूर्खों जैसी बात कर रहे हो शेर ने तुम्हारी पूंछ इसलिए हटाई ताकि तुम सिंहासन पर अच्छे से बैठ सको। लोमड़ी के काफ़ी मान मनौव्वल के बाद गधा दोबारा शेर के पास जाने के लिए मान गया ।
इस बार शेर तैयार था ।उसने गधे को भागने का मौका ही नहीं दिया औऱ उसे मारने के बाद लोमड़ी से कहा मेरी प्यारी लोमड़ी अब जाओ इसको अच्छी तरह साफ करके इसका ब्रेन, लीवर, लंग्स, हार्ट लेकर आओ मैं चैन से खाऊंगा।लोमड़ी ने गधे की चमड़ी निकाली और उसका दिमाग ख़ुद खा लिया बाकी लीवर, हार्ट, लंग्स लेकर शेर के पास पहुंची तो शेर ने गुस्से से पूछा अबे, इसका दिमाग कहां है रे। लोमड़ी ने कहा महाराज , उसके शरीर में दिमाग था ही नहीं जरा सोचो अगर दिमाग होता तो कान और पूंछ कटने के बाद भी क्या वो बार बार मरने के लिए आपके पास आता ।
शेर ने कहा तुम एकदम सही कहती हो ।
सबक इतना सीधा और भोला भी नहीं होना चाहिए कि कोई आसानी से मूर्ख बना सके दिमाग मिला है इसका इस्तेमाल करें किसी के बहकावे में हरगिज़ न आए सावधान रहें, सतर्क रहें, हमेशा हँसते रहें खिलखिलाते रहे।

इस काल्पनिक कहानी का आप सौच रहे हैं वही अर्थ निकलता है ।

श्री बिन्दु जी पर बिहारी जी की कृपा

बात बहुत पुरानी नहीं है- वृन्दावन में गोस्वामी बिंदुजी महाराज नाम के एक भक्त रहते थे। वे काव्य रचना में प्रवीण थे। श्रीबिहारीजी महाराज उनके प्राणाराध्य थे। अतः प्रतिदिन एक नवीन रचना श्रीबिहारीजी महाराज को सुनाने के लिए रचते और सांयकाल में जब बिहारीजी के दर्शन के लिए जाते तो उन्हे भेंटकर आते। उनके मधुर कण्ठ की ध्वनि दर्शनार्थियों के हृदय को विमुग्ध कर देते। बिहारीजी से उनका सतत् साक्षात्कार था। 
एक बार बिंदुजी महाराज ज्वर ग्रस्त हो गए। कई दिनों तक कंपकंपी देकर ज्वर आता रहा। उनके शिष्यगण उनकी सेवा में लगे थे। वृन्दावन में उस समय श्रवणलाल वैद्य, आयुर्वेद के प्रतिष्टित ज्ञाता थे। उनकी औषधि से बिंदुजी महाराज का ज्वर तीन-चार दिनों बाद कुछ हल्का पड़ा। बिंदुजी के शिष्यों ने श्रीबिहाराजी की श्रृंगार आरती से लौटकर चरणामृत और तुलसी पत्र अपने गुरुदेव बिंदुजीजी को दिया। बिंदुजी कहने लगे- "किशोरी लाल ! आज सांझ कूँ श्रीबिहारी जी के दरसन करबे चलिंगे।" पर महाराज ! आप कूँ तो कमजोरी बहुत ज्यादा है गयी है, कैसे चलपाओगे"- किशोरीलाल ने अपनी शंका प्रकट की।' अरे कुछ नायें भयौ- ठाकुर कूँ देखे कई दिन है गये- या लिए आज तो जरूर ही जायेंगे। बिंदुजी ने अपना निर्णय सुनाया। 'ठीक है, जो आज्ञा' कहकर किशोरीलाल अन्य कार्यो में व्यस्त हो गए। परंतु बिंदुजी अचानक बेचैन हो उठे। आज तक कभी ऐसा नही हुआ, जब बिंदुजी बिहारीजी के दर्शन करने गये हों और उन्हे कोई नई स्वरचित काव्य रचना न अर्पित की हो। आज उनके पास कोई रचना नही थी। उन्होंने कागज कलम लेकर लिखने का प्रयास भी किया। शारीरिक क्षीणता के कारण सफल नही हो सके। धीरे-धीरे दोपहरी बीत गयी। सूर्यनारायण अस्ताचल की ओर चल दिए। लाल किरणें वृन्दावन के वृक्षों के शिरोभाग पर मुस्कुराने लगीं। तभी बिंदुजी ने पुनः किशोरी लाल को आवाज दी-'किशोरीलाल !' 'हाँ गुरुदेव' 'नैक पुरानों चदरा तो निकार दे अलमारी में ते' किशोरीलाल समझ न सके कि गुरुदेव की अचानक पुरानी चादर की क्या आवश्यकता आ पड़ी। वह आज्ञा की अनुपालना करते हुए अलमारी से चादर निकाल कर गुरूजी के सिरहाने रख दी। चादर क्या थी उसमें दसियों तो पैबंद लगे थे। रज में लिथ रही थी। बिंदुजी ने चादर को सहेज कर अपने पास रख लिया।  
जब सूर्यास्त हो जाने पर बिंदुजी श्रीबिहारीजी महाराज के दर्शन करने के लिए निकले तो उन्होंने वही चादर ओढ़ रखी थी। तब वृन्दावन में आज-कल की भांति बिजली की जगमग नहीं थी। दुकानदार अपनी दुकानों पर प्रकाश की जो व्यवस्था करते थे बस उसी से बाजार भी प्रकाशित रहते थे। शिष्य लोग भी चुपचाप गुरूजी के पीछे चल दिए। श्रीबिहारीजी महाराज के मंदिर में पहुँच कर बिंदुजी ने किशोरीलाल का सहारा लेकर जगमोहन की सीढ़ियां चढ़ी और श्रीबिहारीजी महाराज के दाहिनें ओर वाले कटहरे के सहारे द्वार से लगकर दर्शन करने लगे। वे जितनी देर वहाँ खड़े रहे उनकी दोनों आँखों से अश्रु की धारा अविरल रूप से प्रवाहित होती रही। आज कोई रचना तो थी नही जिसे बिहारीजी को सुनाते। अतः चुपचाप दर्शन करते रहे। काफी समय बीतने के बाद उन्होंने वहाँ से चलने की इच्छा से कटहरे पर सिर टिकाकर दंडवत प्रणाम किया। एक बार फिर अपने प्राणप्यारे को जी भर के देखा और जैसे ही कटहरे से उतरने लगे कि नूपुरों की ध्वनि ने उनके पैर रोक दिए। जो कुछ उन्होंने देखा वह अद्भुत था।
निज महल के सिंघासन से उतर कर बिहारीजी महाराज उनके सामने आ खड़े हुए - 'क्यों ! आज नाँय सुनाओगे अपनी कविता ?' अक्षर-अक्षर जैसे रग में पगा हुआ- खनकती सी मधुर-मधुर आवाज उनके कर्ण-कुहरो से टकराई। उन्होंने देखा-ठाकुरजी ने उनकी चादर का छोर अपने हाथ में ले रखा है। 'सुनाओ न !' एक बार फिर आग्रह के साथ बिहारीजी ने कहा। यह स्वप्न था या साक्षात इसका निर्णय कौन करता। बिंदुजी तो जैसे आत्म-सुध ही खो बैठे थे । शरीर की कमजोरी न जाने कहां विलुप्त हो गयी । वे पुनः कटहरे का सहारा लेकर खड़े हो गए। आँखों से आँसुओं की धार, गदगद हृदय, पुलकित देह जैसे आनन्द का महाश्रोत प्रगट हुआ हो। बिंदुजी की कण्ठ ध्वनी ने अचानक सबका ध्यान अपनी ओर खींचा। लोग कभी उनकी तरफ देखते कभी उनकी चादर की ओर, किन्तु श्रीबिन्दु थे की श्रीबिहारीजी महाराज की ओर अपलक दृष्टि से देख रहे थे। मंदिर में उनके भजन की गूँज के सिवाए और कोई शब्द सुनाई नहीं दे रहा था।
बिंदुजी देर तक गाते रहे,
   कृपाकीनहोतीजोआदततुम्हारी।
          तोसूनीहीरहतीअदालत तुम्हारी॥
   गरीबोंकेदिलमेंजगहतुमन पाते। 
          तोकिसदिलमेंहोतीहिफाजततुम्हारी॥ 

Monday, February 17, 2025

भगवान शिव ने मां पार्वती जी को बताए थे जीवन के ये पाँच रहस्य

भगवान शिव ने देवी पार्वती को समय-समय पर कई ज्ञान की बातें बताई हैं। जिनमें मनुष्य के सामाजिक जीवन से लेकर पारिवारिक और वैवाहिक जीवन की बातें शामिल हैं। भगवान शिव ने देवी पार्वती को 5 ऐसी बातें बताई थीं जो हर मनुष्य के लिए उपयोगी हैं, जिन्हें जानकर उनका पालन हर किसी को करना ही चाहिए-

1. क्या है सबसे बड़ा धर्म और सबसे बड़ा पाप
देवी पार्वती के पूछने पर भगवान शिव ने उन्हें मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा धर्म और अधर्म मानी जाने वाली बात के बारे में बताया है। भगवान शंकर कहते है-

श्लोक- नास्ति सत्यात् परो नानृतात् पातकं परम्।।

अर्थात- मनुष्य के लिए सबसे बड़ा धर्म है सत्य बोलना या सत्य का साथ देना और सबसे बड़ा अधर्म है असत्य बोलना या उसका साथ देना।

इसलिए हर किसी को अपने मन, अपनी बातें और अपने कामों से हमेशा उन्हीं को शामिल करना चाहिए, जिनमें सच्चाई हो, क्योंकि इससे बड़ा कोई धर्म है ही नहीं। असत्य कहना या किसी भी तरह से झूठ का साथ देना मनुष्य की बर्बादी का कारण बन सकता है।

2. काम करने के साथ इस एक और बात का रखें ध्यान
श्लोक- आत्मसाक्षी भवेन्नित्यमात्मनुस्तु शुभाशुभे।

अर्थात- मनुष्य को अपने हर काम का साक्षी यानी गवाह खुद ही बनना चाहिए, चाहे फिर वह अच्छा काम करे या बुरा। उसे कभी भी ये नहीं सोचना चाहिए कि उसके कर्मों को कोई नहीं देख रहा है।

कई लोगों के मन में गलत काम करते समय यही भाव मन में होता है कि उन्हें कोई नहीं देख रहा और इसी वजह से वे बिना किसी भी डर के पाप कर्म करते जाते हैं, लेकिन सच्चाई कुछ और ही होती है। मनुष्य अपने सभी कर्मों का साक्षी खुद ही होता है। अगर मनुष्य हमेशा यह एक भाव मन में रखेगा तो वह कोई भी पाप कर्म करने से खुद ही खुद को रोक लेगा।

3. कभी न करें ये तीन काम करने की इच्छा
श्लोक- मनसा कर्मणा वाचा न च काड्क्षेत पातकम्।

अर्थात- आगे भगवान शिव कहते है कि- किसी भी मनुष्य को मन, वाणी और कर्मों से पाप करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि मनुष्य जैसा काम करता है, उसे वैसा फल भोगना ही पड़ता है।

यानि मनुष्य को अपने मन में ऐसी कोई बात नहीं आने देना चाहिए, जो धर्म-ग्रंथों के अनुसार पाप मानी जाए। न अपने मुंह से कोई ऐसी बात निकालनी चाहिए और न ही ऐसा कोई काम करना चाहिए, जिससे दूसरों को कोई परेशानी या दुख पहुंचे। पाप कर्म करने से मनुष्य को न सिर्फ जीवित होते हुए इसके परिणाम भोगना पड़ते हैं बल्कि मारने के बाद नरक में भी यातनाएं झेलना पड़ती हैं।

4. सफल होने के लिए ध्यान रखें ये एक बात
संसार में हर मनुष्य को किसी न किसी मनुष्य, वस्तु या परिस्थित से आसक्ति यानि लगाव होता ही है। लगाव और मोह का ऐसा जाल होता है, जिससे छूट पाना बहुत ही मुश्किल होता है। इससे छुटकारा पाए बिना मनुष्य की सफलता मुमकिन नहीं होती, इसलिए भगवान शिव ने इससे बचने का एक उपाय बताया है।

श्दषदर्शी भवेत्तत्र यत्र स्नेहः प्रवर्तते।
अनिष्टेनान्वितं पश्चेद् यथा क्षिप्रं विरज्यते।।

अर्थात- भगवान शिव कहते हैं कि- मनुष्य को जिस भी व्यक्ति या परिस्थित से लगाव हो रहा हो, जो कि उसकी सफलता में रुकावट बन रही हो, मनुष्य को उसमें दोष ढूंढ़ना शुरू कर देना चाहिए। सोचना चाहिए कि यह कुछ पल का लगाव हमारी सफलता का बाधक बन रहा है। ऐसा करने से धीरे-धीरे मनुष्य लगाव और मोह के जाल से छूट जाएगा और अपने सभी कामों में सफलता पाने लगेगा।

5. यह एक बात समझ लेंगे तो नहीं करना पड़ेगा दुखों का सामना,श्लोक-

नास्ति तृष्णासमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम्।
सर्वान् कामान् परित्यज्य ब्रह्मभूयाय कल्पते।।

अर्थात- आगे भगवान शिव मनुष्यो को एक चेतावनी देते हुए कहते हैं कि- मनुष्य की तृष्णा यानि इच्छाओं से बड़ा कोई दुःख नहीं होता और इन्हें छोड़ देने से बड़ा कोई सुख नहीं है। मनुष्य का अपने मन पर वश नहीं होता। हर किसी के मन में कई अनावश्यक इच्छाएं होती हैं और यही इच्छाएं मनुष्य के दुःखों का कारण बनती हैं।जरुरी है कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं में अंतर समझे और फिर अनावश्यक इच्छाओं का त्याग करके शांत मन से जीवन बिताएं।

Sunday, February 16, 2025

अटूट विश्वास



मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था। उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया। लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई। अमर विश्वास एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे मैं ने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला । पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया लिखा था -
आदरणीय सर, 
          मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूँ मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा।ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है घर पर सभी को मेरा प्रणाम।
आप का, अमर‌
मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी ।वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता। मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा।पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी।वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा। मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया। वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था ।मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं। मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण। ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था। पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा - ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं ?’
आप कितना दे सकते हैं, सर ?
अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा ।
आप जो दे देंगे - लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला‌
तुम्हें कितना चाहिए ।
उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूँ । 5 हजार रुपए वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला।
इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है - मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया । अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो।मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ. मैं ने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा - ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है। वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा. शायद काफी समय निराशा का उतारचढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था । सर, मैं 10+2 कर चुका हूं. मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं। मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है. अब उस में प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है। कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा ।
तुम्हारा नाम क्या है ?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा ।
अमर विश्वास
तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो. कितना पैसा चाहिए।
5 हजार,’ - अब की बार उस के स्वर में दीनता थी।
अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे ? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा।सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं. आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं। मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा । अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आप को किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ - उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी। उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी। मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था ।आखिर में दिल जीत गया. मैं ने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए। वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए। देखो बेटे मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूँ । तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी. सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ - मैं ने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा। अमर हतप्रभ था शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उस की आंखों में आंसू तैर आए। उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं। ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं। कोई जरूरत नहीं इन्हें तुम अपने पास रखो यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना। वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी। कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा. अत: मैं ने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया। दिन गुजरते गए. अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी। मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई. एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उस के पते पर फिर भेज दूं।भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई। दिन हवा होते गए उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं। 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था। मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता. मैं ने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया। कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है। छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला। मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने।समय पंख लगा कर उड़ता रहा. अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था। मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था।अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी। एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है. शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम उधेड़बुन और अब वह चेक। मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया. मैं ने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया। शादी की गहमागहमी चल रही थी. मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी। एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले। मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है. उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए।
सर, मैं अमर - वह बड़ी श्रद्धा से बोला।
मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी. मैं ने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया।
उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था. मिनी अब भी संशय में थी। अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था. मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी। अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा। उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया। उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए। इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं। हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था। मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है।

बृज की एक शाम

संध्या का सुहावना समय था। चारों ओर सू्र्य की लालिमा फैली हुई थी। सूर्यदेव भी अस्ताचल की गुफा में खड़े नवीन सन्यासी की तरह सारे संसार को विशेष रुप से ब्रज मण्डल को, झांक-झांक कर देख रहे थे। उन्हें देख कर ऐसा लगता था कि मानों वे श्रीकृष्ण की निशांत कालीन लीला भी देखना चाहते थे और लीला देखते हुए अस्ताचल की गुफा में समा जाने को तैयार थे। किंतु वे किसी और शक्ति के कारण मजबूर थे। उन्हीं का अनुसरण करते हुए सारे पक्षी अपने-अपने घौंसलों में आकर चहचहा रहे थे। बछड़े अपनी पूंछ उठा-उठा कर खुशी से इधर-उधर कूद रहे थे, जिन गायों का दूध निकल चुका था। वे भी अपने बच्चों के पीछे-पीछे भाग रही थी। जिन गायों का दूध नहीं निकला था। वे इस प्रकार रम्भा रही थीं,मानों "गोपाल! गोपाल!!" कह कर पुकार रहीं हों। सभी ग्वाले अपनी-अपनी गायों का दूध निकालने में व्यस्त थे तथा गोपियां सज-धज कर यमुना की पूजा के लिए जा रही थीं, ब्रज के बच्चे बछड़ों के साथ मिट्टी में खेल रहे थे पंरतु कन्हैया सबसे अंदर बैठा हु्आ भी सबसे दूर अपने घर के कोने में माखन की खाली मटकियों से खेल रहा था। माता यशोदा ने देखा कि सभी गोपियां यमुना में दीप-दान करने जा रही हैं अत: मुझे भी जाना चाहिए पंरतु इस नटखट का क्या करे।ज्ञयदि वह इसे साथ में नहीं ले जाती तो जाने की जिद्द करेगा और यदि साथ चला तो वहां जाकर न तो मुझे ठीक से पूजा करने देगा और न ही अन्य गोपियों को। अत: बहला-फुसला कर यदि इसके सखाओं के साथ इसे भेज दिया जाए तो कुछ काम बन सकता है। ऐसा सोच कर यशोदा ने अपने प्राणधन गोपाल को आवाज लगाई। माता की आवाज सुनते ही कन्हैया माखन की हांडिय़ो को छोड़ कर माता के पास आ गए। तूने मुझे बुलाया मैया। हां लाला, क्या कर रहा था तू अकेले में? कुछ नहीं मैया, यूं ही खेल रहा था हांडिय़ों से।"क्यों, सखाओं के साथ नहीं गया। देख, सामने मैदान में सभी ग्वाल-बाल खेल रहे हैं।""नहीं मैया। तुझे छोड़कर मैं कहीं नहीं जाउंगा।पागल है तू, मुझे कुछ होगा थोड़े ही, जा खेल सखाओं के साथ। "माता की बात सुनकर कन्हैया सखाओं के संग खेलने चला गया तभी यशोदा दीप-दान को जाने के लिए तैयारियां करने लगी। उसने हाथ-पैर धोए व सुंदर-सुंदर वस्त्रालंकारों से सुसज्जित होकर कहीं गोपाल न देख ले, चुपके से घर से निकल गई। पंरतु सर्वान्तर्यामी प्रभु से भी भला कुछ छिप सकता है।सभी सखाओं को छोड़ कर दौडा़-दौडा़  मैया मैया पुकारता हुआ कन्हैया अपनी मैया के पास चला आया। "कहां जा रही है मैया तू भोलेपन से श्रीकृष्ण ने कहा कहीं नहीं, तू जा खेल ले सखाओं के साथ।"नहीं मैया, बता तो कहां जा रही है तू !"लाला ! तेरे लिए माखन मिश्री लेने जा रही हूं।" पूजा के सामान को अपने आंचल से छिपाती हुई मैया बोली। नहीं मैया, तू झूठ बोल रही है, मैंने, अभी देखा है कि घर में ढेर सारी माखन की मटकियां और ढेर सारी मिश्री पड़ी है! मैया, तू सच-सच बता कहां जा रही है।लाला, मैं किसी ज़रुरी काम से जा रही हूं, तू जा खेल।""नहीं मैया, तू सज-धज के जरुर मेला देखने जा रही है। मैं भी जाऊंगा, मेला देखने।अरे लाला ! रात को भी भला कहीं मेला होता है। मैं तो यमुना मैया की पूजा करने जा रही हूं।अरे मैया, मैं भी जाऊंगा पूजा करने।नहीं लाला, वहां बच्चे थोड़े ही जाते हैं।नहीं मैया, अब मैं छोटा तो नहीं हूं, देख न कितना बड़ा हो गया हूं। लाला की चिकनी-चुपड़ी बातें सुन कर मैया का मन पसीज गया। अत: वह गोपाल से बोली,देख गोपाल ! मैं तुझे ले तो जाऊं, लेकिन तू वहां करेगा कया। मैया, मैं भी देखूंगा, तू कैसे पूजा करती है, कभी मुझको भी तो करनी होगी।अच्छा, तू मुझे परेशान तो नहीं करेगा।तेरी साैगंध खाकर कहता हूं मैया, मैं बिलकुल परेशान नहीं करुंगा। अच्छा ठीक है। इतना कहकर मैया ने यमुना की ओर मुख किया और चल दी। कन्हैया ने भी मैया के आंचल के कोने को पकड़ लिया और धीरे-धीरे मैया के पीछे-पीछे चलने लगा ताकि भक्त मैया के श्रीचरणों की रज सिर पर गिरती रहे। यमुना पर पहुंच कर मैया ने यमुना को प्रणाम किया। यमुना की स्तुति करते हुए उसने दोना निकाला, उसमें एक दीपक जलाया तथा उसे चारों ओर से फूल इत्यादि से सजाकर यमुना में छोड़ दिया और हाथ जोड़ कर व आँख बद करके यमुना मैया के सामने न जाने क्या गुण-गुणाने लगी। कन्हैया ने देखा कि यमुना के दोनों ओर छोटी-बड़ी बूढ़ी बहुत सी गोपियां मग्न हुईं यमुना मैया की पूजा कर रही हैं तथा अपने-अपने दीपकों को भांति-भांति के भावों से प्रवाहित कर रही है। लाखों-लाखों दीपक यमुना के जल में झिलमिल-झिलमिल करते हुए बह रहे थे। थोड़ी देर बाद यशोदा मैया ने आँख खोलीं और यमुना जी को प्रणाम करते हुए वापिस जाने लगी पंरतु वहां कन्हैया का अता-पता ही नहीं था।
कन्हैया ! ओ कन्हैया इसीलिए तो मैं इसे नहीं ला रही थी। अब कहां ढूंढू इस अन्धेरे में।"मैया की आवाज़ सुनकर मैं यहां हूं ! कन्हैया ने जवाब दिया। इधर-उधर निगाह दाैड़ाते हुए माता ने देखा कि लाला यमुना के बीच में घुसा हुआ था और बहते हुए दीपकों के साथ खेल रहा था।"अरे क्या है ? पानी से निकल, कहीं सांप आदि न डस ले।कन्हैया मुस्कराते हुए सोचता है कि भला काैन सा सांप मुझे डसेगा। इतना बड़ा विषधर कालिय नाग तो बेचारा मेरा कुछ न कर सका। अरे फिर मैं तो हमेशा ही हजारों फन वाले सांप (शेष नाग) के उपर शयन करता हूं।
अरे ! जल्दी निकल पानी से। क्या कर रहा है तू वहां। मैया ने कड़कती हुई आवाज़ में कहा। मैया मैं इनको (बहते दीपकों को) किनारे लगा रहा हूं।अरे, पागल है तू, किस-किस को किनारे लगाएगा।"मैया, मैंने सभी का ठेका थोड़े ही ले रखा है। जो मेरे सामने आएगा मैं उसे किनारे लगा दूंगा।
अर्थात भव सागर में डूबते कष्ट पाते हुए सभी जीवों को किनारे लगाने का ठेका भगवान ने नहीं लिया है, क्योंकि भगवान जीव स्वतंत्रता में बाधा नहीं देना चाहते। हां, जो भाग्यशाली जीव भगवान के सम्मुख अर्थात शरणागत हो जाता है, उसे ही भगवान दु:खों के सागर से पार लगा देते है। जैसे कि अपनी रामलीला में, हम जीवों को हमारे ही पापों के कारण प्राप्त होने वाले कष्टों से छुटकारा पाने का तरीका बताते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी कहते हैं।
सन्मुख होहि जीव मोहि जबहिं, जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।
 
तथा अपनी कृष्ण लीला में अर्जुन को उपदेश देते हुए भगवान कहते है-
दैवी होषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।।
मामेव ये प्रपघन्ते मायामेंतां तरन्ति ते।।

अर्थात, हे अर्जन! मेरी त्रिगुणमयी दैवीमाया से जीव अपनी चेष्टा से उर्त्तीण नहीं हो सकता! जो जीव एकमात्र मेरी शरण में आते है, केवल वे ही मेरी माया से तर जाते हैं। अरे कन्हैया ! आता नहीं किसलिए, हाऊ ले जाएगा तेरे को वहां से अपने लाला को डांटती हुई माता बोली। श्रीकृष्ण सोचते हैं कि मेरे हाउ रूप (भंयकर नृसिंह स्वरूप) को देखकर तो सारे देवता, कित्रर मनुष्य व राक्षस डरते हैं, मुझे काैन सा हाऊ ले जाएगा। राक्षसराज रावण को मैंने सवंश धूलि मे मिला दिया। तब तो हाऊ नहीं मिला। बेचारे शकटासुर व तृणार्वत आदि मुझे ले जाने की कोशिश कर रहे थे पंरतु अपनी जान से ही हाथ धो बैठे ।अब कौन सी हाऊ की मैया कह रही है, जो मझे ले जाएगा।
अरे कन्हैया ! देख तू मुझे परेशान मत कर, नहीं तो काली गाय को जो मक्खन मैंने निकाला है, वह मैं तुझे नहीं दूंगी, सारा तेरे दाऊ भैया को दे दूंगी। माता का दु:खी मन देखकर श्रीकृष्ण यमुना से बाहर निकल आए और अत्यन्त भोलेपन से माता के सामने खड़े हो गए। माता ने खूब स्नेह के साथ कन्हैया के शरीर को पोंछा और अपनी तर्जनी उंगली अपने लाला को पकड़ा कर तेजी से अपने घर की ओर चल दी । माता अनुसरण करते हुए श्रीकृष्ण भी अपने नन्हें-नन्हें कदमों से दाैड़ कर चलने लगे।

Friday, February 14, 2025

हम शिक्षक वेलेंटाइन मनाते

हम शिक्षक वेलेंटाइन मनाते, 
सोचों कैसा दीवाना ।
अहर्निश नहीं ध्यान हटाते,
कोमल दिल का खजाना ।

प्यार हमेशा बच्चों से कर ,
नफ़रत का नहीं जमाना ।
डेट भेंट का  मतलब यहां ,
समय पर आकर पढ़ाना ।

हाथ गुलाब नहीं पुस्तक रहता,
चाह राह सही दिखलाना ।
मिलते हैं जब प्रथम सुबह में,
गुड मॉर्निंग से सुहाना ।

पठन-पाठन नित्य एक साधना,
सदा प्रेम से सीखलाना ।
जाति धर्म नहीं उंच नीच का ,
सभी को लक्ष्य तक पहुंचाना ।

खेल-कूद गतिविधि कुछ भी,
मिलकर करते मस्ताना ।
क्या कुछ नित्य नया सीखाऊं,
यही सोच स्कूल आना ।
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                 - गोपाल पाठक