महामंत्र > हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे|हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे||

Wednesday, October 1, 2025

माता पिता

पढ़ाई पूरी करने के बाद एक छात्र किसी बड़ी कंपनी में नौकरी पाने की चाह में इंटरव्यू देने के लिए पहुंचा....
छात्र ने बड़ी आसानी से पहला इंटरव्यू पास कर लिया...
अब फाइनल इंटरव्यू
कंपनी के डायरेक्टर को लेना था...
और डायरेक्टर को ही तय
करना था कि उस छात्र को नौकरी पर रखा जाए या नहीं...
डायरेक्टर ने छात्र का सीवी (curricular vitae)  देखा और पाया  कि पढ़ाई के साथ- साथ यह  छात्र ईसी (extra curricular activities)  में भी हमेशा अव्वल रहा...
डायरेक्टर- "क्या तुम्हें  पढ़ाई के दौरान
कभी छात्रवृत्ति (scholarship)  मिली...?"
छात्र- "जी नहीं..."
डायरेक्टर- "इसका मतलब स्कूल-कॉलेज  की फीस तुम्हारे पिता अदा करते थे.."
छात्र- "जी हाँ , श्रीमान ।"
डायरेक्टर- "तुम्हारे पिताजी  क्या काम  करते  है?"
छात्र- "जी वो लोगों के कपड़े धोते हैं..."
यह सुनकर कंपनी के डायरेक्टर ने कहा- "ज़रा अपने हाथ तो दिखाना..."
छात्र के हाथ रेशम की तरह मुलायम और नाज़ुक थे...
डायरेक्टर- "क्या तुमने कभी  कपड़े धोने में अपने  पिताजी की मदद की...?"
छात्र- "जी नहीं, मेरे  पिता हमेशा यही चाहते थे कि मैं पढ़ाई  करूं और ज़्यादा से ज़्यादा किताबें पढ़ूं...
हां , एक बात और, मेरे पिता बड़ी तेजी  से कपड़े धोते हैं..."
डायरेक्टर- "क्या मैं तुम्हें  एक काम कह सकता हूं...?"
छात्र- "जी, आदेश कीजिए..."
डायरेक्टर- "आज घर वापस जाने के बाद अपने पिताजी के हाथ धोना... फिर कल सुबह मुझसे आकर मिलना..."
छात्र यह सुनकर प्रसन्न हो गया...
उसे लगा कि अब नौकरी  मिलना तो पक्का है,
तभी तो  डायरेक्टर ने कल फिर बुलाया है...
छात्र ने घर आकर खुशी-खुशी अपने पिता को ये सारी बातें बताईं और अपने हाथ दिखाने को कहा...
पिता को थोड़ी हैरानी हुई...
लेकिन फिर भी उसने बेटे की इच्छा का मान करते हुए अपने दोनों हाथ उसके हाथों में दे दिए...
छात्र ने पिता के हाथों को धीरे-धीरे धोना शुरू किया। कुछ देर में ही हाथ धोने के साथ ही उसकी आंखों से आंसू भी झर-झर बहने लगे...
पिता के हाथ रेगमाल (Emery paper) की तरह सख्त और जगह-जगह से कटे हुए थे...
यहां तक कि जब भी वह  कटे के निशानों पर  पानी डालता, चुभन का अहसास पिता के चेहरे पर साफ़ झलक जाता था...
छात्र को ज़िंदगी में पहली बार एहसास हुआ कि ये वही हाथ हैं जो रोज़ लोगों के कपड़े धो-धोकर उसके
लिए अच्छे खाने, कपड़ों और स्कूल की फीस का इंतज़ाम करते थे...
पिता के हाथ का हर छाला सबूत था उसके एकेडैमिक कैरियर की एक-एक कामयाबी का...
पिता के हाथ धोने के बाद छात्र को पता ही नहीं चला कि उसने  उस दिन के बचे हुए सारे कपड़े भी एक-एक कर धो डाले...
उसके पिता रोकते ही रह गए , लेकिन छात्र अपनी धुन में कपड़े धोता चला गया...
उस रात बाप- बेटे ने काफ़ी देर तक बातें कीं ...
अगली सुबह छात्र फिर नौकरी  के लिए कंपनी के  डायरेक्टर के ऑफिस में था...
डायरेक्टर का सामना करते हुए छात्र की आंखें गीली थीं...
डायरेक्टर- "हूं , तो फिर कैसा रहा कल घर पर ?
क्या तुम अपना अनुभव मेरे साथ शेयर करना पसंद करोगे....?"
छात्र- "जी हाँ, श्रीमान कल मैंने जिंदगी का एक वास्तविक अनुभव सीखा...
नंबर एक... मैंने सीखा कि सराहना क्या होती है...
मेरे पिता न होते तो मैं पढ़ाई में इतनी आगे नहीं आ सकता था...
नंबर दो... पिता की मदद करने से मुझे पता चला कि किसी काम को करना कितना सख्त और मुश्किल होता है...
नंबर तीन... मैंने रिश्तों की अहमियत पहली बार
इतनी शिद्दत के साथ महसूस की..."
डायरेक्टर- "यही सब है जो मैं अपने मैनेजर में देखना चाहता हूं...
मैं यह नौकरी केवल उसे  देना चाहता हूं जो दूसरों की मदद की कद्र करे, ऐसा व्यक्ति जो काम किए जाने के दौरान दूसरों की तकलीफ भी महसूस करे...
ऐसा शख्स जिसने सिर्फ पैसे को ही जीवन का ध्येय न बना रखा हो...
मुबारक हो, तुम इस नौकरी के पूरे हक़दार हो...
आप अपने बच्चों को बड़ा मकान दें, बढ़िया खाना दें, बड़ा टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर सब कुछ दें...
लेकिन साथ ही अपने बच्चों को यह अनुभव भी हासिल करने दें कि उन्हें पता चले कि घास काटते हुए कैसा लगता है ?
उन्हें  भी अपने हाथों से ये  काम करने दें...
खाने के बाद कभी बर्तनों को धोने का अनुभव भी अपने साथ घर के सब बच्चों को मिलकर करने दें...
ऐसा इसलिए
नहीं कि आप मेड पर पैसा खर्च नहीं कर सकते,
बल्कि इसलिए कि आप अपने बच्चों से सही प्यार करते हैं...
आप उन्हें समझाते हैं कि पिता कितने भी अमीर
क्यों न हो, एक दिन उनके बाल सफेद होने ही हैं...
सबसे अहम हैं आप के बच्चे  किसी काम को करने
की कोशिश की कद्र करना सीखें...
एक दूसरे का हाथ
बंटाते हुए काम करने का जज्ब़ा अपने अंदर 
लाएं...
यही है सबसे बड़ी सीख.....
 उक्त कहानी यदि पसंद आई हो तो अपने परिवार में सुनाएँ और अपने बच्चों को सर्वोच्च शिक्षा प्रदान कराये
आँखे बन्द करके जो प्रेम करे वो 'प्रेमिका' है।
आँखे खोल के जो प्रेम करे वो 'दोस्त' है।
आँखे दिखाके जो प्रेम करे वो 'पत्नी' है।
अपनी आँखे बंद होने तक जो प्रेम करे वो 'माँ' है।
परन्तु आँखों में प्रेम न जताते हुये भी जो प्रेम करे वो 'पिता' है।
 दिल से पढ़ो और ग़ौर करो!!

Monday, September 29, 2025

बड़ा ही महत्त्व है |

बड़ा ही महत्त्व है ||
फलों में आम का
दर्द में बाम का
शहीदों को सलाम का 
बड़ा ही महत्त्व है ||
दीपक में तेल का
प्रगति में रेल का
भारतीयों में मेल का
बड़ा ही महत्त्व है ||
देवों में एक दन्त का
पूजा में मन्त्र का
सुरक्षा में तंत्र का
बड़ा ही महत्त्व है ||
वैचारिक शुध्दि का
निर्णय में बुध्दि का अभिषेक में रुद्री का
बड़ा ही महत्त्व है। कम्पटीशन में मेन्स का नेत्र ज्योति में लेन्स का ग्रामर में टेन्स का बड़ा ही महत्त्व है। न्यास में न्यासी का प्रदेश में काशी का बृज वृन्दाबन वासी का बड़ा ही महत्त्व है। तौल में बाँट का सोने में खाट का अशोक की लाट का बड़ा ही महत्त्व है । पक्षियों में खगेश का रत्नों में रत्नेश का विश्व में स्वदेश (भारत) का बड़ा ही महत्त्व है | जीवन में नीर का विप्रों में खीर का सीमा पर धीर-वीर का बड़ा ही महत्त्व है | कश्मीर में घाटी का राजस्थान वाटी का भारत देश की माटी का बड़ा ही महत्त्व है | हीरे की कनी का देश भक्त अनी का ग्रहों में शनि का बड़ा ही महत्त्व है | नाटक में थीम का फाटक में बीम का मकान में नींव का बड़ा ही महत्त्व है | रामायण में सीता का उपदेशों में गीता का सर्व सुख पुनीता का बड़ा ही महत्त्व है | जीवन में रंग का सागर में तरंग का मन में उमंग का बड़ा ही महत्त्व है |
योगियों में यती का राजस्थान में सती का प्रहार में गती का बड़ा ही महत्त्व है | मरुस्थल में थार का बाबा सालासार का आततायियों के मार का बड़ा ही महत्त्व है |सुयोग्य प्रधान मंत्री का भारत की क्रान्ति का विश्व में शान्ति का बड़ा ही महत्त्व है |

महा महोत्सव

हमारे देश में माता- पिता  गुरु को भगवान का दर्जा दिया जाता है | गुरु की कृपा तथा माता-पिता के आशीवार्द से सभी कार्य पूर्ण होते हैं | एक कहावत ( दोहे) के द्वारा इस बात को साबित भी किया गया है कि गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पायँ |
बलिहारी गुरु आपकी, गोविन्द दियो मिलाए ||
ऐसा ही कुछ अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के बारे में मनीषि जनों का कहना है | धन- धान्य, सुख समृद्धि से परिपूर्ण महाराज दशरथ के राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी और सम्पूर्ण राज्य में खुशहाली थी | राजा दशरथ की तीन रानियाँ थी | बड़ी रानी कौशल्या मझली रानी कैकयी और छोटी रानी सुमित्रा | सभी सुखों के होने पर भी राजा दशरथ के मन में एक दुःख था जिस दुःख के निवारण हेतु राजा दशरथ अपने कुलगुरु वशिष्ठ जी की शरण में गये और जाते ही उन्होंने आज के लोगों की तरह अपने दुखों का बरवान नहीं किया अपितु गुरु जी से आश्रम की तथा आश्रम वासियों की सुख व् कुशलता के बारें मे पुचा | जब गुरुदेव ने कहा महाराज आपके आने का क्या कारण हैं ? राजा दशरथ ने गुरुदेव से कहा आपकी कृपा से सभी सुखी है परन्तु केवल परन्तु कहकर राजा दशरथ मोन हो गये और गुरुदेव के दुबारा पूछने पर अपनी इच्छा व्यक्त की और कहा प्रभु सभी सुख है परन्तु घर (महल) का आँगन सूना हैं , मेरा वंश चलाने वाला कोई नहीं | इस पर गुरु वशिष्ठ ने कहा:- धरहु धीर हुइहें सुत चारी | संशय ताप मिटावन हारी || हे राजन ! आप धैर्य धारण करो आप एक पुत्र की बात कर रहे हो आपके तो चार पुत्र होंगे जो इतने वीर व ज्ञानी होंगे जिनके नाम सारा संसार बड़े आदर व सम्मान के साथ लेगा | तब गुरु वाशिस्था ने राजा दशरथ से सन्तान प्राप्ति यज्ञ करवाया जिसके परिणाम स्वरूप अग्निदेव प्रकट हुए और चरु (खीर) प्रसाद के रूप में दिया | अग्निदेव दध्र दिये गये प्रसाद को राजा ने तीनों रानियों को बाँट दिया | जब रानियाँ चरु ग्रहण करने लगी तभी अचानक एक कोआ आया जिसने छोटी रानी सुमित्रा के हाथ से प्रसाद को उठा लिया और आकाश में उड़ता चला गया और उस प्रसाद को माता अंजनी की गोद में डाला गया जिसके फलस्वरूप हनुमान जी का प्राकट्य हुआ | उधर अयोध्या में जब कोआ प्रसाद लेकर उड़ गया तो कौशल्या और केकयी ने अपने-अपने प्रसाद से एक एक हिस्सा सुमित्रा को दिया | ऐसा माना जाता हैं कि दोनों के दिये हुए प्रसाद के कारण सुमित्रा दो पुत्र हुए | श्री राम के जन्म का समय बहुत ही अदभुत है | छात्र मास में शुकल पक्ष की नवमी को श्री राम चन्द्र ने दोपहर के १२ बजे जन्म लिया | इनके जन्म के विषय में एक कहावत है जो गो. तुलसी दास जी ने अपनी श्री रामचरित्रमानस की चोपाई में लिखी है :- नवमी तिथि मधु मास पुनीता | शुक्ल पक्ष अभिजित हरि प्रीता |
राम जी के जन्म के विषय में एक प्रशन उठा कि श्री राम ने नवमी तिथि को ही जन्म क्यों लिया ? इस प्रश्न के उत्तर में हम कह सकते हैं or मानते है कि श्री राम मर्यादा पुरुसत्तम हैं इसी कारण उनहोंने नौ का अंक चुना क्यों कि नौ का अंक पूर्ण हैं | इस बात को हम सिध्द भी कर सकते हैं नौ के पहाडे को पढ़ने के बाद आप जोड़े तो सभी अंक नौ मे ही आयेंगे। मेंकेवल एक मात्र यही कारण था कि भगवान राम ने नवमी तिथि को जन्म लिया | और अपनी सारी लीलाएं मर्यादा में
रहकर ही पूर्ण की |भगवन के मानव के रूप धारण करने का एक मात्र कारण संत, ब्राह्मण , धेनु, सुर हैं क्यों कि भगवान को ये सभी इतने प्रिय है कि कोई कल्पना नहीं की जा सकती |इसी कारण त्रेतायुग तथा द्वापर युग में मानव रूप धारण किया | जब -जब पृथ्वी पर अत्याचार होते हैं संतो का, ब्राह्मणों का, देवताओ और गायों कहानन होता है तभी भगवान मानव रूप धारण करते हैं | जब जब होय धरम की हानी, बाढे असुर, अधम, अभिमानी || भये प्रकट कृपाला दीन दयाला कोशल्या हितकारी | हरषित महतारी मुनि मन हारी अदभुत रूप निहारी || लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा निज आयुद भुजचारी | भूसन वनमाला नयन विशाला सोभासिंधु खरारी || कह दुई कर जोरी अस्तुति तोरी कही विधि करो अनंता | माया गुण ग्याना तीत अमाना वेद पुरान भनंता || करुना सुख सागर सब गुण आगर जेहिं गावहीं श्रुति संता | सो मम हित लागी जन अनुरागी भयऊ प्रगत श्रीकंता ||
ब्रह्माड निकाय निर्मित माया रोम रोम।

श्रीगंगालहरी


माँ गंगे ! ( हिमालय आदि ) पर्वतों से नदियाँ तो बहुत - सी निकली हैं, परन्तु तुम्ही कहो, उनमे से किसने त्रिपुरारि शंकर के जटाजूट पर ( विराजमान होनेका ) अधिकार पाया और किसने अपने जल से लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु के चरण धोने का सौभाग्य प्राप्त किया, जिसके साथ कविजन तुम्हारी थोडी भी तुलना कर सकें ?
माँ ! जब ( सम्पूर्ण ) अभीष्ट वस्तुओं को देने वाली तुम संसार में बनी हो, तब यज्ञ, दान, तपस्या एव ( विविध ) प्रायच्चित्त करने की क्या आवश्यकता हैं ? तब तक ब्रह्मा निच्चिन्त होकर अवधि रहित समाधी लगायें, भगवान् विष्णु सुख पूर्वक शेषनाग पर शयन करें, शंकर भी बिना विश्राम किये अपने ताण्डव - नृत्य में लगे रहें ( किसी की कोई आवश्यकता नहीं है )।

शरणा गतवत्सले ! मै अनाथ हूँ, तुम स्नेह से भीगी रहती हो, मै गतिहीन ( असहाय ) हूँ, तुम ( पापियों को भी ) पुण्यात्माओंकी गति देने वाली हो, मै ( पापपंकमें ) गिरता जा रहा हूँ, तुम सम्पूर्ण विश्व का उद्धार करने वाली हो, मै रोगों से जर्जर हो गया हूँ, तुम सिद्ध वैद्य हो, तुम सुधासिन्धु हो, मैं तृष्णा से पीड़ित ह्रदय वाला हूँ, माँ ! यह नन्हा - सा बालक मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ, अब तुम मेरे लिये जो उचित हो, वाही करो ||

गंगा मैया ! जबसे तुम्हारी मंगलमयी चर्चा इस भूमण्डलपर पहुँची है, तबसे यमपुरी ( संयमनी ) का आर्तनाद सर्वथा बन्द हो गया, यमदूत भी मृत व्यक्तियों को खोजने के लिये कंही बहुत दूर चले गये अर्थात नरक में ले जाने के लिये उन्हें कोई नहीं मिला तथा देवताओं की ( स्वर्ग की ) गलियों को तुम्हारी कृपा से स्वर्गारोहण करने वालों के झुन्ड - के - झुन्ड विमान विदीर्ण करने लगे ||

उद्दीप्त काम और क्रोध से अत्यन्त प्रबल रूप में उत्पन्न तीव्र ज्वर की ज्वाला के समूह से दिन - दिन हमारा शरीर जल रहा है और उसमे हमें अवर्णनीय व्यथा हो रही है | उसे वायु के वेग से उल्लसित तरंगों के कारण उछलते हुए दिव्य नदी श्रीगंगाजीके जल की फुहारों का समूह शान्त करे ||

संताप हारिणि माँ ! चौदहों भुवनों के विस्तार का आधार भूत यह ब्रह्माण्ड जिसकी तरंगों से सब ओर घिरा हुआ तेंदू के पेड़ के समान बीच में लुढ़क रहा है, शंकर जी के विस्तृत जटाजूट वेष्टित तुम्हारे जलका वह समूह हमारे सन्ताप को दूर करे ||

दयार्द्रहृदये जननि ! जिसका उद्धार करने में यहाँ के ( अन्य समस्त ) तीर्थ लज्जा का अनुभव करते है, शिव आदि देवता भी जिसके उद्धार की चर्चा सुनकर ही कान में उँगली डाल लेते है, ऐसे मुझ पापीको शुद्ध करती हुई तुमने सभी देवताओं का पाप हारी पण का अभिमान नष्ट कर दिया ||

मै निश्चय ही उन पाप समूहों का निराला निवासस्थान हूँ, जिनका चाण्डालों ने भी अनेक प्रकार की शंकाओं से विचलित होकर परित्याग कर दिया है | अहा ! ऐसे घोर पापी मेरा ( भी ) उद्धार करने के लिये माँ ! आपने कमर कस ली है | ( ऐसी अनुपम दयामयी ) आपकी प्रशंसा करने में मेरे - जैसा नरपशु किस प्रकार समर्थ हो सकता है ||

माँ ! अब तक कोई ऐसा पापी नहीं मिला, जिसका शीघ्र उद्धार होने से संसार के लोगों को बड़ा भरी विस्मय होता - इस प्रकार की कामना बहुत दिनों से तुम्हारे मान मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ | मुझ पर कृपा करें - प्रसन्न हों ||

मैया ! दास वृत्ति से ( जिसे शास्त्रों में निंदा पूर्वक कुत्तों की जीविका कहा जाता है ) प्रेम होना, ( सदा ) झूठ बोलना, कुतर्क करने की बान और सदा दूसरों की शठता का चिन्तन करना - इस तरह मेरे गुणगणों को सुन - सुन कर तुम्हारे सिवा कौन मेरा एक क्षण भी मुहँ देखेगा ||

माँ ! इन बड़े - बड़े दोनों नेत्रों से सचमुच क्या लाभ है, जिनसे तुम्हारे मनोहर जलमय शरीर का दर्शन नहीं किया और यह मनुष्य के उन कानों को भी धिक्कार है, जिनके भीतर तुम्हारी तरंगों का कल - कल शब्द नहीं पहुँचा ||

माँ ! पुण्यात्मा जन स्वेच्छा से विमानों के द्वारा स्वर्ग को जाते है और पापी परवश हो शीघ्र ही नरकों में जा गिरते है - ये दो विभेद उसी अशुभमय देश में दृष्टि गोचर होते है, जहाँ प्राणियों के समस्त पापों का अनायास दलन करने वाली तुम नहीं हो ||

माता ! जो ब्राहमणों की हत्या करते हैं, सदा गुरुओं की सती - साध्वी पत्नी पर चलते हैं, मद्यपान करते हैं तथा सुवर्ण की चोरी करते हैं - ऐसे महापात की व्यक्ति भी बड़े - बड़े दान तथा यज्ञ करने वालों से भी ऊपर ( स्वर्ग लोक में ) विहार करते हैं और वहाँ समस्त देवता उनके चरणों की सेवा करते रहते हैं ( धन्य है तुम्हारी महिमा ! ) ||

माँ ! जो सदा पुष्पों की दुर्लभ सुगन्धका तथा वियोग रूपी शस्त्रसे क्षत - विक्षत अंगों वाले विरही जनों के प्राणों का एक ही क्षण में अपहरण कर लेती है, वह वायु भी तुम्हारी लहराती हुई तरंगों के संपर्क से शीघ्र ही तीनों लोकों को पवित्र कर देती है ( अहो ! धन्य है तुम्हारा प्रभाव ! ) ||

तेरी मेरी जनम - जनम

// श्री जानकीवल्लभो विजयते //

तेरी मेरी जनम - जनम

कविवर
श्री विश्वनाथ मिश्र जी "पंचानन "
पटना (बिहार) भारत

तेरी मेरी जनम - जनम की प्रीति |
यह लोक, वह लोक बंधा है,
सुन्दर, नील - वितान तना है |
रवि, शशि, तारे गण से मंडित
चहुँ दिशी विस्तृत - विश्व, घाना है |
घिरी है, एक ईट की भीति |

कोमल - किसलय, कलित - कुसुम में,
मधु, पराग, भँवरा, मधुवन में |
जीव, जीव, निर्जीव - पीव में |
क्षिति - जल, पावक - गगन, पवन में
प्रकम्पित रहती एक ही गीति |

सब का सबसे साथ जुडा है,
एक प्राण, एक तेज भरा है |
साँस - साँस हर तार मिला है,
जब - जब यह आधार हिला है |
टूटी, बिखरी, सृष्टि की रीति |

माया - अंश - जीव बिखरना
लोक - रीति क्षण भर अपनाना |
फिर इक से इक क्या छिनगाना,
प्राण - प्राण को क्या विलगाना |
यह तो कलुष - ह्रदय की नीति |

प्रतिफल, तुम हो मेरे मन में
रूप तुम्हारा जगजीवन में |
देख रहा हूँ नयन - नयन में,
प्रिय मेरे हर अवलोकन में |
घूम रही क्षण - क्षण जो बीती |

जय श्री राधे

Wednesday, September 24, 2025

डाकिया का जूता

एक दिन एक बुजुर्ग डाकिये ने एक घर के दरवाजे पर दस्तक देते हुए कहा..."चिट्ठी ले लीजिये।आवाज़ सुनते ही तुरंत अंदर से एक लड़की की आवाज गूंजी..." अभी आ रही हूँ...ठहरो। लेकिन लगभग पांच मिनट तक जब कोई न आया तब डाकिये ने फिर कहा.."अरे भाई! कोई है क्या, अपनी चिट्ठी ले लो...मुझें औऱ बहुत जगह जाना है..मैं ज्यादा देर इंतज़ार नहीं कर सकता। लड़की की फिर आवाज आई...," डाकिया चाचा , अगर आपको जल्दी है तो दरवाजे के नीचे से चिट्ठी अंदर डाल दीजिए,मैं आ रही हूँ कुछ देर औऱ लगेगा ।अब बूढ़े डाकिये ने झल्लाकर कहा,"नहीं,मैं खड़ा हूँ,रजिस्टर्ड चिट्ठी है,किसी का हस्ताक्षर भी चाहिये।
तकरीबन दस मिनट बाद दरवाजा खुला।डाकिया इस देरी के लिए ख़ूब झल्लाया हुआ तो था ही,अब उस लड़की पर चिल्लाने ही वाला था लेकिन, दरवाजा खुलते ही वह चौंक गया औऱ उसकी आँखें खुली की खुली रह गई।उसका सारा गुस्सा पल भर में फुर्र हो गया।
उसके सामने एक नन्ही सी अपाहिज कन्या जिसके एक पैर नहीं थे, खड़ी थी। 
लडक़ी ने बेहद मासूमियत से डाकिये की तरफ़ अपना हाथ बढ़ाया औऱ कहा...दो मेरी चिट्ठी डाकिया चुपचाप डाक देकर और उसके हस्ताक्षर लेकर वहाँ से चला गया। वो अपाहिज लड़की अक्सर अपने घर में अकेली ही रहती थी। उसकी माँ इस दुनिया में नहीं थी और पिता कहीं बाहर नौकरी के सिलसिले में आते जाते रहते थे।
उस लड़की की देखभाल के लिए एक कामवाली बाई सुबह शाम उसके साथ घर में रहती थी लेकिन परिस्थितिवश दिन के समय वह अपने घर में बिलकुल अकेली ही रहती थी।समय निकलता गया।महीने ,दो महीने में जब कभी उस लड़की के लिए कोई डाक आती, डाकिया एक आवाज देता और जब तक वह लड़की दरवाजे तक न आती तब तक इत्मीनान से डाकिया दरवाजे पर खड़ा रहता।
धीरे धीरे दिनों के बीच मेलजोल औऱ भावनात्मक लगाव बढ़ता गया।एक दिन उस लड़की ने बहुत ग़ौर से डाकिये को देखा तो उसने पाया कि डाकिये के पैर में जूते नहीं हैं।वह हमेशा नंगे पैर ही डाक देने आता था। बरसात का मौसम आया।फ़िर एक दिन जब डाकिया डाक देकर चला गया, तब उस लड़की ने,जहां गीली मिट्टी में डाकिये के पाँव के निशान बने थे,उन पर काग़ज़ रख कर उन पाँवों का चित्र उतार लिया।अगले दिन उसने अपने यहाँ काम करने वाली बाई से उस नाप के जूते मंगवाकर घर में रख लिए। जब दीपावली आने वाली थी उससे पहले डाकिये ने मुहल्ले के सब लोगों से त्योहार पर बकसीस चाही। लेकिन छोटी लड़की के बारे में उसने सोचा कि बच्ची से क्या उपहार मांगना पर गली में आया हूँ तो उससे मिल ही लूँ। साथ ही साथ डाकिया ये भी सोंचने लगा कि त्योहार के समय छोटी बच्ची से खाली हाथ मिलना ठीक नहीं रहेगा।बहुत सोच विचार कर उसने लड़की के लिए पाँच रुपए के चॉकलेट ले लिए।उसके बाद उसने लड़की के घर का दरवाजा खटखटाया। 
अंदर से आवाज आई....कौन?
मैं हूं गुड़िया...तुम्हारा डाकिया चाचा उत्तर मिला।
लड़की ने आकर दरवाजा खोला तो बूढ़े डाकिये ने उसे चॉकलेट थमा दी औऱ कहा..ले बेटी अपने ग़रीब चाचा के तरफ़ से ...
लड़की बहुत खुश हो गई औऱ उसने कुछ देर डाकिये को वहीं इंतजार करने के लिए कहा..
उसके बाद उसने अपने घर के एक कमरे से एक बड़ा सा डब्बा लाया औऱ उसे डाकिये के हाथ में देते हुए कहा , " चाचा..मेरी तरफ से दीपावली पर आपको यह भेंट है।
डब्बा देखकर डाकिया बहुत आश्चर्य में पड़ गया।उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे।
कुछ देर सोचकर उसने कहा," तुम तो मेरे लिए बेटी के समान हो, तुमसे मैं कोई उपहार कैसे ले लूँ बिटिया रानी ? 
"लड़की ने उससे आग्रह किया कि " चाचा मेरी इस गिफ्ट के लिए मना मत करना, नहीं तो मैं उदास हो जाऊंगी " ।
"ठीक है , कहते हुए बूढ़े डाकिये ने पैकेट ले लिया औऱ बड़े प्रेम से लड़की के सिर पर अपना हाथ फेरा मानो उसको आशीर्वाद दे रहा हो ।
बालिका ने कहा, " चाचा इस पैकेट को अपने घर ले जाकर खोलना।
घर जाकर जब उस डाकिये ने पैकेट खोला तो वह आश्चर्यचकित रह गया, क्योंकि उसमें एक जोड़ी जूते थे। उसकी आँखें डबडबा गई ।
डाकिये को यक़ीन नहीं हो रहा था कि एक छोटी सी लड़की उसके लिए इतना फ़िक्रमंद हो सकती है।
अगले दिन डाकिया अपने डाकघर पहुंचा और उसने पोस्टमास्टर से फरियाद की कि उसका तबादला फ़ौरन दूसरे इलाक़े में कर दिया जाए। 
पोस्टमास्टर ने जब इसका कारण पूछा, तो डाकिये ने वे जूते टेबल पर रखते हुए सारी कहानी सुनाई और भीगी आँखों और रुंधे गले से कहा, " सर..आज के बाद मैं उस गली में नहीं जा सकूँगा। उस छोटी अपाहिज बच्ची ने मेरे नंगे पाँवों को तो जूते दे दिये पर मैं उसे पाँव कैसे दे पाऊँगा ?"
इतना कहकर डाकिया फूटफूट कर रोने लगा ।

Sunday, September 21, 2025

नाम जप

वृंदावन में यमुना जी के तीरे एक व्यक्ति बैठे थे ! विचार मग्न थे ! दिन में नाम की महिमा का बखान सुन कर आ रहे थे ! सोच रहे थे क्या सत्य में नाम में इतनी शक्ति होती है ? बैठे बैठे निद्रा छा गई ! 
अर्ध रात्रि के आस पास चारों ओर शांति थी, कोई चहल पहल नहीं,कर्ण पुटी में आवाज आने लगी राधा कृष्ण, राधा कृष्ण, राधा कृष्ण, राधा कृष्ण, राधा कृष्ण, राधा कृष्ण !
निरंतर जप चल रहा था व्यक्ति चारों ओर देखने लगे सोच कर कोई संत आस पास भजन कर रहे है ! वहां कोई नहीं था ! 
उठे थोड़ा इधर उधर देखने को ! कोई नही था ! रात भर कौतुकी मन अनुसंधान में लगा रहा किंतु कोई मिला नही ! प्रातःकाल सूर्योदय से पहले कुछ संत स्नान को आने लगे ! एक संत ने उत्सुक सज्जन को देखा और मुस्कुराते हुए बोले क्या बात है बेटा इतने परेशान क्यों हो ? क्या खो गया तुम्हारा ?
सज्जन बोले बाबा रात भर से परेशान हूं लगातार राधा कृष्ण सुन रहा हूं किंतु ये आवाज कहां से आ रही है पता नही चल रहा !
बाबा बोले बेटा वृंदावन नाम सिद्ध संतों से अटी है ! वृन्दावन की भूमि स्वयं नाम जप करती है ! इसमें भला क्या अचरज ! कान लगा धरती पर और सुन !
जैसे ही व्यक्ति ने धरती पे शीश रखा और कान ने वृंदावन की रज को स्पर्श किया तो वो नाम जप जोर से और स्पष्ट रूप से सुनाई देने लगा ! 
संत ने बताया यहां एक महान वैष्णव संत ने समाधि ली थी जो निरंतर जप में लीन रहते थे ! बाबा तो नित्य निकुंज सेवा में चले गए किंतु उनकी देह आज भी पिछले ७० से ८० सालों से नाम जप में ही लीन है ! ये कोई आश्चर्य नहीं ! 
चलो माँ को प्रणाम कर स्नान कर लो फिर भोग आरती के बाद प्रसाद पा कर जाना ! 
ये सत्य है कोई भी इसको आज भी महसूस कर सकता है।