महामंत्र > हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे|हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे||

Wednesday, August 27, 2025

धर्मों रक्षति रक्षितः

भीष्म चुप रहे , कुछ क्षण बाद बोले,पुत्र युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करा चुके केशव? 
 उनका ध्यान रखना परिवार के बुजुर्गों से रिक्त हो चुके राजप्रासाद में उन्हें अब सबसे अधिक तुम्हारी ही आवश्यकता है।
कृष्ण चुप रहे
भीष्म ने पुनः कहा कुछ पूछूँ केशव? बड़े अच्छे समय से आये हो सम्भवतः धरा छोड़ने के पूर्व मेरे अनेक भ्रम समाप्त हो जाँय।
कृष्ण बोले - कहिये न पितामह
एक बात बताओ प्रभु ! तुम तो ईश्वर हो न
कृष्ण ने बीच में ही टोका, नहीं पितामह ! मैं ईश्वर नहीं मैं तो आपका पौत्र हूँ पितामह ईश्वर नहीं।
भीष्म उस घोर पीड़ा में भी ठठा के हँस पड़े ! बोले अपने जीवन का स्वयं कभी आकलन नहीं कर पाया कृष्ण , सो नहीं जानता कि अच्छा रहा या बुरा , पर अब तो इस धरा से जा रहा हूँ कन्हैया , अब तो ठगना छोड़ दे रे।
कृष्ण जाने क्यों ? भीष्म के पास सरक आये और उनका हाथ पकड़ कर बोले कहिये पितामह
भीष्म बोले ,एक बात बताओ कन्हैया ! इस युद्ध में जो हुआ वो ठीक था क्या?
किसकी ओर से पितामह पांडवों की ओर से
कौरवों के कृत्यों पर चर्चा का तो अब कोई अर्थ ही नहीं कन्हैया ! पर क्या पांडवों की ओर से जो हुआ वो सही था आचार्य द्रोण का वध,दुर्योधन की जंघा के नीचे प्रहार , दुःशासन की छाती का चीरा जाना,जयद्रथ और द्रोणाचार्य के साथ हुआ छल , निहत्थे कर्ण का वध , सब ठीक था क्या? यह सब उचित था क्या
इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हूँ पितामह
इसका उत्तर तो उन्हें देना चाहिए जिन्होंने यह किया
उत्तर दें दुर्योधन, दुःशाशन का वध करने वाले भीम , उत्तर दें कर्ण और जयद्रथ का वध करने वाले अर्जुन
मैं तो इस युद्ध में कहीं था ही नहीं पितामह
अभी भी छलना नहीं छोड़ोगे कृष्ण
अरे विश्व भले कहता रहे कि महाभारत को अर्जुन और भीम ने जीता है , पर मैं जानता हूँ कन्हैया कि यह तुम्हारी और केवल तुम्हारी विजय है मैं तो उत्तर तुम्ही से पूछूंगा कृष्ण
तो सुनिए पितामह
कुछ बुरा नहीं हुआ , कुछ अनैतिक नहीं हुआ वही हुआ जो होना चाहिए
यह तुम कह रहे हो केशव
मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतार कृष्ण कह रहा? यह छल तो किसी युग में हमारे सनातन संस्कारों का अंग नहीं रहा, फिर यह उचित कैसे गया
इतिहास से शिक्षा ली जाती है पितामह , पर निर्णय वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर लेना पड़ता है हर युग अपने तर्कों और अपनी आवश्यकता के आधार पर अपना नायक चुनता है ।
राम त्रेता युग के नायक थे , मेरे भाग में द्वापर आया था।
हम दोनों का निर्णय एक सा नहीं हो सकता पितामह नहीं समझ पाया कृष्ण ! तनिक समझाओ तो।
राम और कृष्ण की परिस्थितियों में बहुत अंतर है पितामह
राम के युग में खलनायक भी ' रावण ' जैसा शिवभक्त होता था तब रावण जैसी नकारात्मक शक्ति के परिवार में भी विभीषण, मंदोदरी, माल्यावान जैसे सन्त हुआ करते थे।तब बाली जैसे खलनायक के परिवार में भी तारा जैसी विदुषी स्त्रियाँ और अंगद जैसे सज्जन पुत्र होते थे उस युग में खलनायक भी धर्म का ज्ञान रखता था।
इसलिए राम ने उनके साथ कहीं छल नहीं किया किंतु मेरे युग के भाग में में कंस , जरासन्ध , दुर्योधन , दुःशासन , शकुनी , जयद्रथ जैसे घोर पापी आये हैं उनकी समाप्ति के लिए हर छल उचित है पितामह पाप का अंत आवश्यक है पितामह , वह चाहे जिस विधि से हो।
तो क्या तुम्हारे इन निर्णयों से गलत परम्पराएं नहीं प्रारम्भ होंगी केशव भविष्य तुम्हारे इन छलों का अनुशरण नहीं करेगा और यदि करेगा तो क्या यह उचित होगा
भविष्य तो इससे भी अधिक नकारात्मक आ रहा है पितामह कलियुग में तो इतने से भी काम नहीं चलेगा वहाँ मनुष्य को कृष्ण से भी अधिक कठोर होना होगा नहीं तो धर्म समाप्त हो जाएगा जब क्रूर और अनैतिक शक्तियाँ सत्य एवं धर्म का समूल नाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है पितामह तब महत्वपूर्ण होती है धर्म की विजय , केवल धर्म की विजय भविष्य को यह सीखना ही होगा पितामह
क्या धर्म का भी नाश हो सकता है केशव और यदि धर्म का नाश होना ही है , तो क्या मनुष्य इसे रोक सकता है
सबकुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ कर बैठना मूर्खता होती है पितामह ईश्वर स्वयं कुछ नहीं करता केवल मार्ग दर्शन करता है सब मनुष्य को ही स्वयं करना पड़ता है आप मुझे भी ईश्वर कहते हैं न
तो बताइए न पितामह,मैंने स्वयं इस युद्घ में कुछ किया क्या सब पांडवों को ही करना पड़ा न ? यही प्रकृति का संविधान है युद्ध के प्रथम दिन यही तो कहा था मैंने अर्जुन से यही परम सत्य है
भीष्म अब सन्तुष्ट लग रहे थे,उनकी आँखें धीरे-धीरे बन्द होने लगीं थी
उन्होंने कहा - चलो कृष्ण ! यह इस धरा पर अंतिम रात्रि है  कल सम्भवतः चले जाना हो अपने इस अभागे भक्त पर कृपा करना कृष्ण
कृष्ण ने मन में ही कुछ कहा और भीष्म को प्रणाम कर लौट चले , पर युद्धभूमि के उस डरावने अंधकार में भविष्य को जीवन का सबसे बड़ा सूत्र मिल चुका था।
जब अनैतिक और क्रूर शक्तियाँ सत्य और धर्म का विनाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता का पाठ आत्मघाती होता है।

बेटी— विवाह

बनारस की वो गलियाँ जहाँ हर मोड़ पे आपको एक छोटा-मोटा मंदिर मिल जाएगा। शायद यही बनारस की खूबसूरती का एक राज है।हर पल उस छोटे बड़े मंदिर से आती घंटियों की आवाज़ें मन को कितना सुकून देती हैं।बनारस के इन्हीं गलियों में एक राम जानकी मंदिर है, जिसकी देख रेख मंदिर के पुजारी पंडित रामनारायण मिश्र के हाथों थी। मिश्रजी भी अपनी पूरी जिंदगी इस राम जानकी मंदिर को समर्पित कर चुके थे।संपत्ति के नाम पर उनके पास एक छोटा सा 2 कमरे का मकान और परिवार में उनकी पत्नी और विवाह योग्य बेटी कमला। मन्दिर में जो भी दान आता वही पंडित जी और उनके परिवार के गुजारे का साधन था। बेटी विवाह योग्य हो गयी थी और पंडित जी ने हर मुकम्मल कोशिश की जो शायद हर बेटी का पिता करता। पर वही दान दहेज़ पे आकर बात रुक जाती।पंडित जी अब निराश हो चुके थे। सारे प्रयास कर के हार चुके थे।एक दिन मंदिर में दोपहर के समय जब भीड़ न के बराबर होती है उसी समय चुपचाप राम सीता की प्रतिमा के सामने आँखें बंद किये अपनी बेटी के भविष्य के बारे में सोचते हुए उनकी आँखों से आँसू बहे जा रहे थे।
तभी उनकी कानों में एक आवाज आई,नमस्कार, पंडित जी!झटके में आँखें खोलीं तो देखा सामने एक बुजुर्ग दंपत्ति हाथ जोड़े खड़े थे। पंडित जी ने बैठने का आग्रह किया। पंडित जी ने गौर किया कि वो वृद्ध दंपत्ति देखने में किसी अच्छे घर के लगते थे। दोनों के चेहरे पर एक सुन्दर सी आभा झलक रही थी।पंडित जी आपसे एक जरूरी बात करनी है।" वृद्ध पुरूष की आवाज़ सुनकर पंडित जी की तंत्रा टूटी।
हाँ हाँ कहिये श्रीमान।" पंडित जी ने कहा।
उस वृद्ध आदमी ने कहा, "पंडित जी, मेरा नाम विशम्भर नाथ है, हम गुजरात से काशी दर्शन को आये हैं, हम निःसंतान हैं, बहुत जगह मन्नतें माँगी पर हमारे भाग्य में पुत्र/पुत्री सुख तो जैसे लिखा ही नहीं था।
बहुत सालों से हमनें एक मन्नत माँगी हुई है, एक गरीब कन्या का विवाह कराना है, कन्यादान करना है हम दोनों को, तभी इस जीवन को कोई सार्थक पड़ाव मिलेगा।वृद्ध दंपत्ति की बातों को सुनकर पंडित जी मन ही मन इतना खुश हुए जा रहे थे जैसे स्वयं भगवान ने उनकी इच्छा पूरी करने किसी को भेज दिया हो।आप किसी कन्या को जानते हैं पंडित जी जो विवाह योग्य हो पर उसका विवाह न हो पा रहा हो। हम हर तरह से दान दहेज देंगे उसके लिए और एक सुयोग्य वर भी है।" वृद्ध महिला ने कहा।
पंडित जी ने बिना एक पल गंवाए अपनी बेटी के बारे में सब विस्तार से बता दिया। वृद्ध दम्पत्ति बहुत खुश हुए, बोले, "आज से आपकी बेटी हमारी हुई, बस अब आपको उसकी चिंता करने की कोई जरूरत नहीं, उसका विवाह हम करेंगे।पंडित जी की खुशी का कोई ठिकाना न रहा। उनकी मनचाही इच्छा जैसे पूरी हो गयी हो।विशम्भर नाथ ने उन्हें एक विजिटिंग कार्ड दिया और बोला,बनारस में ही ये लड़का है, ये उसके पिता के आफिस का पता है, आप जाइये। ये मेरे रिश्ते में मेरे साढ़ू लगते हैं। बस आप जाइये और मेरे बारे में कुछ न बताइयेगा। मैं बीच में नहीं आना चाहता। आप जाइये, खुद से बात करिये।
पंडित जी घबराए और बोले, "मैं कैसे बात करूँ, न जान न पहचान, कहीं उन्होंने मना कर दिया इस रिश्ते के लिए तो.
वृद्ध दंपत्ति ने मुस्कुराते हुए आश्वासन दिया कि,आप जाइये तो सही। लड़के के पिता का स्वभाव बहुत अच्छा है, वो आपको मना नहीं करेंगे।
इतना कह कर वृद्ध दंपत्ति ने उनको अपना मोबाइल नंबर दिया और चले गए। पंडित जी ने बिना समय गंवाए लड़के के पिता के आफिस का रुख किया। मानो जैसे कोई चमत्कार सा हो गया। 'ऑफिस में लड़के के पिता से मिलने के बाद लड़के के पिता की हाँ कर दी', 'तुरंत शादी की डेट फाइनल हो गयी', पंडित जी जब जब उस दंपत्ति को फोन करते तब तब शादी विवाह की जरूरत का दान दहेज उनके घर पहुँच जाता।
सारी बुकिंग, हर तरह का सहयोग बस पंडित जी के फोन कॉल करते ही उन तक पहुँचने लगते।अंततः धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ। पंडित जी की लड़की कमला विदा होकर अपने ससुराल चली गयी।पंडित जी ने राहत की साँस ली। पंडित जी अगले दिन मंदिर में बैठे उस वृद्ध दम्पत्ति के बारे में सोच रहे थे कि कौन थे वो दम्पत्ति जिन्होंने मेरी बेटी को अपना समझा, बस एक ही बार मुझसे मिले और मेरी सारी परेशानी हर लिए।
यही सोचते-सोचते पंडित जी ने उनको फोन मिलाया। उनका फोन स्विच ऑफ बता रहा था। पंडित जी का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा।उन्होंने मन ही मन तय किया कि एक दो दिन और फोन करूँगा नहीं बात होने पर अपने समधी जी से पूछूँगा जरूर विशम्भर नाथ जी के बारे में।अंततः लगातार 3 दिन फ़ोन करने के बाद भी विशम्भर नाथ जी का फ़ोन नहीं लगा तो उन्होंने तुरंत अपने समधी जी को फ़ोन मिलाया। ये क्या 
फ़ोन पे बात करने के बाद पंडित जी की आँखों से झर झर आँसू बहने लगे। पंडित जी के समधी जी का दूर दूर तक विशम्भर नाथ नाम का न कोई सगा संबंधी, न ही कोई मित्र था। पंडित जी आँखों में आँसू लिए मंदिर में प्रभु श्रीराम के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए। और रोते हुए बोले, मुझे अब पता चला प्रभु, वो विशम्भर नाथ और कोई नहीं आप ही थे,वो वृद्धा जानकी माता थीं, आपसे मेरा और मेरी बेटी का कष्ट देखा नहीं गया,दुनिया इस बात को माने या न माने पर आप ही आकर मुझसे बातें कर के मेरे दुःख को हरे प्रभु। राम जानकी की प्रतिमा जैसे मुस्कुराते हुए अपने भक्त पंडित जी को देखे जा रही थी।

Sunday, August 24, 2025

चार लड्डू

बहुत समय पहले की बात है श्री कन्हैयालाल जी के मंदिर में रोज पुजारी जी बड़े भाव से सेवा करते थे। वे रोज कन्हैया जी की आरती करते,भोग लगाते और उन्हें शयन कराते और रोज चार लड्डू भगवान के बिस्तर के पास रख देते थे। उनका यह भाव था कि प्रभु जी को यदि रात में भूख लगेगी तो वे उठ कर खा लेंगे। और जब वे सुबह मंदिर के पट खोलते थे तो भगवान के बिस्तर पर प्रसाद बिखरा मिलता था। इसी भाव से वे रोज ऐसा करते थे।
एक दिन कन्हैया जी को शयन कराने के बाद वे चार लड्डू रखना भूल गए। उन्होंने पट बंद किए और चले गए। रात में करीब एक-दो बजे, जिस दुकान से वे बूंदी के लड्डू आते थे, उन बाबा की दुकान खुली थी। वे घर जाने ही वाले थे तभी एक छोटा सा बालक आया और बोला बाबा मुझे बूंदी के लड्डू चाहिए।
बाबा ने कहा - लाला लड्डू तो सारे ख़त्म हो गए। अब तो मैं दुकान बंद करने जा रहा हूँ। वह बोला आप अंदर जाकर देखो आपके पास चार लड्डू रखे हैं। उसके हठ
करने पर बाबा ने अंदर जाकर देखा तो उन्हें चार लड्डू मिल गए क्यों कि वे आज मंदिर नहीं गए थे। 
बाबा ने कहा - पैसे दो।
बालक ने कहा - मेरे पास पैसे तो नहीं हैं और तुरंत अपने हाथ से सोने का कंगन उतारा और बाबा को देने लगे।
 तो बाबा ने कहा - लाला पैसे नहीं हैं तो रहने दे,कल अपने बाबा से कह देना, मैं उनसे ले लूँगा। पर वह बालक नहीं माना और कंगन दुकान में फैंक कर भाग गया। सुबह जब पुजारी जी ने पट खोला तो उन्होंने देखा कि कान्हा के हाथ में कंगन नहीं है। यदि चोर भी चुराता तो केवल कंगन ही क्यों चुराता। थोड़ी देर बाद ये बात सारे मंदिर में फ़ैल गई।
जब उस दुकान वाले को पता चला तो उसे रात की बात याद आई। उसने अपनी दुकान में कंगन ढूंढा और पुजारी जी को दिखाया और सारी बात सुनाई। तब पुजारी जी को याद आया कि रात में, मैं लड्डू रखना ही भूल गया था। इसलिए भगवान जी स्वयं लड्डू लेने गए थे।
यदि भक्ति में भक्त कोई सेवा भूल भी जाता है तो भगवान अपनी तरफ से पूरा कर लेते हैं।

Thursday, August 21, 2025

श्री रामचरितमानस के अनुसार

रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
मन करि बिषय अनल बन जरई। होई सुखी जौं एहिं सर परई॥

भावार्थ:-इसका नाम रामचरित मानस है, जिसके कानों से सुनते ही शांति मिलती है। मन रूपी हाथी विषय रूपी दावानल में जल रहा है, वह यदि इस रामचरित मानस रूपी सरोवर में आ पड़े तो सुखी हो जाए॥ 

माना जाता है कि जिस घर में रामायण रखी होती है, वहां कभी भूत, पिशाच, प्रेतों का वास नहीं होता है। इसलिए हर घर में रामायण जरूरी है। जिस घर में रामायण के पास सुबह शाम गौ माता के घी का दीपक प्रतिदिन जलाया जाता है, उस घर में आरोग्य बढ़ता है, बीमारियां कम होती है धन धान्य की कमी नहीं होती । जिस घर में यदि रामायण की शाम के समय देशी घी का दीपक जलाकर रामायण की आरती प्रतिदिन होती है। उस घर पर श्रीराम की कृपा सदैव रहती है और घर घर में शांति का वातावरण रहता है। जिस घर में 1 माह में मात्र पूर्णिमा को प्रति माह रामायण का पाठ होता है। उस घर में अकाल मृत्यु नहीं होती है। जिस घर में प्रति सप्ताह रामायण होती है, उस घर पर श्रीराम और माता सीता की कृपा सदैव रहती है। उस घर में बच्चों की वृद्धि होती है। प्रतिदिन रामायण का पाठ होता है उस घर पर भगवान शिव, श्रीराम, माता सीता, श्री हनुमान, शनिदेव, नव ग्रह, 33 कोटि देवी देवताओं की की सदैव कृपा रहती है। उस घर से दरिद्रता भाग जाती है, उस परिवार का यश बढ़ने लगता है। उस घर पर साक्षात मां लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है। बच्चों को कभी भय नहीं लगता। भूत, प्रेत, पिशाच वहां प्रवेश नहीं कर सकते हैं। उस घर में सुख, शान्ति, समृद्धि, धन, अन्न, संतान, मित्र, पड़ोसी, रिस्तेदारों आदि से परिपूर्ण होता है।

रामायण हमें पारिवारिक मैनेजमेंट सिखाती है, रामायण हमें संसार में जीना सिखाती है ।रामायण के दोहे जीवन में ना सिर्फ आपको धर्म के रास्ते पर चलने की सीख देते हैं बल्कि जीवन के हर मोड़ पर आपको लाभ भी देते हैं। इस महाकाव्य में दशरथ नंदन श्रीराम और माता जानकी ही नहीं बल्कि सामाजिक जीवन को जीने के लिए संपूर्ण ज्ञान है। तुलसीदासजी ने मानव जीवन के कल्याण के लिए रामायण का पाठ बहुत जरूरी बताया है। रामायण के नियमित पाठ से हमें क्या फायदे हैं समझते हैं रामायण के दोहों के माध्यम से।

मिलती है प्रसन्नता

बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥

तुलसीदासजी ने कहा है कि रामकथा पंडितों को विश्राम देने वाली होती है। साथ ही मनुष्य को हर तरह से प्रसन्नता मिलती है। कलियुग में राम नाम से बढ़कर और कोई नाम नहीं है। रामायण के पाठ से सभी पापों का अंत होता है।

कलियुग में केवल राम नाम

रामकथा कलियुग रूपी सांप के लिए मोरनी के समान है। कलियुग में आप जितना राम का नाम लेंगे, जीवन आपका उतना ही सरल होगा। क्योंकि मोक्ष का केवल एक ही नाम है और वो है केवल राम। विवेकरूपी अग्नि के प्रकट करने के लिए अरणि (मंथन की जाने वाली लकड़ी) है। अर्थात इस कथा से ज्ञान की प्राप्ति होती है।

बनी रहती है सुख-शांति

रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि ।

दोहे में लिखा है कि रामकथा कलियुग में सब मनोरथों को पूर्ण करने वाली कामधेनु गौ के समान है और सज्जनों के लिए सुंदर संजीवनी जड़ी बूटी है। जिस घर में हर रोज रामायण का पाठ होता है, उस घर में लक्ष्मी सदैव निवास करती है और सुख-शांति बनी रहती है और आपके सभी कार्य पूर्ण होते हैं।

राम का नाम ही सर्वोपरि

दोहे में आगे लिखा है कि रामायण का पाठ पृथ्वी पर अमृत की नदी के समान हैं। यह जन्म-मरण रूपी भय का नाश करने वाली और भ्रमरूपी मेढ़कों को खाने के लिए सर्पिणी है। रामायण का पाठ करने से हम संसार रूपी भवसागर से पार पा लेते हैं और कलियुग में राम का नाम ही सर्वोपरि है।

पापों से मिलती है मुक्ति

असुर सेन सम नरक निकंदिनी। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनी।
संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी।।

दोहे में लिखा है कि रामकथा असुरों की सेना के समान नरकों का नाश करने वाली है। इसका पाठ पढ़कर सभी तरह के कष्ट और पाप से मुक्ति मिलती है। साथ ही साधु रूप देवताओं के कुल का हित करने वाली पार्वती (दुर्गा) के समान है। यह हमको हर तरह के कष्टों से बचाती है और मानव कल्याण के लिए रास्ता दिखाती है।

मुक्ति का मार्ग होता है प्रशस्त

दोहे में आगे लिखा है कि संत समाज रूपी क्षीर सागर के लिए लक्ष्मीजी के समान है और संपूर्ण विश्व का भार उठाने में अचल पृथ्वी के समान है। रामायण का पाठ करने से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
रामचरितमानस में हिंदू आदर्शों का उत्कृष्ट वर्णन है इसीलिये इसे हिंदू धर्म के प्रमुख ग्रंथ होने का श्रेय मिला हुआ है और प्रत्येक हिंदू परिवार में भक्तिभाव के साथ इसका पठन पाठन किया जाता है। अतः आप सभी से निवेदन है की अपने-अपने घरों में रामायण/रामचरितमानस एवं श्रीमदभगवद गीता आदि ग्रंथों को अवश्य रखें तथा बच्चों को कभी-कभी उसका पाठ करने के लिए प्रेरित करें तथा उसे आप भी सुनें । यदि आपके घर में रामायण नहीं है तो लाक डाउन खुलने के पश्चात रामचरित मानस को अपने परिवार में एक विद्वान सदस्य का दर्जा देकर अपनी पारिवारिक जीवन शैली में सार्थक बदलाव महसूस कीजिये।।

जिस घर में रामायण का वास है, उस परिवार को छू भी नहीं सकतीं विपदाएं।

Monday, August 18, 2025

प्रेम मार्ग

वृन्दावन की महिमा तभी है अगर भगवान कृष्ण की याद आये, हृदय द्रवित हो, अहं गल जाए बंधन छूट जाएँ। 
श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन आये एक पण्डा उनके साथ हो लिया। हर स्थान पर बोलता जाता कि कहाँ पर हमारे बन्सीधर ने कौन सी लीला की है।
एक स्थान आया पण्डा बोला, ये वो ही कदम्ब का पेड़ है जिस पर राधाकृष्ण झूला झूलते थे। यहाँ पर राधा जी का मोतियों का हार कान्हा से टूट गया वो बोली सारे मोती चुन कर इकट्ठे कर के मुझे दो। सारे मोती कान्हा ने इकट्ठे किये पर एक मोती ना मिला तो कान्हा ने बांसुरी से खोदा तो मोती ढूंढने को पर बन गयी “मोती झील”, राधा रानी जिद पर अड़ गयी मेरा एक मोती ला कर ही दो। फिर कान्हा ने एक पेड़ लगाया और कहा, "इस पर मोती जैसे फूल आयेंगे फिर तुम ले लेना ढेर सारे हार बनाना।" आज भी उस पेड़ पर मोती जैसे फूल आते हैं।
ये लीलाएँ पण्डा के मुख से सुनते ही महाप्रभु की आँखों में आँसू बहने लगे, मोती झील के किनारे लोटने लगे ब्रज धूलि में। "ये मेरे आराध्य देव की खोदी मोती झील है, ये वो ही कदम्ब का पेड़ है जिस पर दोनों झूला झूलते हैं।" हृदय द्रवीभूत हो गया। ब्रजरज में लौटने लगे अपने प्यारे की कृपामयी लीलाओं के सुनने मात्र से ही।
ना तो उन्होंने किसी आर्कयोलॉजिस्ट से पूछा, ना कोई तर्क किया कि क्या वाकई ये वो ही स्थान है या तुम गढ़ी हुई कहानी सुना रहे हो। कोई किन्तु परन्तु कुछ नहीं किया।
भक्त ने सुना और हो गया हृदय द्रवित, गला रुंध गया, लीला में डूब गया और ब्रजरज में लौटने लगा। भगवान को तर्क करने से नहीं केवल प्रेम से, आस्था से, विश्वास से ही पाया जा सकता है।
पंडितों की दुनिया दूसरी होती है। विद्वानो की दूसरी दुनिया है और भक्तों की अलग। ब्रज का मार्ग तो प्रेम का मार्ग है, श्रद्धा का मार्ग है।
वृंदावन के वृक्ष को मर्म ना जाने कोय।
डाल-डाल और पात-पात श्री राधे राधे होय।।

माखन चोर लड्डूगोपाल....

किसी गांव में मक्खन बेचने वाला एक व्यापारी मक्खन लाल रहता था। 
वह स्वभाव से बहुत कंजूस था लेकिन जो भी काम करता था बड़ी मेहनत और ईमानदारी से करता था।
उसके मक्खन को लेने के लिए लोग दूर-दूर से आते थे। 
एक दिन उसकी दुकान पर उसका जीजा और बहन आए। वे सीधा वृंदावन से आए थे।
वे उसके लिए लड्डू गोपाल जी को लेकर आए थे, बोले इनको घर लेकर जाना और इनकी प्राण प्रतिष्ठा के साथ पूजा करना।
मक्खन लाल बहुत ही कंजूस प्रवृत्ति का था। वह सोचने लगा कि अगर घर लेकर जाऊंगा तो मेरी बीवी इस पर सिंगार और पूजा में खूब खर्च करेगी इसलिए उसने कहा कि मैं इसको दुकान पर ही रखूंगा।
उसकी बहन ने कहा कि तू सुबह जब दुकान पर आया करेगा तो लड्डू गोपाल को दुकान से ही थोड़ा सा मक्खन निकाल कर भोग लगा दिया कर। 
यह सुनकर मक्खन लाल थोड़ा सा हैरान हो गया कि अब इसके लिए भी मुझे मक्खन निकालना पड़ेगा लेकिन फिर भी उसने अपनी बहन को हां कर दी।
अगले दिन जब वह दुकान पर आया तो उसको याद था कि मक्खन का भोग लगाना है लेकिन वह कहता कि कोई बात नहीं अभी कल ही तो इसको लाए हैं मैं अभी दो दिन बाद लगाऊंगा। 
उसने कहा, गोपाला अभी तो तू खा कर आया होगा। मैं दो दिन बाद तुझे भोग लगा दूंगा।
ऐसा कहते-कहते उसको दो हफ्ते बीत गए।लेकिन वह कंजूस मक्खन लाल रोज ही आनाकानी करने लगा। 
एक दिन जब मक्खन लाल सुबह दुकान पर आया तो उसने देखा आधा मक्खन ही गायब है। 
वह सोचने लगा, ऐसा कैसे हो गया? माखन कम कैसे हो गया।।
 जितनी बिक्री रोज मक्खन की होती थी दाम तो उसको उतने मिल गए लेकिन फिर भी उसके मन में उथल-पुथल मची रही। 
आधा मक्खन कहां चला गया। अब तो रोज का यही नियम हो गया। आधा मक्खन रोज गायब हो जाता था। 
मक्खन लाल को बहुत चिंता हुई। वह सोचने लगा कि आज रात को मैं दुकान पर ही रुकूंगा और देखूंगा कि मक्खन कौन लेकर जाता है।
उस दिन वह दुकान पर ही रुक गया और आधी रात को देखता है कि एक बालक मक्खन के मटके के पास बैठ कर दोनो हाथों से मक्खन खा रहा है। 
मक्खन लाल हैरान हो गया कि यह बालक कहां से आया? कौन इसको लेकर आया? इसके माँ बाबा कहां है और यह दोनों हाथों से मक्खन खा रहा है जैसे इसी की दुकान हो। 
उसको बहुत गुस्सा आया। वह जाकर उस बालक को पकड़ता है और कहता है, अब नहीं छोडूंगा! पकड़ लिया, अब नहीं छोडूंगा तो वह बालक दोनों हाथों से तब भी मखन खाता रहता है।
उस बालक ने कहा कि, हां-हां छोडियों मत!
मक्खन लाल सोचता है कि इतना हठी बालक! यह तो डर भी नहीं रहा। जरूर इसके साथ कोई आया हुआ है। मैं उसको देख कर आता हूं। 
ऐसा कहकर उधर देखने गया और जब वापस आया तो वह बालक गायब हो चुका था तो मक्खन लाल को बड़ी हैरानी हुई।
एकदम से बालक कहां चला गया? मन मसोस कर बैठ गया।
अगले दिन उसके घर जीजा और बहन आए हुए थे तो उसने उनको सारी बात बताई कि मेरी दुकान से आधा मक्खन रोज गायब हो जाता है।
उसकी बहन बोली, ऐसा करो! आज अपने जीजा को साथ ले जाओ और देखो कि कौन सा चोर है?
जब रात को जीजा और साला दुकान पर छुप कर बैठ कर देखने लगे कि कौन आया है तभी उन्होंने देखा कि एक बालक मटके के पास बैठकर दोनों हाथों से मक्खन खा रहा था,
तभी वह दोनों उस बालक को पकड़ लेते हैं और कहते हैं कि कौन हो तुम? कहां से आए हो और यह मक्खन क्यों खा रहे हो।
वह बालक बोला, मैं तो वृंदावन से मक्खन लाल के दुकान की मक्खन की खुशबू के कारण ही तो यहां आया हूं और तुम लोग मुझे मक्खन खाने से रोक रहे हो।
वह और उसका जीजा एक दूसरे का मुंह देखने लगते हैं कि यह क्या लीला है? यह छोटा सा बालक इतनी दूर वृंदावन से मक्खन चोरी करने के लिए आया है।
वह पूछते हैं, तेरे मैया बाबा कहां है?
उसने कहा कि वो तो वृंदावन में ही हैं। मैं तो यहां मक्खन खाने के लिए आया हूं।
मक्खन लाल कहता है कि, तू तो मेरा घाटा करवा रहा है।
वह कहता है कि, क्या मक्खन बेचते हुए तुम्हें कभी घाटा हुआ है। तुम्हें तो उतने ही पैसे मिलते हैं।
हां यह तो बात सही है, मक्खन लाल सोचता - ये कैसे हो रहा है?
मक्खन लाल अपने जीजा को कहता है उसको पकड़ कर रखिए, मैं इधर-उधर देखता हूं, जरूर इसके साथ कोई है। 
जब वो इधर उधर देखता है तो उसे वहां कोई नहीं मिलता और आकर देखता है कि वह बालक भी वहां नहीं है। 
जीजा को पूछता है कि, बालक कहां गया तो वह कहता है कि मुझे नहीं पता चला कि वह कहां चला गया।
तभी उनका ध्यान लड्डू गोपाल के मुख पर पड़ता है जिनके मुख पर बहुत सारा मक्खन लगा था।
वह देख कर हैरान हो जाते हैं कि अरे! यह तो लड्डू गोपाल की लीला है, जो आकर यहां मक्खन खाते हैं। 
मक्खन लाल और जीजा धन्य-धन्य हो उठते हैं कि लड्डू गोपाल जी ने तो साक्षात् हमारे मक्खन का भोग लगा लिया।
जीजा ने कहा कि, मैंने तो तुम्हें कहा था कि इनको रोज एक कटोरी मक्खन का भोग लगा दिया करो और तूने नहीं लगाया। 
देखो वह अपना हिस्सा अपने आप ही ले लेते हैं।
मक्खन लाल कहने लगा कि, मुझसे गलती हो गई। मैं तो ऐसी इनकी लीला जानता ही नहीं था। अब तो मैं रोज इनको माखन का भोग लगा दिया करूंगा और रोज नियम से इनकी पूजा भी किया करूंगा।
ऐसे हैं हमारे लड्डू गोपाल जो उनको चाहिए, वह प्यार से नहीं तो हक से भी ले लेते हैं। 
मक्खन लाल की ईमानदारी और मेहनत की कमाई थी। चाहे वह कंजूस था लेकिन उसके मक्खन की खुशबू में मेहनत और इमानदारी थी,
 इसलिए गोपाल जी वृंदावन से माखन खाने के लिए मक्खन लाल की दुकान पर खींचे चले आए।
बोलिये लड्डू गोपाल कि जय

जय श्री राधे राधे~जय श्री कृष्ण

एक बार अयोध्या में........

एक बार अयोध्या में राघवेंद्र भगवान श्रीराम ने अपने पितरों का श्राद्ध करने के लिए ब्राह्मण-भोजन का आयोजन किया। ब्राह्मण-भोजन में सम्मिलित होने के लिए दूर-दूर से ब्राह्मणों की टोलियां आने लगीं । भगवान शंकर को जब यह मालूम हुआ तो वे कौतुहलवश एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धर कर ब्राह्मणों की टोली में शामिल होकर वहां पहुंच गए और श्रीरामजी से बोले—‘मुझे भी भोजन करना है।
अन्तर्यामी भगवान श्रीराम बूढ़े ब्राह्मण को पहचान गए और समझ गए कि भगवान शंकर ही मेरी परीक्षा करने यहां पधारे हैं । ब्राह्मण-भोजन के लिए जैसे ही पंगत पड़ी, भगवान श्रीराम ने स्वयं उस वृद्ध ब्राह्मण के चरणों को अपने करकमलों से धोया और आसन पर बिठाकर भोजन-सामग्री परोसना शुरु कर दिया । छोटे भाई लक्ष्मणजी भगवान शंकर को जो भी वस्तु परोसते, शंकरजी उसे एक ही ग्रास में खत्म कर देते । उनकी पत्तल पर कोई सामान बचता ही नहीं था । सभी परोसने वाले उस बूढ़े ब्राह्मण की पत्तल में सामग्री भरने में लग गए, पर पत्तल तो खाली-की-खाली ही नजर आती। श्रीरामजी मन-ही-मन मुस्कराते हुए शंकरजी की यह लीला देख रहे थे।
भोजन समाप्त होते देख महल में चिंता होने लगी गयी । माता सीता के पास भी यह समाचार पहुंचा कि श्राद्ध में एक ऐसे वृद्ध ब्राह्मण पधारे हैं, जिनकी पत्तल पर सामग्री परोसते ही साफ हो जाती है। श्राद्ध में आमन्त्रित सभी ब्राह्मणों को भोजन कराना भगवान श्रीराम की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया। माता सीता भी चिन्तित होने लगीं।
जब बनाया गया सारा भोजन समाप्त हो गया फिर भी शंकरजी तृप्त नहीं हुए तो श्रीराम ने माता अन्नपूर्णा का स्मरण कर उनका आह्वान किया । सभी परोसने वाले व्यक्ति वहां से हटा दिये गये । माता अन्नपूर्णा वहां प्रकट हो गयीं ।
शंकरजी की क्षुधा केवल माता अन्नपूर्णा ही कर सकती है शान्त।
श्रीरामजी ने माता अन्नपूर्णा से कहा—अपने स्वामी को आप ही भोजन कराइए, इन्हें आपके अतिरिक्त और कोई तृप्त नहीं कर सकता है ।
मां अन्नपूर्णा ने जब अपने हाथ में भोजन पात्र लिया तो उसमें भोजन अक्षय हो गया । अब वे स्वयं विश्वनाथ को भोजन कराने लगीं । मां अन्नपूर्णा ने पत्तल में एक लड्डू परोसा । भगवान विश्वनाथ खाते-खाते थक गये पर वह समाप्त ही नहीं होता था । मां ने दोबारा परोसना चाहा तो भगवान शंकर ने मना कर दिया । शंकरजी हंसते हुए डकार लेने लगे और बोले—‘तुम्हें आना पड़ा, अब तो मैं तृप्त हो गया ।’
मां अन्नपूर्णा काशी की अधीश्वरी हैं इसलिए वहां एक कहावत प्रचलित है—
‘बाबा-बाबा सब कहै, माई कहे न कोय।
बाबा के दरबार में माई कहैं सो होय ।।
अब शंकरजी भगवान श्रीराम-सीता की मर्यादा की परीक्षा लेने लगे।
शंकरजी श्रीरामजी से बोले—‘मैं इतना खा गया हूँ कि मुझसे अपने आप उठा नहीं जा रहा है । मुझे जरा उठाओ ।’ हनुमानजी अपने स्वामी का कार्य करने के लिए आगे बढ़े और शंकरजी को उठाने लगे परन्तु वे उन्हें उठा नहीं सके । श्रीरामजी ने लक्ष्मणजी से शंकरजी को उठाने के लिए कहा ।
अनन्त के अवतार की शक्ति भी अनन्त होती है। लक्ष्मणजी ने शंकरजी को उठाकर एक पलंग पर लिटा दिया । अब शंकरजी ने कहा—‘मेरा मुख और हाथ धो दो ।
माता सीता ने जैसे ही मुख धोने के लिए जल दिया, शंकरजी ने मुख में पानी भरकर माता सीता पर कुल्ला कर दिया । माता सीता क्रुद्ध होने के बजाय हाथ जोड़कर शंकरजी से बोली—‘आपके उच्छिष्ट जल के मेरे ऊपर गिरने से मेरा शरीर पवित्र हो गया, मैं आपकी बहुत आभारी हूँ ।’
अब भगवान शंकर ने श्रीराम को चरण दबाने की आज्ञा दी । श्रीराम और लक्ष्मण दोनों शंकरजी के चरण दबाने लगे और माता सीता पंखा झलने लगीं ।
प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने कहा—‘मैंने तुम्हारी मर्यादा की परीक्षा ली जिसमें तुम सफल रहे । तुम्हारी जो इच्छा हो मुझसे मांग लो ।
श्रीराम ने कहा—‘यद्यपि आपके पास जो चीजें हैं (विष का भोजन, विषधर सर्प, गजचर्म, बूढ़ा बैल, भूत-प्रेत पिशाच) वे हमारे किसी काम की नहीं हैं, इसलिए आप अपने चरणों की भक्ति दें और मेरी सभा में कथा सुनाया करें।
तब से शंकरजी राम सभा के कथावाचक बन गए और पूर्व कल्पों की कथाएं सुनाया करते थे।